Apr २३, २०१८ १३:२५ Asia/Kolkata

हमने बताया था कि मस्जिद, मुसलमानों का सार्वजनिक और विभिन्न वर्गों के लोगों के उपस्थित होने का स्थल है।

इस प्रकार से यह स्थल इस्लामी समाज को आगे बढ़ाने और मुसलमानों के बीच वैचारिक समन्वय पैदा करने का बेहतरीन स्थान समझा जाता है क्योंकि मस्जिद यद्यपि समाज की एक छोटी इकाई समझी जाती है किन्तु इस छोटी इकाई का इस्लामी समाज में बहुत अधिक महत्व है। इस आधार पर समाज में ईश्वरीय भय, ज्ञान, जेहाद, मित्रता, बराबरी और न्याय जैसी मूल्यवान चीज़ें मस्जिद से व्यवहारिक होना शुरू होती हैं।

मस्जिद समाज में अच्छाई का आदेश देने और बुराई से रोकने का बेहतरीन स्थान है क्योंकि समाज के भविष्य निर्धारण में हर मुसलमान की सैद्धांतिक ज़िम्मेदारी हैं और उसकी ज़िम्मेदारी है कि वह अपनी समाजिक ज़िम्मेदारियों को अच्छी तरह निभाए। उसकी ज़िम्मेदारी है कि वह आस पास होने वाली समस्त घटना और मामलों की निगरानी करे। इस्लाम धर्म में इस चीज़ को अच्छाई का आदेश देने और बुराई से रोकने के रूप में पेश किया जाता है। यह ज़िम्मेदारी नमाज़, रोज़े और ज़कात की भांति, इस्लाम के ज़रूरी आदेशों में शुमार होती है। पवित्र क़ुरआन के सूरए तौबा की आयत संख्या 71 में ईश्वर मोमिनों की बेहतरीन विशेषताएं और गुण बयान करते हुए कहता है कि मोमिन पुरुष और महिलाएं, एक दूसरे के सहायक और मददगार हैं, अच्छाई का आदेश देते हैं और बुराई से रोकते हैं, नमाज़ स्थापित करते हैं, ज़कात अदा करते हैं और अल्लाह और उसके पैग़म्बर का अनुसरण करते हैं। इस आयत से समझ में आता है कि मोमिन लोग एक दूसरे के भविष्य निर्धारण में रुचि रखते हैं क्योंकि वे एक शरीर के अंगों की भांति हैं, एक व्यक्ति का उल्लंघन और क़ानून का खिल्ली उड़ाना, समाज को प्रभावित करता है। पैग़म्बरे इस्लाम (स) बहुत ही सुन्दर उदाहरण देते हुए अच्छाई का आदेश देने और बुराई से रोकने के बारे में कहते हैं कि लोगों के बीच एक पापी व्यक्ति, उस जाहिल व अज्ञानी व्यक्ति की तरह है जो कुछ लोगों के साथ एक नौका पर सवार हो और बीच समुद्र में पहुंच कर अपनी जगह में छेद करना शुरु कर दे, हर व्यक्ति उस पर आपत्ति जताए और वह कहे कि मैं तो अपनी जगह में काम कर रहा हूं, यह मेरी जगह है, निश्चित रूप से एक एक मूर्खतापूर्ण बात है, यदि दूसरे उसे इस ख़तरनाक काम से न रोकें तो ज़्यादा देर नहीं गुज़रेगी कि नौका डूब जाएगी।

मस्जिद, भलाई का आदेश देने और बुराई से रोकने की ज़िम्मेदारी अदा करने का बेहतरीन स्थान है क्योंकि मस्जिद भलाई का आदेश देने और बुराई से रोकने का उत्तम स्थल है।  मूल रूप से जब पैग़म्बरे इस्लाम मस्जिद का निर्माण करते थे, वे तुरंत ही क़ानून लागू करने, प्रशिक्षण और बयान देने के बेहतरीन स्थान के रूप में उसे पहचनवाते थे।

 

