Mar १२, २०१८ १७:२४ Asia/Kolkata

हमने बताया था कि मस्जिद मुसलमानों के बीच एकता पैदा करने का सबसे बेहतरीन स्थान है और एकता की रक्षा, ईश्वरीय लक्ष्य को पूरा करना है।

पवित्र क़ुरआन के सूरए आले इमरान की आयत संख्या 103 में खुलकर लोगों से एकता बनाए रखने का आह्वान किया गया है। पवित्र क़ुरआन की इस आयत में ईश्वर कहता है कि सभी लोग ईश्वर की रस्सी मज़बूती से पकड़ लें और मतभेद से बचें। इस परिधि में मस्जिद इस ईश्वरीय संदेश को पहुंचाने और इसके क्रियान्वयन का सबसे पवित्र और बेहतरीन स्थान है। यह वह स्थान है जो ईश्वरीय संदेश पहुंचाने, धर्म की बात सिखाने, धर्म के प्रचार व प्रसार के लिए बेहतरीन है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि इस बेहतरीन अवसर से इमामे जमाअत के नेतृत्व में भरपूर लाभ उठाया जा सकता है। मस्जिद में संपर्क के तरीक़े और नमाज़ियों द्वारा इमामे जमाअत का अनुसरण, एक बेहतरीन और अच्छा उदाहरण है जिसमें समाज के राजनैतिक और सामाजिक पहलूओं को भी देखा जा सकता है। जिस प्रकार से यह कहा जाता है कि साथ में पढ़ी जाने वाली नमाज़ या नमाज़े जमाअत में नमाज़ी की आवाज़ इमाम से ऊंची नहीं होनी चाहिए, इमाम के आगे उन्हें खड़ा नहीं होना चाहिए या यह कि नमाज़ के दौरान इमाम से पहले रुकू या सजदे में नहीं जाना चाहिए, उन सब चीज़ों से नमाज़ी सीखते हैं कि समाज की एकता और एकजुटता की रक्षा के लिए, यह कार्यवाही समाज के न्यायप्रिय नेता व इमाम के हवाले से भी यही होना चाहिए क्योंकि इमामे जमाअत, इस्लामी समाज के नेता का एक उदाहरण होता है।

 

यहां पर यह बात बताना भी आवश्यक है कि इमाम या धार्मिक नेता का वास्तविक जनाधार पाना कोई सरल काम नहीं है। जो भी यह स्थान प्राप्त करे उसे स्वयं को बुराइयों से दूर करना होगा, भले कार्य में सबसे आगे रहना होगा और कुशल प्रबंधन की क्षमता होनी चाहिए। प्रबंधन और नेतृत्व की क्षमता के अलावा, सांसारिक मोहमाया से दूर हो, वैचारिक रूप से खुले मन का हो और आंतरिक इच्छाओं का पुजारी न हो, इन सबसे महत्वपूर्ण यह कि हर समय ईश्वर से डरने वाला हो और ईश्वर को अपने क्रियाकलापों पर निरिक्षक समझे।

इमाम जमाअत का प्रभाव, नमाज़ियों के बीच एकता व एकजुटता का मुख्य कारण है। वह इमाम जमाअत सफल है जो नमाज़ियों के दिलों और उनकी आस्थाओं पर प्रभाव रखे। सैद्धांतिक रूप से लोगों के दिलों पर राज करने का यह है कि उनके दिलों को अपने कंट्रोल में रखे और उनको भीतर से बदल से दे। यह परिवर्तन उस समय अधिक उभर कर सामने आता है जब मस्जिद का इमाम, स्वयं बदल चुका हो।

लोगों के दिलों पर राज करने और उनके दिलों पर असर डालने का एक कारण, जनता में घुल मिल जाना और जनता का सम्मान करना है। यदि एक नेता अपने विनम्र और अच्छे बर्ताव से अपने अनुयायियों की सेवा अंजाम दे और उनको यह समझा दे कि वह उनका बहुत अधिक ख़्याल रखता है और उनका भला चाहता है तो वह बड़ी सरलता से लोगों के दिलों पर राज कर सकता है।

 

मशहद की गौहरशाद मस्जिद, ईरान की महत्वपूर्ण मस्जिदों में से एक है। यह ऐतिहासिक इमारत इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के रौज़े के दक्षिण में बनी हुई है। गौहरशाद जामा मस्जिद को तैमूरी काल के प्रसिद्ध वास्तुकारों ने बनाया है। इस मस्जिद के निर्माण में ईंट और चूने का प्रयोग किया गया है। तैमूरी शासक अमीर ग़यासुद्दीन तरख़ान की बेटी गौहरशाद आग़ा के आदेश पर वर्ष 1418 ईसवी में इस मस्जिद का निर्माण किया गया।

शाहरुख़ तैमूरी की पत्नी के आदेश से इस्लामी जगत की सुन्दर मस्जिद, मस्जिदे गौहरशाद का निर्माण किया गया। महारानी गौहरशाद, तैमूरी शासन काल की प्रसिद्ध महिलाओं में से एक थीं जिनका सम्मान मुग़ल राजा तक करते थे और उनसे राज दरबार के मामलों में परामर्श करते थे, मस्जिद के निर्माण में उनकी भूमिका के बारे में दो जगह पर उनके नाम लिखे हुए हैं। एक मस्जिद के प्रांगड़ के प्रवेश द्वार पर और दूसरे सुन्दर टाइलों पर उकेर कर मक़ूसरा प्रांगण की चौखट पर मस्जिद की संस्थापक के रूप में खिख है। तैमूरियों के काल में इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के पवित्र मज़ार में बहुत निर्माण कार्य हुआ। उस समय शाहरुख़ तैमूरी की पत्नी के आदेश से इस्लामी जगत की सुन्दर मस्जिद, मस्जिदे गौहरशाद का निर्माण किया गया। इस मस्जिद का निर्माण इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के पवित्र मज़ार के दक्षिणी प्रांगण में हुआ है। बहुत से विशेषज्ञों का मानना है कि मस्जिदे गौहरशाद, निर्माण और वास्तुकला की दृष्टि से इस्लामी जगत में अद्वतीय है। इस मस्जिद के द्वार पर जो शिलालेख लगे हैं इस्लामी दुनिया में उनका कहीं भी उदाहरण नहीं है। इस मस्जिद का हाल बहुत बड़ा व ऊंचा है और यह ईरान की सुन्दरतम मस्जिदों में एक है।

