Apr १८, २०१८ १४:५५ Asia/Kolkata

मध्यपूर्व या पश्चिमी एशिया की भौगोलिक विविधता, धार्मिक, जातीय और राष्ट्रीय पहचान से निकली है।

जियो पोलेटिक महत्व के साथ तेल और गैस के भंडारों से इस क्षेत्र का महत्व दोगुना हो गया है।

बीसवीं शताब्दी के आरंभ से विशेषकर प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध के बाद मध्यपूर्व हमेशा से ब्रिटेन की विदेश नीति और उसके बाद अमरीका के निकट विशेष महत्व रखता था।  इस प्रकार से कि क्षेत्र में नयी सरकार के गठन की प्रक्रिया, राष्ट्रीय सीमाओं का निर्माण, क्षेत्र के सत्ताधारियों की सुरक्षा गारेंटी का फ़ैसला पश्चिमी सरकारों की ओर से किया गया।

निसंदेह मध्यपूर्व के रूप में नये क्षेत्र का गठन, ब्रिटिश और फ़्रांसीसी साम्राज्यवाद के प्रयासों का परिणाम है। वर्ष 1914 में साइकस – पीको समझौते के आधार पर साम्राज्यवादियों द्वारा बनायी गयी योजना के अनुसार भौगोलिक स्थिति पैदा हुई।

नये देशों का गठन करने और मध्यपूर्व में निर्धारित की गयी सीमाओं का मापदंड साम्राज्यवादी हितों की परिधि में था। दूसरे शब्दों में थोपा गया विभाजन, मध्यपूर्व के बीसवीं शताब्दी के संकटों की भूमि तैयार करना था। इस्राईल और अरबों का युद्ध, इराक़ और कुवैत के बीच जंग, सऊदी अरब, क़तर और संयुक्त अरब इमारात के बीच सीमा विवाद, सऊदी अरब और बहरैन में धार्मिक विवाद और मतभेद और इस प्रकार के अन्य संकट, साम्राज्यवादियों की क्षेत्रीय नीतियों का परिणाम हैं। फ़िलिस्तीन का विभाजन और वर्ष 1948 में अवैध ज़ायोनी शासन का गठन, मध्यपूर्व में साम्राज्यवादियों के हस्तक्षेप का चरमबिन्दु था जिन्होंने मध्यपूर्व में हमेशा तनाव पैदा करने और संकट का माहौल बनाए रखने के लिए तैयार किया था।

शीत युद्ध के दौरान दो ध्रुवीय व्यवस्था इस प्रकार बनी हुई थी कि सोवियत संघ की दक्षिणी सीमाओं पर इस्लामी देश मौजूद थे। इसीलिए उस काल में अमरीका ने उदारवादी नीति अपनाते हुए साइकस- पीको और इन धरतियों की संप्रभुता का समर्थन किया और मध्यपूर्व में विभाजन के लक्ष्यों को आगे बढ़ाने लगा।

अमरीका ऐसी स्थिति में जब वह अपनी सैन्य उपस्थिति से अपने लक्ष्यों और हितों को व्यवहारिक नहीं बना पाया तो उसने इस क्षेत्र के विभाजन के लिए दूसरी भूमिका तैयार की कयोंकि वह मध्यपूर्व को 21वीं शताब्दी के बूढ़े व्यक्ति का नाम देता था।

इस आधार पर शीत युद्ध के दौरान विशेषकर 11 सितम्बर की घटना के बाद अमरीका और पश्चिम की धरती नीति, मध्यपूर्व के देशों के संबंध में कुछ हद तक बदल गयी। जातीय मतभेद, गृहयुद्ध, आंतरिक विवाद और मध्यपूर्व में दिखावटी सीमाओं का दौर शुरु हो गया। वर्ष 2003 के आरंभ में अमरीका की ग्रेट मिडिलईस्ट की रणनीति, आतंकवाद से मुक़ाबला, सद्दाम के सामूहिक जनसंहार के हथियारों की तबाही जैसी निराधार व जहां से युद्ध भड़के उठा। इसी रणनीति की परिधि में डेमोक्रेसी , स्वतंत्रता, विस्तार और सुधार जैसे नारे पेश किए गये। अमरीका द्वारा 2003 में इराक़ के अतिग्रहण से क्षेत्र में मध्यपूर्व को पुनः विभाजित करने के उद्देश्य से साइकस-पीको का दूसरा लक्ष्य सामने आया। ग्रेट मध्यपूर्व की योजना, वास्तव में दोबारा मध्यपूर्व के विभाजन की ही योजना है, इस बार यह योजना अमरीकी रुख़ में सामने आई।

इस आधार पर पश्चिमी देशों और मीडिया ने विदेश नीति की परिधि में शीया-सुन्नी मतभेद को हवा देने के लिए क्षेत्र की अशांति पर काम करना आरंभ कर दिया। अब अमरीका ने देश के भीतरी मतभेदों का समर्थन शुरु कर दिया और यही कारण था कि अमरीका ने कभी भी सऊदी अरब में लोकतंत्र की बहाली के बारे में दबाव ही नहीं डाला जबकि पूरी दुनिया को पता है कि दुनिया में आतंकवाद की मुख्य जड़, सऊदी अरब के अलावा कहीं और नहीं है।

अमरीका की विदेशी मामलों परिषद के सदस्य रिचर्ड हास इस बारे में कहते हैं कि नये साइकस – पीको के लागू होने की स्थिति में इराक़ से सीरिया तक फैले दलदल में फंसे अमरीका को मुक्ति मिल जाएगी।

