Apr १६, २०१८ १५:५५ Asia/Kolkata

शीत युद्ध की समाप्ति से पश्चिमी एशिया अर्थात मध्यपूर्व में अमरीकी नीतियों में परिवर्तन की परिधि में नया दौर शुरु हुआ।

वाइट हाऊस में ज़ायोनी कट्टरपंथियों और नियो कन्ज़रवेटिव धड़ों ने मध्यपूर्व के रणनैतिक मानचित्र में पुनर्विचार की मांग कर दी ताकि क्षेत्र पर अधिक से अधिक अमरीकी वर्चस्व की भूमि प्रशस्त हो सके।

इस लक्ष्य के साथ ही क्षेत्र में ग्रेट मिडिल ईस्ट की योजना पर काम शुरु हो गया। इस योजना पर काम शुरु होने का अर्थ अमरीकी सैनिकों की उपस्थिति और इसी प्रकार वाशिंग्टन के दृष्टिगत राजनैतिक सुधार और लोकतंत्र की परिधि में अमरीकी राजनैतिक प्रभाव था। ग्रेट मिडिल ईस्ट की योजना के विफल होने के कारण अमरीका मध्यपूर्व में ज़मीन की रक्षा और इस क्षेत्र में लोकतंत्र की बहाली की योजना को एक ओर रखने पर विवश हुआ किन्तु इसके साथ ही उसने साम्राज्यवादी योजना साइकस पीको के आधार पर विभाजन और भौगोलिक बंटवारे की योजना पर काम शुरु कर दिया।

मध्यपूर्व में जातीय, धार्मिक और राष्ट्रीय मतभेदों के आधार पर सामने आने वाली विभाजन की प्रक्रिया का आधार साइकस – पीको बना। मध्यपूर्व में अपनी प्राचीन उपस्थिति से अमरीका इस परिणाम पर पहुंचा कि मध्यपूर्व के आपसी मतभेदों से लाभ उठाकर और इस क्षेत्र में आराजकता का माहौल बनाकर क्षेत्र में अमरीका के रणनैतिक लक्ष्यों को आगे बढ़ाए क्योंकि मध्यपूर्व में अराजकता, लोकतंत्र का माडल पैदा करने और इस्लामी जागरूकता की लहर उत्पन्न को जो अमरीका नीतियों से पूर्ण रूप से विरोधाभास हैं, महत्वहीन करती है जो अमरीका के हित में है।

अमरीका की केन्द्रीय गुप्तचर संस्था के पूर्व कर्मचारी एडवर्ड स्नोडन रहस्योद्धाटन करते हुए कहते हैं कि अमरीका की गुप्तचर संस्था ने ब्रिटेन की गुप्तचर संस्था एमआई-6 और इस्राईल की गुप्तचर संस्था मोसाद के साथ सहयोग करके दाइश का गठन किया।

स्नोडन ने अपने दस्तावेज़ों में रहस्योद्धाटन किया कि प्रमाणों से पता चलता है कि अमरीका ने इस्राईल और ब्रिटिन के साथ सहयोग से एक आतंकवादी गुट का गठन किया जो पूरी दुनिया से कट्टरपंथियों को एकत्रित करे और इस आप्रेशन का नाम उन्होंने मधुमक्खी के छत्ते का नाम दिया।

स्नोडन की ओर से जारी किए गये दस्तावेज़ों के अनुसार मधुमक्खी का छत्ता नामक आप्रेशन इससे पहले इस्राईल के समर्थन के लिए ब्रिटेन द्वारा बनाया गया था। यह आप्रेशन इस्लामी नारों और कट्टरपंथी नियमों के साथ एक गुट बनाने का प्रयास था जो कोई दूसरी आस्था स्वीकार न करे। स्नोडन की रिपोर्ट में आया है कि इस योजना का एकमात्र लक्ष्य इस्राईल का समर्थन था और इसके अंतर्गत अपनी सीमाओं के निकट एक ऐसा दुश्मन पैदा करना था जो अपने हथियारों को उसके बजाए इस्लामी देशों की ओर ताने रखे।

न्यू मिडिलईस्ट व्यवस्था की परिधि में अमरीका की यह योजना इस्राईल, अमरीका के सैन्य और आर्थिक हितों की योजना में मुख्य भूमिका रखती है और उसने क्षेत्र में अमरीकी शक्ति के विरुद्ध प्रतिरोध को रास्ते से हटाने के काम शुरु कर दिया।