ईरान की जनता ने भी मस्जिद के इसी स्थान से लाभ उठाते हुए अच्छाई का आदेश दिया और बुराई से रोका तथा अत्याचार और राजशाही व्यवस्था के विरुद्ध लोगों को खड़ा कर दिया और आख़िरकार राजशाही परिवार का पतन हो गया और इस्लामी गणतंत्र ईरान का आधार रखा गया। ईरान में मस्जिद की बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका है। बहुत से शोधकर्ता और लेखक ईरान की इस्लामी क्रांति को मस्जिद की संतान बताते हैं। रोचक बात यह है कि पहले पहलवी शासक रज़ा ख़ान ने जैसे ही ब्रिटेन के समर्थन से सरकार पर क़ब्ज़ा किया तो उसने तुरंत एक आदेश जारी करके अच्छाई का आदेश देने और बुराई से रोकने पर प्रतिबंध लगा दिया। इस घोषणापत्र में आया है कि केवल सरकारी कर्मियों को लोगों को डराने धमकाने और वार्निंग देने का अधिकार है और अब धार्मिक छात्रों और धर्मगुरुओं को यह अधिकार नहीं है कि वे इस दायित्व का निर्वहन करें। यह ऐसी हालत में है कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम इस दायित्व के महत्व के बारे में कहते हैं कि समस्त सद्र कर्म यहां तक कि ईश्वर के मार्ग में जेहाद, अच्छाई का आदेश देने और बुराई से रोकने के सामने दूर तक फैले हुए समुद्र के सामने एक बूंद है। अच्छाई का आदेश देने और बुराई से रोकने का बेहतरीन काम यह है कि एक मोमिन व्यक्ति, एक अत्याचारी शासक के सामने पूरी शक्ति के साथ डट जाए और इस ज़िम्मेदारी को अच्छी तरह निभाए। यही कारण था कि ईरानी जनता ने शाही परिवार के अत्याचारों को सहन नहीं किया और मस्जिद में अपनी आपत्तियों को बयान किया, मस्जिदों के इमामों के जोशीले बयान और भाषण तथा रज़ा ख़ान की इस्लाम विरोधी नीतियों पर जनता की कड़ी प्रतिक्रिया के कारण, ईरानी जनता सरकार के विरुद्ध उठ खड़ी हुई और उसने शाही व्यवस्था को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया यहां तक कि सरकार उक्त घोषणापत्र को वापस लेने पर विवश हो गयी।

 

इस्लामी क्रांति के अस्तित्व में आने के समय ईरान में मस्जिद विरोध प्रदर्शनों का केन्द्र थीं। धर्मगुरु और इमाम जमाअत ने क्रांति को रुख़ देने के लिए मस्जिद का भरपूर प्रयोग किया, जनता भी इस स्थान से अध्यात्मिक लाभ उठाने के साथ समाज की आवश्यकताओं को भरपूर ढंग से समझते हुए अपनी क्रांति को जारी रखा। शाही सरकार के विरुद्ध पंफ़्लेट और पर्चे अधिकतर मस्जिदों में बांटे जाते थे और मस्जिदों में यह काम आसान भी होता था, कभी कभी मस्जिद के इमाम, इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम की शैली पर अमल करते हुए नमाज़ समाप्त होने के बाद भाषण दिया करते थे और भाषण के बाद शाही सरकार के विरुद्ध दुआ करके अपना रोष व्यक्त करते थे। इमामे जमाअत, अत्याचार की समापति, न्याय की स्थापना, इमाम ख़ुमैनी की रक्षा और उनकी सुरक्षित स्वदेश वापसी जैसी दुआएं कराते थे।

जैसा कि हमने पिछले कार्यक्रम में बताया था कि मशहद की गौहरशाद मस्जिद, ईरान की महत्वपूर्ण मस्जिदों में से एक है। यह ऐतिहासिक इमारत इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के रौज़े के दक्षिण में बनी हुई है। गौहरशाद जामा मस्जिद को तैमूरी काल के प्रसिद्ध वास्तुकारों के बनाया है। इस मस्जिद के निर्माण में ईंट और चूने का प्रयोग किया गया है। तैमूरी शासन काल में अमीर ग़यासुद्दीन तरख़ान की बेटी गौहरशाद आग़ा के आदेश पर वर्ष 1418 ईसवी में इस मस्जिद का निर्माण किया गया।

शाहरुख़ तैमूरी की पत्नी के आदेश से इस्लामी जगत की सुन्दर मस्जिद, मस्जिदे गौहरशाद का निर्माण किया गया। महारानी गौहरशाद, तैमूरी शासन काल की प्रसिद्ध महिलाओं में से एक थीं।