इसीलिए अमरीका इस्लामी देशों के हर आंतरिक तनाव को अपने दीर्घावधि और अल्पावधि लक्ष्य को व्यवहारिक बनाने में प्रयोग कर रहा है। इस्लामी देशों के परिवर्तनों की समीक्षा से पता चलता है कि पश्चिम ने इस्लामी सरकारों के विभाजन और उनको कमज़ोर करने की योजना बना रखी है। रोचक बात यह है कि मध्यपूर्व की इस योजना को व्यवहारिक बनाने का पहला लक्ष्य, इराक़ नहीं था। इससे पहले वर्ष 2011 में सूडान के विभाजन की प्रक्रिया अमरीका के कई वर्षीय दबाव से अंजाम हुआ और ज़ायोनी शासन ने सबसे पहले दक्षिणी सूडान को स्वीकार कर लिया। लीबिया और यमन का नाम भी इस सूची में शामिल है जो क्षेत्र में अमरीका और इस्राईल के विभाजन की योजना का हिस्सा है।

पश्चिम के प्रोपेगैंडा यूनिट ने यमन से सीरिया, पाकिस्तान, लीबिया, इराक़ तुर्की और मध्यपूर्व के अन्य देशों के विभाजन की घंटी बजा दी और इस घंटी की आवाज़ इतनी ज़्यादा तेज़ थी कि पुरी दुनिया में सुनाई देने लगी। इन समस्त योजना में आम तौर पर बर्नार्ड लुईस का नाम लिया जाता है।

ब्रिस्टन विश्व विद्यालय के सेवा निवृत्त प्रोफ़ेसर लुईस ने इस्लामी जगत और मध्यपूर्व के बारे में 20 हज़ार किताबें और लेख लिखे हैं। बर्नार्ड लुईस ने शाम के महत्वपूर्ण क्षेत्र के इतिहास पर अपने शोध को केन्द्रित रखा। इस्राईल के अस्तित्व में आने के बाद उनका शोध उस्मानी साम्राज्य की अरब धरती के राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक इतिहास पर केन्द्रित हो गया।

बर्नार्ड लुईस ने पहली बार वर्ष 1979 में आस्ट्रिया में ब्लेडरबर्ग के सदस्यों की बैठक में अपनी योजना पेश की थी। उसने अपनी योजना में ईरान सहित मध्यपूर्व के देशों के विभाजन या उनको छोटे छोटे देशों में बदलने की बात की। इस योजना में क्षेत्र के देशों में भाषा, जातीवाद और राष्ट्र की बुनियाद पर टुकड़े टुकड़े करने की योजना पेश की गयी। इस ब्रिटिश योजना के आधार पर लेबनान के दूरूज़ों, ईरान में ब्लोच, तुर्क और कुर्दों, सीरिया में अलवियों, इथोपिया में ईसावियों, सूडान के संप्रदायों, विभिन्न अरब देशों में अरब क़बीलों तथा तुर्की में कुर्दों जैसे अल्पसंख्यकों के विद्रोह का समर्थन किया जाना चाहिए, इस योजना का मुख्य लक्ष्य मध्यपूर्व को छोटे छोटे टुकड़ों में विभाजित करना और उनको छोटे और कमज़ोर देशों में बदलना था ताकि इसके द्वारा लोकतंत्र और वर्तमान शाही व्यवस्था को कमज़ोर किया जा सके।

ईरान को इस योजना में रणनैतिक महत्व प्राप्त भी था। ईरान की हर प्रकार की भौगोलिक सीमाओं में परिवर्तन बड़ी आसानी से इराक़, तुर्की और पाकिस्तान जैसे पड़ोसी देशों को अस्थिर कर सकते हैं  और इस प्रकार से बर्नार्ड की योजना इस्लामी जगत में व्यवहारिक हो सके। इस आधार पर अमरीका और ज़ायोनी शासन की गुप्तचर संस्थाओं ने ईरान में लुईस की योजना व्यवहारिक बनाने के लिए बड़ा ख़र्चा किया और कठिन कार्यवाहियां कीं।

क्षेत्र में अमरीका की सैन्य उपस्थिति, अफ़ग़ानिस्तान और इराक़ का अतिग्रहण तथा मध्यपूर्व के इस्लामी देशों में विभिन्न सैन्य छावनियां खोलना, अमरीका द्वारा इस योजना को लागू करने का भाग समझना चाहिए। वर्ष 2003 से अर्थेत जब से अमरीका और ब्रिटेन ने इराक़ पर हमला किया तब से ही मध्यपूर्व के विभाजन की बातें होने लगी थीं। हर बार कभी यह और कभी वह अमरीकी या ब्रिटिश या यूरोपीय पत्रिका और समाचार पत्र क्षेत्र में नये मानचित्र, नई सीमाओं और नये प्रकार के साइकस पीको के बारे में प्रमाण और दस्तावेज़ प्रकाशित करते रहते हैं।

इन दस्तावेज़ों से पता चलीता है कि अमरीका क्षेत्र में अशांति, प्राक्सी वार, अराजकता तथा अशांति का मुख्य कारण है। अमरीका की विदेश नीति के अधिकारी और वेट्रन जनरल नामक समाचार पत्र के संपादक जेम डब्ल्यू डेन का कहना है कि अमरीका मध्यपूर्व में आतंकवादी गुटों का अस्तित्व, अपने लक्ष्यतं को व्यवहारिक बनाने के लिए क्षेत्र की सरकार को परिवर्तित करने का साधन है। इस योजना के अंतर्गत अमरीका आतंकवादियों की वित्तीय और सामरिक सहायता करता है ताकि वह इसके द्वारा अपने हितों को पूरा कर सके।