आर्थिक दृष्टि से क्षेत्र में अमरीका का महत्वपूर्ण लक्ष्य, फ़ार्स की खाड़ी के क्षेत्र में ऊर्जा के समृद्ध भंडारों तक उसकी पहुंच को सरल बनाना है जो दुनिया के 60 प्रतिशत से अधिक तेल भंडारों की आपूर्ती करता है।

इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सैन्य शक्ति का प्रयोग अमरीकी प्राथमिकता में बदल गया। इस आधार पर इराक़ में अमरीकी सैन्य कार्यवाही शुरु होने से छह महीना पहले अमरीका के तत्कालीन रक्षामंत्री के सहयोगी ने इराक़ पर अमरीकी सैनिकों के हमले में अंकारा का साथ देने के लिए तैयार करने के उद्देश्य से कहा था कि क्षेत्र में लोकतंत्र इराक़ से शुरु होगा।

इस योजना के बाद अमरीका के तत्कालीन विदेशमंत्री कोलेन पाउल की रणनीति सामने आई। इस रणनीति का मुख्य केन्द्र नये मध्यपूर्व में सांस्कृतिक निर्माण, सरकार का गठन और राष्ट्रों का नये सिरे से गठन था। लोकतंत्र की दुनिया में इस प्रकार की नीति पूर्ण रूप से प्राकृतिक और स्वभाविक है और इसका अर्थ भी स्पष्ट था किन्तु सामान्य रूप से लागू की जाने वाली नीतियों और नारे वाली नीतियों में अंतर होता है।

अनेक अपराधों और मानवाधिकारों के हनन के मामले में काली करतूतों वाला अमरीका, लोकतंत्र का मुखड़ा लगाकर शांति प्रेम और मानवाधिकार के समर्थन का नारा लगाने पर मजबूर हुआ। वाइट हाऊस क्षेत्र में लोकतंत्र की स्थापना का दावेदार है किन्तु हालिया दो दशकों के दौरान उसने पश्चिम की हां में हां मिलाने वाले तत्वों को ही सत्ता में पहुंचाया है।

इस प्रक्रिया के अंतर्गत ग्यारह सितम्बर की घटना के बाद अमरीकी रणनीति में परिवर्तन और अलक़ायदा की योजना के बाद आतंकवाद से लाभ उठाने के साथ दाइश की गतिविधियों पर ध्यान केन्द्रित किया गया। वास्तव में दाइश अमरीका की नयी मध्यपूर्व की योजना का उद्घाटन करने के लिए नयी चाभी थी और यदि इराक़ और सीरिया में दाइश के नियंत्रण की प्रक्रिया जारी रहती तो यह क्षेत्र के राजनैतिक मंच को परिवर्तित कर देती जो दाइश से पहले असंभव नज़र आ रहा था।

इस परिधि में एशिया, अफ़्रीक़ा और यूरोप से कट्टरपंथी युवाओं और तत्वों के आकर्षित होने से पूरी दुनिया से इस गुट में शामिल होने वाले आतंकियों की भूमि समतल होने लगी। इन्हीं गुटों में से एक तकफ़ीरी और सलफ़ी गुट है जो मध्यपूर्व में पनपा और उसने संपर्क के साधनों से भरपूर लाभ उठाते हुए पूरी दुनिया से कट्टरपंथियों को अपने गुट में शामिल किया और दाइश के नाम से उभर कर सामने आया।

दाइश ने मार्च 2013 में सबसे पहले रक़्क़ा शहर पर नियंत्रण किया। सीरिया के इस शहर और प्रांत पर दाइश ने सबसे पहले क़ब्ज़ा किया जनवरी 2014 में दाइश ने पश्चिमी अंबार के फ़ल्लूजा शहर पर नियंत्रण किया और उसके बाद इस प्रांत की राजधानी रोमादी के बड़े क्षेत्र तक अपना नियंत्रण बढ़ा दिया। दाइश ने इसी प्रकार सीरिया और तुर्की के सीमावर्ती क्षेत्रों के बड़े भाग पर नियंत्रण कर लिया और अंत में जून 2014 को उसने इराक़ के दूसरे सबसे बड़े शहर मूसिल पर क़ब्ज़ा कर लिया और उसके हमलों का क्षेत्र सामर्रा, बाक़ूबा और जलूला तक फैल गया।

इस योजना का दूसरा क़दम, इराक़ में सैन्य कार्यवाही बढ़ाने और अधिक से अधिक युवाओं को आकर्षित करने के उसने तकफ़ीरी विचारधारा फैलाई और अपने लड़ाकों को जमा करना शुरु कर दिया।  इस योजना के अंतर्गत दाइश के तत्वों ने नैनवा और सलाहुद्दीन प्रांतों के सैन्य केन्द्रों पर व्यापक हमले शुरु कर दिया। दाइश ने अपनी योजना के तीसरे क़दम में अपनी सरकार की घोषणा कर दी।

