May १५, २०१८ १६:१६ Asia/Kolkata

हमने बयान किया था कि मस्जिद का अस्ली कार्य उपासना और आध्यात्मिक कार्य हैं।

मस्जिद का नाम मस्जिद इसलिए रखा गया है क्योंकि इंसान वहां महान व सर्वसमर्थ ईश्वर के सामने सज्दा करता है। सज्दा इंसान की बंदगी के शिखर बिन्दु का सूचक है। इंसान नमाज़ पढ़कर और महान ईश्वर से संबंध स्थापित करके आत्मिक शांति का आभास करता है और अपनी आत्मिक व आध्यात्मिक ज़रूरतों को पूरा करता है। मनोवैज्ञानिक इस संबंध में कहते हैं कि इंसान कभी अपने आभासों में एक प्रकार का असमन्वय पाता है और वह असमन्वय आत्मा में पाई जाने वाली परेशानी व व्याकुलता का परिणाम होता है। इस प्रकार के लोगों की आध्यात्मिक ज़रूरत होती है जो पूरी नहीं की गयी होती है। इन आध्यात्मिक ज़रूरतों में से एक यही महान ईश्वर से संपर्क व संबंध है। जब यह संपर्क व संबंध स्थापित हो जाये और इंसान की इस प्राकृतिक आवश्यकता की पूर्ति कर दी जाये तो इंसान को एक विशेष प्रकार की शांति प्राप्त होती है। इस आधार पर इंसान प्राकृतिक रूप से मस्जिद को पसंद करता है और वहां वह शांति का आभास करता है। इसी कारण महान धार्मिक हस्तियों ने मस्जिद को मोमिन की शरणास्थली के रूप में याद किया है। मस्जिद एसी शरणस्थली है जहां इंसान परेशानियों को भूल जाता है और आराम व शांति का आभास करता है।

 

इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम मुसलमानों से सिफारिश करते हुए कहते हैं कि जब भी तुम्हें सांसारिक कठिनाइयों व  दुःखों का सामना हो तो नमाज़ और मस्जिद की शरण में जाओ।“

इसी बिन्दु के दृष्टिगत पैग़म्बरे इस्लाम ने युद्ध में घायल मुसलमान योद्धाओं के लिए मस्जिद को बेहतरीन आध्यात्मिक उपचार केन्द्र बताया परंतु एक अन्य दृष्टि से आज आत्मिक व आध्यात्मिक बीमारियों के उपचार के लिए मस्जिद में उपस्थिति की ज़रूरत का आभास पहले से अधिक किया जा रहा है। आज समाज में विभिन्न प्रकार की समस्याएं व संकट व्याप्त हैं और इंसान का जीवन मशीनी हो गया है दूसरे शब्दों में इंसान सांसारिक कार्यों में इतना अधिक उलझ गया है कि वह आध्यात्म से दूर हो गया है अतः उसे आध्यात्मिक शांति की ज़रूरत है और यह शांति उसे मस्जिदों में मिल सकती है। मस्जिद व्यक्तिगत व सामूहिक रूप में पढ़ी जाने वाली नमाज़ों और प्रार्थनाओं के लिए बेहतरीन स्थल है। मस्जिद आध्यात्मिक बीमारियों यहां तक कि शारीरिक बीमारियों का भी उपचार केन्द्र है। प्रसिद्ध फ्रांसीसी जीव- विशेषज्ञ एलेक्सिस कार्ल अपनी किताब प्रार्थना में बीमारों के उपचार में दुआ के बारे में कहते हैं” दुआ और प्रार्थना के जो प्रभाव हैं उन पर समस्त कालों में लोगों ने ध्यान दिया है इस प्रकार से कि ईश्वर के विशेष बंदों का वास्ता देकर जो प्रार्थना ईश्वर से की जाती है और उससे जो शिफा व फायदा मिलता है उसके बारे में बहुत अधिक बातें की गयी हैं।“

 

अतः जब दुआ बहुत सी बीमारियों का बेहतरीन उपचार है तो ऐसा स्थान ढूंढना चाहिये जहां दुआ जल्दी कबूल होती हो और इस कार्य के लिए मस्जिद बेहतरीन स्थान है। क्योंकि मस्जिदें ज़मीन पर महान व सर्वसमर्थ ईश्वर का घर हैं। यहां इस बात का उल्लेख ज़रूरी है कि मस्जिदों के ईश्वर के घर होने का यह अर्थ नहीं है कि ईश्वर मस्जिदों में रहता है बल्कि उसका अर्थ यह है कि मस्जिदें महान ईश्वर की उपासना की सबसे श्रेष्ठ जगह हैं। ईश्वर हर स्थान पर है वह निराकार व सर्वव्यापी है।

