Apr १८, २०१८ १५:१८ Asia/Kolkata

सऊदी अरब ने 26 मार्च 2015 को यमन के ख़िलाफ़ जंग शुरु की जिसे उसने बहुत कम मुद्दत में ख़त्म करने की बात कही थी लेकिन अब यह जंग चौथे साल में दाख़िल हो चुकी है।

यमन संकट का परिदृष्य स्पष्ट नज़र नहीं आ रहा है। मौजूदा हालात के साथ जंग जारी रहना, आंतरिक स्तर पर मतभेद गहराना, इस देश के टूटने का ख़तरा बढ़ना और राजनैतिक गतिरोध का जारी रहना, यमन संकट के चार परिदृष्य कहे जा सकते हैं।

वास्तव में इस बात के कोई चिन्ह नज़र नहीं आते कि सऊदी अरब यमन के ख़िलाफ़ जंग को ख़त्म करने की दिशा में बढ़ रहा हो।  सऊदी अरब न सिर्फ़ यह कि जिसे उसने यमन को वैधता को लौटाने का नाम दिया था उसमें सफल नहीं हुआ बल्कि उसके सबसे बड़े घटक अली अब्दुल्लाह सालेह भी पिछले साल दिसंबर में मारे गए और आज अंसारुल्लाह यमन में एक ऐसी सच्चाई बन चुका है जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। सऊदी अरब यह उम्मीद लगाए बैठा है कि वह यमन के ख़िलाफ़ जंग को जारी रखेगा तो यमन में जनता में असंतोष बढ़ेगा कि जिसके नतीजे में अंसारुल्लाह के ख़िलाफ़ आंतरिक स्तर पर विद्रोह फूटेगा। सऊदी अरब जो पश्चिम एशिया की एक शक्ति है, पश्चिम एशिया के सबसे निर्धन देश के ख़िलाफ़ जंग में हार को क़ुबूल करने को तैयार नहीं है। इसलिए वह इस जंग को इसके मानवीय दृष्टि से भयावह अंजाम के साथ जारी रखेगा चाहे आले सऊद को यमनी सेना और स्वयंसेवी बल की मीज़ाईल क्षमता से लगातार झटका लगता रहे।           

यमन जंग का तीसरा साल ऐसी हालत में ख़त्म हुआ कि मतभेद व फूट यमन संकट का हिस्सा बन चुका है। अंसारुल्लाह और पीपल्ज़ कांग्रेस पार्टी के यमन की इस्तीफ़ा दे चुकी सरकार के साथ मतभेद के अलावा, इस्तीफ़ा दे चुकी सरकार के साथ यमन के दूसरे गुटों व धड़ों के मतभेद भी उसी तरह बढ़ गए हैं जिस तरह यमन जंग में सऊदी अरब और यूएई के बीच मतभेद बढ़े हैं और ऐसा लगता है कि यह मतभेद चौथे साल में और गहराएंगे।

ये मतभेद यमन के ख़िलाफ़ जंग के सिर्फ़ एक साल बाद ही स्पष्ट हो गए। यमन के इस्तीफ़ा दे चुके राष्ट्रपति मंसूर हादी ने 3 अप्रैल 2016 को अपने मंत्रीमंडल के सदस्य ख़ालिद बहा को प्रधान मंत्री के पद से हटाकर उनकी जगह अहमद उबैद बिन दग़र को प्रधान मंत्री बनाया। इसके साथ ही मंसूर हादी ने जनरल अली मोहसिन अलअहमर को उपराष्ट्रपति नियुक्त किया। इस बदलाव पर यूएई नाराज़ हुआ क्योंकि ख़ालिद बहा को यूएई के निकट समझा जाता था जबकि बिन दग़र और अली मोहसिन अलअहमर सऊदी अरब के निकट समझे जाते हैं। वास्तव में इन बदलाव और ख़ास तौर पर जनरल अली मोहसिन अलअहमर के मंसूर हादी के सहायक बनने से जो उन्हीं की तरह रियाज़ आते जाते रहते हैं, यमन की इस्तीफ़ा दे चुकी सरकार पर सऊदी अरब का वर्चस्व बढ़ा और इसके मुक़ाबले में यूएई सरकार का प्रभाव कम हो गया। इसी लिए यूएई ने पिछले साल ऐसा क़दम उठाया जिससे मंसूर हादी का धड़ा कमज़ोर हुआ जैसा कि यूएई का दक्षिणी शहर अदन में उठाया गया क़दम। यूएई ने मई 2017 में दक्षिणी यमन की अंतरिम परिषद का अध्यक्ष ईदरूस ज़ुबैदी को बनाया जिन्हें मंसूर हादी अदन के महापौर के पद से हटा चुके थे। पिछले साल अदन शहर में दक्षिणी यमन की अंतरिम परिषद और मंसूर हादी की समर्थक फ़ोर्सेज़ के बीच झड़पें होती रहीं और इसने जनवरी 2018 के अंत में भयावह रूप अख़्तियार किया कि जिसके नतीजे में यूएई की समर्थक फ़ोर्सेज़ ने अदन जैसे अहम शहर का नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया। ये झड़पें सऊदी अरब और यूएई के बीच बढ़ते मतभेद को दर्शाती हैं।

