ईरानी संस्कृति और कला- 2
ईरान में इतिहास पूर्व से संबंधित कला व वास्तुकला के जो बड़े अवशेष बरामद हुए वह दक्षिण-पश्चिमी ईरान के शूश क्षेत्र में खुदाई के दौरान बरामद हुए।
वर्षों तक इन अवशेषों की अस्लियत व स्रोत का पता न था क्योंकि शूश में बरामद अवशेष मेसोपोटामिया की सभ्यता वाले क्षेत्रों में प्राप्त अवशेषों से बहुत मिलते जुलते थे। लेकिन हालिया दशकों में ईरान के अनेक क्षेत्रों में खुदायी के दौरान यह बात स्पष्ट हुयी कि शूश में बरामद अवशेष ईरान के संपूर्ण पठारी और आस-पास के क्षेत्र में मौजूद सभ्यता का हिस्सा थे।
शूश के चार बड़े टीलों में ईरान की विगत की वास्तुकला के अवशेष मुख्य शहर, केन्द्रीय दुर्ग, शाही महल और आम घरों के हैं। इस क्षेत्र में 1891 में खुदायी शुरु हुयी जिसके दौरान इस क्षेत्र में बहुत से अवशेष बरामद हुए। इसके अलावा नहावंद के निकट गियान टीले, काशान के निकट सियल्क टीले, गुर्गान के निकट तूरंग टीले, दामग़ान के निकट हेसार टीले, रय के निकट चश्मे अली और लोरिस्तान क्षेत्र में खुदायी हुयी जिससे प्राचीन ईरान की मूल्यवान सभ्यता का पता चलता है। ये सभी इलाक़े उस क्षेत्र में मौजूद हैं जिन्हें ईरान का पठारी क्षेत्र कहा जाता है।
बरामद हुए अवशेषों के मद्देनज़र यह कहा जा सकता है कि इन क्षेत्रों में 1000 साल तक सांस्कृतिक दृष्टि से समानता पायी जाती थी जिसका इन क्षेत्रों में बरामद हुए मिट्टी के बर्तनों और तक्षण कला के नमूनों से पता चलता है। एक हज़ार साल तक जारी यह सांस्कृतिक समानता तीसरी सहस्त्राब्दी ईसापूर्व के आरंभ में ख़त्म हो गयी जिसके पीछे विदेशी शक्तियों का हाथ था।
माद और पार्स के आने से पहले और लगभग 1000 साल ईसापूर्व तक ईरान का इतिहास ईलामी इतिहास कहलाता है। हमारे पास ईलामी दौर से संबंधित जो जानकारियां हैं वे सिर्फ़ उनके उपासना स्थलों के बारे में हैं। कुछ उकेरे हुए चित्रों से पता चलता है कि ये उपासना स्थल चौकौर होते और उसे ऐसे विशाल ढांचे के ऊपर बनाया जाता था जिसमें बरामदा होता था और सामने वाले भाग में रौशनदान बने होते थे। उसके पिछले भाग में संभवतः ऐसी सीढ़ियां होती थीं जिससे उपासना स्थल में दाख़िल होते थे हालांकि अब उसके चिन्ह दिखाई नहीं देते। इन अवशेषों के अग्रभाग में दरवाज़े के दो चौखटे दिखाई देते हैं। बाएं हाथ वाले चौखटे पर नरकुल का एक पर्दा पड़ा है जो सूरज की किरणों को सीधे पड़ने से रोकता है। सीधे हाथ पर भी दरवाज़े का चौखटा दिखाई देता है। इन उपासना स्थलों की एक आकर्षक विशेषता यह है कि उपासना स्थलों की दीवारों के दोनों ओर तीन बड़ी सींगे लगी हुयी हैं।
ईलामी वास्तुकला पश्चिम एशिया की निचली भूमि की अर्ध मरुस्थलीय जलवायु के अनुकूल बनी है। जिस क्षेत्र में लकड़ियां कम पायी जाती थीं वहां गीली मिट्टी की ईंटों को सुखाकर इमारत में इस्तेमाल करते थे। इस वास्तुकला में घरों के कमरों की छतें अपेक्षाकृत ऊंची बनायी जाती थीं। घरों में छोटी छोटी खिड़कियां होती थीं जिनके दरवाज़े घर के भीतर आंगन में खुलते थे और इस तरह घर में रहने वालों की निजता सुरक्षित रहती थी।
दूसरे सहस्त्राबदी ईसापूर्व में सभी घर यहां तक कि कुलीन वर्ग के लोगों के घरों के नक़शे इसी तरह के होते थे। आम घरों और कुलीन वर्ग के घरों में एक अंतर यह होता था कि कुलीन वर्ग के लोगों के घर के बीचो बीच में एक हाल होता था और उसी हाल से आंगन का रास्ता होता था।