 

मस्जिदे इमाम हसन अस्करी पवित्र नगर क़ुम की एक अति प्राचीन मस्जिद है। कुछ रिवायतों के आधार पर तीसरी शताब्दी हिजरी कमरी शताब्दी में पैग़म्बरे इस्लाम के पौत्र हज़रत हसन अस्करी अलैहिस्सलाम का आदेश मिलने के बाद अहमद बिन इस्हाक़ अश्अरी को इस मस्जिद के निर्माण का कार्य सौंपा गया। इसी प्रकार इस मस्जिद के निर्माण का खर्च भी इमाम हसन अस्करी अलैहिस्सलाम ने दिया। मस्जिद के निर्माण का खर्च मिल जाने के बाद वह इस मस्जिद का निर्माण पवित्र नगर कुम में स्थित हज़रत फातेमा मासूमा सलामुल्लाह अलैहा के रौज़े के निकट और कुम नगर की नदी के निकट करते हैं। यहां इस बात का उल्लेख आवश्यक है कि अब यह नदी सूख गयी है और अब वहां नदी नाम की कोई चीज़ नहीं है।

 

यह मस्जिद इस कारण महत्वपूर्ण है कि अहमद बिन इस्हाक अश्अरी कुम्मी ने इसका निर्माण इमाम हसन अस्करी अलैहिस्सलाम के आदेश से करवाया था। इसके अलावा भी कुछ चीज़ें हैं जो इस मस्जिद की पवित्रता की सूचक हैं। अल्लामा मजलिसी ने तज़केरतुल अइम्मा नाम की किताब में इस बिन्दु को बयान किया है। वह लिखते हैं तीसरे ख़लीफा उस्मान के ज़माने में काफिरों से जेहाद के लिए लगभग 32 हिजरी कमरी में इस्लामी सेना ईरानी आयी। इस्लामी सेना के साथ इमाम हसन और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम भी थे। जब इस्लामी सेना तबरिस्तान से लौट रही थी और जब कुम पहुंची तो इमाम ने उस स्थान पर नमाज़ पढ़ी थी जहां इस समय मस्जिदे इमाम हसन अस्करी है।

मस्जिदे इमाम हसन अस्करी का निर्माण इस्लामी शैली में हुआ है। उसमें जो हाल और जो खुली हुई जगह है उन सबके दृष्टिगत वह अपने आप में अद्वितीय है और यही चीज़ इतिहास के विभिन्न कालों में बड़ी और महत्वपूर्ण घटनाओं के घटित होने का कारण बनी है। जैसे इस मस्जिद में बेघर लोगों ने शरण ली,  सरकारी कार्यों व दायित्वों के निर्धारण के लिए इस मस्जिद का प्रयोग एक केन्द्र के रूप में किया गया, इसी प्रकार सामूहिक रूप से पढ़ी जाने वाली चार नमाज़े जमाअत इस मस्जिद में एक साथ हो सकती हैं। इसी प्रकार इस मस्जिद में धार्मिक क्लासें भी होती हैं।

 

17वीं शताब्दी के फ्रांसीसी पर्यटक जान टावर्निये अपने यात्रा वृतांत में लिखते हैं” कुम में जो चीज़ बहुत ध्यान देने योग्य है वह एक बड़ी मस्जिद है जिसे ईरानी बहुत सम्मान की दृष्टि से देखते हैं। इसके बाद वह मस्जिद की वास्तुकला व निर्माण के बारे में बात करते हैं और उस घटना का वर्णन करते हैं जो उन्होंने इस मस्जिद में देखी है। वह लिखते हैं“ इस मस्जिद का बड़ा दरवाज़ा एक मैदान की ओर खुलता है और उस मैदान में एक कारवां सरा और बहुत सी दुकाने हैं जो बहुत अच्छी हैं। मस्जिद के एक तरफ की दीवार कम ऊंची है और उसके ऊपर से नदी के किनारे और तटों को देखा जा सकता है। उस मस्जिद में कल्याण कोष रखा हुआ है और उस कोष के पैसे से प्रतिदिन जिन लोगों को खाना खिलाया जाता है वे खाने के लिए मस्जिद के कमरों में एकत्रित होते और खाना खाने के बाद चले जाते हैं।

 