मस्जिदे गौहरशाद ने धार्मिक मूल्यों की रक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। पहलवी प्रथम के काल में, पूर्वी शैलियों को बदलने करने, धार्मिक मूल्यों को धरातल में पहुंचाने और ईरान की परंपराओं को समाप्त करने के लिए बहुत अधिक प्रयास किए गये। इन प्रयासों में अधिकतर प्रयास ज़ोर ज़बरदस्ती वाले और थोपे गये थे। रज़ा शाह प्रथम की इस्लाम विरोधी कार्यवाहियां, उसके द्वारा पश्चिम की ओर रुझान रखने वाले तुर्क तानाशाह अतातुर्क के अनुसरण का परिणाम थी। रज़ा शाह प्रथम ने सबसे पहले पुरुषों के वस्त्र को परिवर्तित करने और उनको फ़ेडोरा हैट लगाने का आदेश दिया। रज़ा शाह की इस कार्यवाही से बहुत से धर्मगुरु यह समझ गये थे कि यह मामला यहीं पर रुकने वाला नहीं है बल्कि यह महिलाओं के हिजाब तक जाएगा, इसीलिए उन्होंने मशहद के एक वरिष्ठ धर्मगुरु आयतुल्लाह क़ुम्मी को सलाह मशविरे के बाद तेहरान भेजा ताकि वे रज़ा ख़ान से वार्ता करके उसे उसके कामों से रोक दे किन्तु आयतुल्लाह क़ुम्मी के तेहरान में प्रविष्ट होते ही पुलिस ने उनको उस स्थान पर नज़रबंद कर दिया जहां वे रुके हुए थे, आयतुल्लाह क़ुम्मी की गिरफ़्तार की ख़बर जंगल की आग की तरह फैल गयी और लोगों का आक्रोष फूट पड़ा, पवित्र नगर मशहद की जागरूक जनता ने मस्जिदे गौहरशाद में सरकार के इस फ़ैसले के विरुद्ध व्यापक प्रदर्शन किए।

 

इस प्रकार से मस्जिदे गौहरशाद सरकार विरोधी फ़ैसले पर आपत्ति जताने और रोष व्यक्त करने का बेहतरीन स्थान बन गयी। कुछ संघर्षकर्ता धर्मगुरुओं की गिरफ़्तारी के कारण जनता के प्रदर्शनों और आपत्तियों में तेज़ी आ गयी। राजधानी तेहरान से मशहद की सरकार को आदेश दिया गया कि आपत्ति करने वाले धर्मगुरुओं और उपदेशकों की धड़पकड़ शुरु कर दो किन्तु धर्मगुरुओं के बयान सुनने के लिए मस्जिदे गौहरशाह में लोगों की भीड़ लगी रहती थी। शुक्रवार 20 तीर सन 1314 हिजरी शम्सी की सुबह, रज़ा ख़ान के सैनिक लोगों को तितर बितर करने के लिए मस्जिदे गौहरशाद में दाख़िल हुए और निहत्थी जनता पर अंधाधुंध फ़ायरिंग शुरु कर दी, इस घटना में कुछ नमाज़ी शहीद और दर्जनों घायल हो गये किन्तु लोग वहां पर डटे रहे और उन्होंने सैनिकों का ज़बरदस्त मुक़ाबला किया। इस हमले के बाद मस्जिद के आसपास रहने वाले लोग, लाठी, कुदाल और फावड़े जैसी चीज़ लेकर मस्जिद में घुस गये, गौहरशाद मस्जिद लोगों से भरी हुई थी, धर्मगुरु नंबर एक एक करके मिंबर पर जाते और शाह के अत्याचारों से जनता को अवगत कराते और इस्लाम की शिक्षाएं देते थे।

आख़िरकार रज़ा शाह ने समस्त लोगों और धर्मगुरुओं को सज़ा देने का आदेश दिया, मशहद शहर की सरकार ने रात के समय अपने सैनिकों को तैयार किया और आधी रात के बाद अपने हमले शुरु किए, इस कार्यवाही से पहले ही मस्जिदे गौहरशाद और शहर के संवेदनशील क्षेत्रों में पुलिसकर्मियों को तैनात कर दिया गया था, मस्जिद के सामने वाली छत पर भारी मशीन गने तैनात कर दी गयी थीं, दोपहर की नमाज़ के समय, सेना के हथियारबंद जवान ईश्वर के घर में घुस गये और लोगों का जनसंहार शुरु कर दिया। रज़ा ख़ान की सेना ने जनता का ऐसा जनसंहार किया कि आज भी उसके घाव हरे हैं।