पिरामिड के आकार की सीढ़ियों वाली इमारत चुग़ाजंबील या ज़िग्रेट ईलामी वास्तुकला का स्पष्ट नमूना है जो कुछ हद तक सुरक्षित बचा है और इस जैसा कोई दूसरा नमूना अब तक नहीं मिला है। कुछ उकेरे हुए चित्रों से पता चलता है कि यह इमारत ईलामी शासक उन्ताश गाल ने बनवायी थी। इस बात की प्रबल संभावना है कि यह इमारत एक क़िले के बग़ल में बनवायी गयी थी जिसके आस-पास दो उपासना स्थल थे जहां धार्मिक संस्कार अंजाम दिए जाते थे। इस इमारत में ऐसे चित्र मौजूद में जिनमें दो सीढ़ीदार इमारतों के सामने एक मैदान में पुजारियों को बलि चढ़ाता हुए चित्रित किया गया है। चुग़ाज़म्बील ऐसी पांच मंज़िला इमारत थी कि जैसे जैसे ऊपर बढ़ते हैं इमारत की मंज़िल छोटी होती जाती है। पहला मंज़िला चौकोर है जिसके बीचों बीच में लगभग 100 मीटर लंबा चौड़ा हाल है। इस बात से मन में यह विचार आता है कि इस इमारत में नाना प्रकार के धार्मिक संस्कार अंजाम दिए जाते थे।
हर मंज़िल चार-चार सीढ़ियों से एक दूसरे से जुड़ी हुई है लेकिन चुग़ाज़म्बील की छत पर पहुंचने के लिए सिर्फ़ एक सीढ़ी की व्यवस्था की गयी थी।
उपासना स्थल में दाख़िल होने वाला भव्य गेट बहुत सुदंर तरीक़े से सजा हुआ है। इस वास्तुकला में ईरानियों ने पहली बार मीनाकारी की हुयी टाइल का इस्तेमाल किया है ताकि पीले रंग की ईटें ख़ूबसूरत लगें। इस इमारत में सबसे पुरानी जो मीनाकारी की हुयी टाइल इस्तेमाल हुयी वह चौकोर है।
उपासना स्थल के सामने बने चबूतरे नीले रंग की मीनाकारी वाली ईंटों से ढके हुए हैं। इस उपासना स्थल से बरामद हुए टाइल के टुकड़े पौराणिक जानवरों के चित्र बने हुए हैं जो हख़ामनेशी शासन काल की वास्तुकला में सज़ावट के रूप में दिखाई देते हैं। उपासना स्थल के गलियारों और सीढ़ियों पर अर्धचंद्राकार ताक़ आंतरिक सजावट में प्राचीन ईरान के वास्तुकारों की दक्षता व सफलता की गाथा बयान करते हैं। इसी तरह दुनिया में घर के पानी को साफ़ करने वाला सबसे पुराने तंत्र के अवशेष इसी स्थान पर बरामद हुए हैं।
चुग़ाज़म्बील इमारत के निर्माण का इतिहास लगभग 1265 वर्ष ईसापूर्व है जो प्राचीन शहर दोर आंतेश के खंडर पर बना हुआ है। यह इमारत लगभग 52 मीटर ऊंची थी लेकिन समय गुज़रने और घृषण के कारण इसकी ऊंचाई आधी रह गयी है। यूनेस्को ने इसे विश्व धरोहर में शामिल किया है।
शूश शहर में इस उपासना स्थल से दूर उपनगरीय क्षेत्र में पुरातनविदों ने तीन महलों के अवशेष बरामद किए हैं कि इनमें से एक में क़ब्रे भी हैं। इन महलों में रहने वाले लोग इसी में दफ़्न हो जाते थे और महल के सभी कमरों से सीढ़ियों के ज़रिए इस क़ब्रिस्तान में दाख़िल होते थे। क़ब्रों को भी बहुत सुंदर तरीक़े से सजाया गया है।
लेकिन दूसरे सहस्त्राब्दी ईसापूर्व के अंत में क़बीलों के उत्तर से ईरान की ओर पलायन के कारण बहुत सी चीज़े जिनमें ईरान की वास्तुकला भी है, बदल गयी। चूंकि ये क़बीले जंगल के पास में जीवन बिताते थे इसलिए उन्होंने ईरानी वास्तुकला में लकड़ी के चलन को आम किया। इसके बाद से ईरानी घरों में लकड़ी के खंबों का चलन आम हुआ। उनकी वास्तुकला में घर के केन्द्र में हाल होता था जिसमें खंबे होते थे। पश्चिमोत्तरी ईरान के हसनलू में पुरातात्विक खुदाई के दौरान इस बात का पता चला कि वास्तुकला की यह शैली विकसित रूप में ईरान में आयी थी।
दूसरी सहस्त्राबदी ईसापूर्व के अंत से पहली सहस्त्राबदी ईसापूर्व के आरंभ तक के दौर को ईरान में अधंकारमय शताब्दी कहा जाता है क्योंकि यह दौर जातियों के पलायन, छोटी छोटी सरकारों के उदय और बड़े बड़े साम्राज्य के विघटन का दौर था।
लेकिन इस बीच इन सभी परिवर्तनों से बेफ़िक्र ईलामी कलाकार के हाथ में शताब्दियों तक मामलों का नियंत्रण रहा और कुछ शताब्दियों के बाद दूसरे क़बीलों ने उनका स्थान ले लिया। इन क़बीलों में सबसे अहम सकाहा था कि जिनकी वास्तुकला के अवशेष और इसी प्रकार माद जाति की वास्तुकला के अवशेष के बारे में बताएंगे।