यूएई को यह लगने लगा है कि यमन के ख़िलाफ़ जंग में सऊदी अरब का साथ देने से कोई नतीजा नही निकलेगा इसलिए उसने दक्षिणी यमन के क्षेत्रों में अपना प्रभाव बढ़ाना शुरु कर दिया। यूएई का मुख्य लक्ष्य दक्षिणी यमन की अहम बंदरगाहों का नियंत्रण हासिल करना है। यमन के रणनैतिक मामलों के टीकाकार अली अज़्ज़हब का इस बारे में कहना है कि यूएई के नेता अदन बंदरगाह से हिन्द महासागर तक पहुंच को दुबई बंदरगाह का प्राकृतिक विस्तार मानते हैं। इसके अलावा दक्षिणी यमन सुरक्षा व व्यापार की दृष्टि से भी अहमियत रखता है क्योंकि वहां उत्तरी यमन की तरह झड़पें नहीं हो रही हैं। यूएई दक्षिणी यमन की बंदरगाहों पर वर्चस्व के ज़रिए ओमान का घेराव, उसकी व्यापारिक बंदरगाहों को कमज़ोर और उसकी राजनैतिक अहमियत को कम कर सकता है। दूसरे शब्दों में यूएई दक्षिणी यमन की बंदरगाहों पर क़ब्ज़ा करके क्षेत्र में आर्थिक मैदान में अपने प्रभाव को मज़बूत बनाएगा। ऐसा लगता है कि यमन संकट के चौथे साल भी यूएई की यह नीति और सऊदी अरब के साथ उसकी प्रतिस्पर्धा जारी रहेगी।

यमन में राष्ट्रीय एकता को प्रदर्शित करने वाली सरकार नहीं है। यद्यपि अरब-पश्चिम ध्रुव मंसूर हादी की अध्यक्षता में इस्तीफ़ा दे चुकी सरकार को यमन की वैध सरकार दर्शाने की कोशिश कर रहा है लेकिन सच्चाई यह है कि यमन भौगोलिक नज़र से कई टुकड़ों में बटा हुआ है। एक भाग पर अंसारुल्लाह और पीपल्ज़ कांग्रेस पार्टी का नियंत्रण, एक भाग पर इस्तीफ़ा दे चुकी मंसूर हादी की सरकार का नियंत्रण, एक भाग पर अलक़ाएदा का क़ब्ज़ा और एक भाग पर यमनी क़बीलों का नियंत्रण है। यमन पर इस बात का ख़तरा मंडरा रहा है कि कहीं वह 90 से पहले की हालत अर्थात उत्तरी और दक्षिणी भाग में फिर से न बट जाए। हालांकि यमन के उत्तरी और दक्षिणी दो टुकड़ों में बंटने से सऊदी अरब के हित पूरे नहीं होंगे लेकिन यूएई यमन के विभाजन में अपना हित देख रहा है। यमन के बटने की स्थिति में उत्तरी यमन पर अंसारुल्लाह का नियंत्रण होगा कि जिसकी सीमा सऊदी अरब से मिलती है जबकि यमन पर जंग थोपने के पीछे सऊदी अरब का लक्ष्य अंसारुल्लाह को सत्ता में पहुंचने से रोकना है।