दाइश की सरकार ने क्षेत्र और क्षेत्र के बाहरी संदिग्ध से क्षेत्र में अपने वर्चस्व का दायरा बढ़ाना शुरु कर दिया। वास्तव में यह योजना क्षेत्र में संकट उत्पन्न करने के लिए साम्राज्यवादियों का पुराना नुस्ख़ा था ताकि वह इस संकट से लाभ उठाकर क्षेत्र की स्वतंत्र सरकारों को कमज़ोर कर सकें और इन देशों के विभाजन की अपनी योजना को व्यवहारिक बना सकें।

मध्यपूर्व की की योजना पर नज़र डालने से इस बात की पुष्टि हो जाती है। लेबनान के 33 दिवसीय युद्ध के दौरान तय यह था कि इस्राईल लेबनान पर हमला करेगा और हिज़्बुल्लाह को समाप्त करके हमेशा के लिए फ़िलिस्तीन मुद्दे का हल कर देगा। इस योजना को “नये मध्यपूर्व के जन्म” का नाम दिया गया और इसी योजना के अंतर्गत विश्व समुदाय से मांग की थी कि वह नयी व्यवस्था के जन्म लेने को अवश्य सहन करें। इस्राईल के सैन्य अभियान के विफल होने के बाद हेनरी केसेन्जर ने एक ऐसी तस्वीर पेश की जिसमें बताया गया था कि जब तक हिज़्बुल्लाह अपनी शक्ति को बजाए रखेगा तब तक फ़िलिस्तीन मुद्दे का समाधान संभव नहीं हो सकता। चाहे शांति द्वारा या युद्ध द्वारा। उनका मानना था कि हिज़्बुल्लाह को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए सबसे पहले हमें हिज़्बुल्लाह के मुख्य समर्थक ईरान से उसके संपर्क के मार्ग को तोड़ना होगा और यह मुख्य मार्ग सीरिया के हुम्स से होकर गुज़रता था। इसी आधार पर इस योजना को ज़ंजीर तोड़ने का नाम दिया गया।

वास्तव में अमरीका और क्षेत्र के कुछ देशों विशेषकर सऊदी अरब द्वारा दाइश का समर्थन, क्षेत्र में अमरीकी सैनिकों की दोबारा वापसी और उनका वर्चस्व स्थापित करना और इस्राईल के हित में प्रतिरोध को कमज़ोर करना तथा उन देशों को किनारे लगाना था जो वास्तव में आतंकवाद से संघर्ष में अग्रिम पंक्ति में थे।

अभी यह सब चल ही रहा था कि क्षेत्रीय परिवर्तन में बड़ी महत्वपूर्ण घटना घटी। अमरीका ने क्षेत्र में अपनी राजनैतिक और सुरक्षा रणनीति थोपने का प्रयास किया।  

वर्जीनिया विश्व विद्यालय के राजनीति शास्त्र के प्रोफ़ेसर कोलिन कावेल Colin S. Cavell  कहते हैं कि दुनिया में एक तिहाई से अधिक हथियारों के निर्यात से अमरीका दुनिया में सबसे बड़ा हथियार निर्यात करने वाला देश बन गया। अमरीका ने सबसे अधिक हथियार, सऊदी अरब को निर्यात किए और इस प्रकार सऊदी अरब उत्तरी अफ़्रीक़ा और मध्यपूर्व के क्षेत्र का सबसे बड़ा हथियारों का ख़रीदार बन गया। पिछले पांच वर्षों के दौरान अमरीका ने 100 अरब डालर से अधिक हथियार सऊदी अरब को बेचे और इस प्रकार से यह कहा जा सकता है कि मध्यपूर्व और उत्तरी अफ़्रीक़ा को इतने व्यापक स्तर पर हथियार बेचकर अमरीका निश्चित रूप से क्षेत्र में अशांति और अस्थिरता का कारण बना है।

अमरीका इस परिणाम पर पहुंचा कि गृहयुद्ध की आग भड़काकर तथा शक्ति शाली सरकारों को कमज़ोर करके तथा क्षेत्र के संभावित विभाजन की योजना से अपने हितों को अधिक से अधिक पूरा कर सकता है इसीलिए मध्यपूर्व में हर प्रकार के जातीय, धार्मिक और राष्ट्रीय मतभेद को जिसका उल्लेख साइकस – पीको में है, अमरीका का भरपूर समर्थन प्राप्त है।