अलबत्ता इस समय मस्जिदे इमाम हसन का जो स्वरूप है वह बहुत बड़ा है और इस समय की तुलना में 11 शताब्दी पहले अहमद बिन इसहाक ने जो कुछ बनवाया था वह बहुत छोटा था। 1355 हिजरी शम्सी अर्थात 1976 में इस मस्जिद को ईरान की राष्ट्रीय धरोहरों की सूची में शामिल कर लिया गया। इस मस्जिद का कई बार पुनरनिर्माण किया गया, उसकी मरम्मत की गयी और उसमें विस्तार किया गया। इस मस्जिद का सबसे प्राचीन भाग इसका दक्षिणी दालान है जिसका निर्माण 1129 हिजरी अर्थात 1716 ईसवी में किया गया। यह पुराना दालान 14 मीटर ऊंचा है। इसका निर्माण सफवी शासन के अंतिम वर्षों में हुआ था। इसका निर्माण शाह सुलैमान सफवी की मां महदी उल्या ने करवाया था। इस दालान को मोगरनास, पेरिस आफ प्लास्टर, टाइलों और पवित्र कुरआन के सुन्दर शिला लेखों से सुसज्जित किया गया है।

 

फतह अली शाह क़ाजार के काल में पवित्र नगर कुम में बाढ़ आयी थी जिसकी वजह से इस मस्जिद को काफी क्षति पहुंची थी उसके बाद इस मस्जिद का पुनर्निमार्ण कराया गया। 1286 हिजरी कमरी अर्थात 1869 ईसवी में मस्जिद के पश्चिमी भाग में एक बड़े हाल और भूमिगत भाग का निर्माण कर दिया है। इस मस्जिद में जो पुनरनिर्माण और विस्तार का कार्य किया गया वह इसी काल में किया गया। दिवंगत आयतुल्लाह सैयद गुलपायेगानी ने इस मस्जिद में विस्तार करने का निर्णय किया। इस महत्वपूर्ण कार्य के लिए उन्होंने मस्जिद के आस- पास की जगहों को खरीदा और उसमें विस्तार का नक्शा तैयार किया। उसके बाद आयतुल्लाह गुलपायेगानी का निधन हो गया जिसकी वजह से इस मस्जिद में विस्तार कार्य का आरंभ आयतुल्लाह साफी गुलपायेगानी ने किया इस मस्जिद में होने वाला विस्तार कार्य वर्ष 2015 में पूरा हो गया।

 

रोचक बात यह है कि इस मस्जिद का पुनरनिर्माण इस प्रकार से किया गया है कि उसका नया हिस्सा और पुराने हिस्से में समन्वय रहे और देखने में दोनों एक जैसे लगें।

 

मस्जिद का जो असली हाल है उसका क्षेत्रफल 2900 को मीटर है और वह मस्जिद के ग्राउंड फ्लोर पर है। इस हाल में 1900 लोग एक समय में नमाज़ पढ़ सकते हॅं। यहां यह बात जानना रोचक होगा कि चूंकि हाल बड़ा है और नमाज़ पढ़ने और पढ़ाने वालों और इसी प्रकार भाषण देने वाले और भाषण सुनने वालों के मध्य समन्वय होना चाहिये, हाल के अंदर जो स्तंभ हैं उनके निर्माण में इस बात का ध्यान रखा गया है। इसी प्रकार बड़े हाल के ऊपर एक बड़े गुंबद का निर्माण किया गया है जो 35 मीटर ऊंचा है और उसने मस्जिद की सुन्दरता में चार चांद लगा दिये हैं। इसी प्रकार मस्जिद में दो मिनारें भी हैं जिनकी ऊंचाई 59 मीटर है और उससे मस्जिद की भव्यता में वृद्धि हो गयी है। एक अन्य रोचक बात यह है कि इस मस्जिद में जो सुन्दर टाइल्स लगे हुए हैं, उसके जो स्तंभ हैं, जो मिनारे हैं और जो गुंबद है उन सब पर पवित्र कुरआन की आयते लिखी हुई हैं। यानी इन चीज़ों पर पूरा कुरआन लिखा हुआ है और इन सबको मिलाकर देखा जाये तो 9 हज़ार मीटर की दूरी बनती है।

 

बहरहाल मस्जिद का जो हालिया पुनरर्निमाण हुआ है उसमें एक सात मंजिला इमारत की वृद्धि कर दी गयी है। इस इमारात की दो मंज़िल को पुस्तकाल बना दिया गया है जबकि शेष पांच मंजिल को कार्यालय और मस्जिद से जुड़े दूसरे कार्यों के लिए विशेष कर दिया गया है। इसी प्रकार हाल के नीचे वाले भाग को किताबों की प्रदर्शनी जैसे सांस्कृतिक कार्यों के लिए विशेष कर दिया गया है।