इसके अलावा यमन के हज़रमूत प्रांत में अलक़ाएदा का प्रभाव बढ़ गया है। हज़रमून प्रांत अलक़ाएदा का गढ़ समझा जाता है और इस प्रांत में अपेक्षाकृत स्थिरता है। दक्षिणी और उत्तरी यमन में मतभेद बढ़ने और अदन की जरजर सुरक्षा स्थिति के जारी रहने से यमनी जनता और यमनी गुटों तथा अलक़ाएदा अदन और सनआ के वर्चस्व से निकलने के लिए कोशिश शुरु कर देंगे। इस संदर्भ में यमन के राजनैतिक कार्यकर्ता ऐमन बाहमीद का कहना है कि हज़रमूत की जनता ने इंटरनेट पर “हज़रमूत अपने भविष्य का निर्धारण ख़ुद करना चाहता है” शीर्षक के तहत एक हैशटैग शुरु किया है जिसमें वह बल देती है कि हज़रमूत दक्षिणी और उत्तरी यमन योजना का हिस्सा नहीं है। यमन के एक और राजनैतिक कार्यकर्ता जमआन बिन सअद का भी मानना है कि हज़रमूत के लोग अदन-सनआ के बीच झड़प से चिंतित हैं इसकी एक वजह हज़रमूत में मौजूद स्थिरता है, इसलिए वे सनआ और अदन के प्रभाव से हटकर अपने भविष्य का निर्धारण करना चाहते हैं।      

अमरीका पश्चिम एशिया को भौगोलिक दृष्टि से छोटे छोटे देशों में बांटना चाहता है, इसलिए यह कहा जा सकता है कि यमन के ख़िलाफ़ सऊदी अरब की जंग जारी रहने की स्थिति में यमन दो या तीन देशों में बंट सकता है।

हालांकि यमन के मामले में संयुक्त राष्ट्र संघ के विशेष दूत इस्माईल वुल्द अश्शैख़ अहमद ने इस देश के संकट का राजनैतिक हल निकालने की कोशिश की और इसके तहत उन्होंने जनेवा और कुवैत में वार्ता की लेकिन उन्होंने फ़रवरी 2018 में ऐसी हालत में यमन के मामले की बागडोर मार्टिन ग्रीफ़िथ के हवाले की है कि अगस्त 2016 से पिछले महीने अर्थात 18 महीने तक यमनी गुटों के बीच कोई बातचीत नहीं हुयी और यह संकट राजनैतिक दृष्टि से बंद गली में पहुंच गया है, हालांकि इस संकट का राजनैतिक हल बहुत ज़रूरी है क्योंकि इस समय यमन में हालिया दशकों का सबसे बड़ा मानव संकट खड़ा है। लेकिन ऐसा लगता है कि कम से कम अगस्त 2018 से पहले किसी भी तरह की राजनैतिक वार्ता आयोजित नहीं होगी।

राजनैतिक वार्ता शुरु होने की एक शर्त यह है कि यह वार्ता संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के अप्रैल 2015 में पारित हुए प्रस्ताव नंबर 2216 के आधार पर न हो क्योंकि इस प्रस्ताव में अंसारुल्लाह को कोई स्थान नहीं दिया गया है जबकि ज़मीनी सच्चाई यह है कि अंसारुल्लाह यमन का सबसे सुव्यवस्थित राजनैतिक गुट है। दूसरी शर्त यह है कि अंसारुल्लाह के विरोधी यह चाहते हैं कि वार्ता में फ़ैसला करने के लिए उनके पास ज़रूरी आज़ादी हो और यह फ़ैसला रियाज़ के इशारे पर न हो। एक अन्य शर्त यह है कि संयुक्त राष्ट्र संघ और यमन के मामले में उसके नए प्रतिनिधि मार्टिन ग्रीफ़िथ यमन संकट में पश्चिमी देशों के प्रतिनिधि बन कर नहीं बल्कि एक आज़ाद व्यक्ति के रूप में अपना रोल निभाएं क्योंकि यमन के मामले में संयुक्त राष्ट्र संघ के पूर्व प्रतिनिधि इस्माईल वुल्द अश्शैख़ अहमद स्वाधीन रूप से रोल निभाने में नाकाम रहे।