 

मस्जिदे गौहरशाह का प्रांगण लगभग वर्गाकार है जिसका क्षेत्रफल दो हज़ार 850 मीटर है। इसमें चार प्रांगण और एक फ़ीरोज़ी रंग का गुंबद और दो अज़ान देने के विशेष स्थान है। मशहद की मस्जिदे गौहरशाद, इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के रौज़े के आसपास की समस्त प्राचीन इमारतों और बिल्डिंगों में सबसे सुन्दर और महत्वपूर्ण है। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम पैग़म्बरे इस्लाम (स) के पौत्र और शिया मुसलमानों के आठवें इमाम हैं।

मस्जिदे गौहरशाद, इस्लामी वास्तुकला की दृष्टि से मज़बूत और सुन्दर इमारतों में से है जिसको सुन्दर टाइलों, मुअर्रक़, ग़ैर मुअर्रक़, मुर्रक़्क़म, ग़ैर मुर्रक़्क़म, मुक़रनस के डिज़ाइन बने टाइलों और प्लास्टर आफ़ पैरिस से बनाया गया है। अल्लाह के विभिन्न नामों, पवित्र क़ुरआन की आयतों, हदीसों और पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों की शान में शेरों को बहुत ही सुन्दर और मनमोहक डिज़ाइन से मस्जिद की पूरी दीवारें सजी हुई हैं।

 

मस्जिदे गौहरशाद का एक महत्वपूर्ण भाग उसका सुन्दर मेहराब है जो मक़सूरा प्रांगड़ में स्थित है। मेहराब इस्लामी इमारतों में उस स्थान को कहा जाता है जिसमें खड़ा होकर इमाम, जमाअत की नमाज़ पढ़ाता है। मस्जिद में मेहराब आम तौर पर क़िब्ले की ओर और मस्जिद की दीवार में दक्षिणी ओर बनाया जाता है। मेहराब का अर्थ द्वार के ऊपर का अर्द्ध गोलाकार भाग यानी तोरण। मेहराब का अर्थ होता है युद्ध करने का स्थान, चूंकि नमाज़ी नमाज़ पढ़ते समय शैतान से युद्ध करता है इसीलिए इसको मेहराब कहा जाता है। मस्जिदे गौहरशाद में बने इस सुन्दर मेहराब में सुन्दर डिज़ाइनों और लाजवर्दी में आयतल कुर्सी लिखी हुई है।

मस्जिद के दक्षिणी छोर पर साहेबुज़्ज़मान मिंबर है, यह मिंबर बहुत प्राचीन और ऊंचा है। मिंबर वह स्थान होता है जिसके ऊपर चढ़कर वक्ता या इमाम, लोगों को उपदेश देता है। मस्जिद गौहरशाद मे दो मिंबर हैं। एक बड़ा मिंबर है जो साहब शाह के नाम से प्रसिद्ध है जबकि दूसरा मिंबर इमामे जुमा स्वर्गीय हाज मिर्ज़ा अस्करी के नाम से प्रसिद्ध है । इस मिंबर में आठ सीढ़ियां हैं और मिंबर का ऊपरी भाग हैट की भांति है। इस मिंबर के ऊपरी हिस्से में 1242 क़मरी लिखा हुआ है। अब इन दोनों मिंबरों में से कुछ नहीं बचा किन्तु उसके स्थान पर दो मिंबर रखे गये हैं।

मस्जिदे गौहरशाद का प्रांगड़, इससे पहले तक ईंट का फ़र्श था किन्तु बाद में उसपर पत्थर बिछा दिया गया। प्रांगण के बीचोबीच में लगभग 12 बाई 12 का एक स्थान है जो वर्ष 1950 तक बाक़ी रहा और स्थानीय लोग उसे बुढ़िया मस्जिद या विधवा मस्जिद कहते थे। यह स्थान मस्जिद के प्रांगण में स्थित प्राचीन हौज़ का भाग है जो वर्ष 1673 में भूकंप के बाद मस्जिद के स्थान पर परिवर्तित हो गया है। मस्जिदे पीर ज़न या बूढ़िया मस्जिद प्रांगण की थोड़ी ऊंचाई पर स्थित है। इसके आसपास कई स्तंभ हैं जिसमें लोहे की सरिए द्वारा चिराग़ लटकाया गया है। पहले यह स्तंभ लकड़ी के थे किन्तु 150 साल पहले लगने वाली आग के कारण लकड़ी का स्तंभ जलकर राख हो गया और उसके बाद वर्तमान पत्थर का स्तंभ बनाया गया। मस्जिद में आग लगने के बाद एक पैसे वाली महिला ने अपने व्यक्तिगत ख़र्चे पर पत्थर का स्तंभ लगवा दिया। उसकी के बाद से यह मस्जिद, मस्जिदे पीर ज़न या बूढ़िया मस्जिद के नाम से प्रसिद्धय हो गयी। वर्ष 1957 में यह स्थान जो पहले नमाज़ के लिए विशेष था, वुज़ू के लिए विशेष कर दिया गया।