मस्जिद और उपासना- 34
हमने बताया था कि मस्जिद, इस्लामी जगत का सबसे सुन्दर व महत्वपूर्ण प्रतीक है।
यही कारण है कि मुस्लिम मस्जिद में उपासना के साथ साथ विभिन्न सामाजिक व राजनैतिक चरणों को तय करता है। विभिन्न शताब्दियों में मुसलमनों की क्रांतियां और आंदोलन, इसी वास्तविकता के चिन्ह हैं। आम तौर पर मस्जिद में मुसलमानों की राजनैतिक गतिविधियां, पवित्र क़ुरआन की व्याख्या की बैठकें, इस्लामी नियमों को बयान करने की क्लासें, ईश्वर के निकटवर्ती महापुरुषों को याद करने, धर्म से संबंधित ऐतिहासिक घटनाओं का उल्लेख करने तथा पूरी दुनिया में मुसलमानों के सामने मौजूद समस्याओं और कठिनाइयों को बयान करने से शुरु होती हैं और इस प्रकार से कभी कभी यह पवित्र स्थल जेहाद का मोर्चा भी बन जाती है जैसा कि इस्लाम धर्म के उदय के समय भी मस्जिद अपनी उपासना की गतिविधियों के साथ साथ मुस्लिम समाज के राजनैतिक संचालन के केन्द्र के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती रही है।

मस्जिद दुनिया में जहां कही भी हो अपनी मुख्य और मूल भूमिका अदा करती है। जहां पर मुसलमानों की आबादी नहीं होती या कम होती है वहां की स्थानीय मस्जिद मुस्लिम अल्पसंख्यकों की पहचान को सिद्ध करने वाली होती है किन्तु इस्लामी समाज में मस्जिद राजनैति व वैचारिक गतिविधियों का प्रतीक होने के साथ नागरिक अधिकारों को प्राप्त करने तथा राजनैतिक भागीदारी में वृद्धि के लिए बेहतरीन मंच होती है। जैसा कि मस्जिद को विशेष सम्मान प्राप्त है इसीलिए उन देशों के मुसलमान जहां अत्याचारी व्यवस्था है, राजनैतिक गतिविधियों और अपने स्वतंत्रताप्रेमी आंदोलन को मस्जिद में केन्द्रित कर देते हैं जहां प्रतिदिन बड़ी संख्या में मुसलमान उपस्थित होते हैं ताकि मस्जिद के सम्मान के साथ सरकारी हमलों से किसी सीमा तक सुरक्षित रहें। यही कारण है कि इस्लामी समाज में अत्याचारी सरकारों को मस्जिदों से बुरी तरह भय लगता है क्योंकि यह केन्द्र संभावित राजनैतिक ताक़त को जमा और उनका पालन पोषण कर सकता है।
अलजीरिया, मिस्र और ईरान जैसे देश में क्रांति से पहले मस्जिदें भ्रष्टाचार और सरकार की अयोग्यता से संघर्ष का महत्वपूर्ण केन्द्र थीं और यही कारण है कि सरकारें कभी कभी विरोधियों से मुक़ाबले के लिए मस्जिद के सम्मान को तार तार कर देती हैं और उस पर हमला कर देती हैं।

चूंकि जनता की धार्मिक व राजनैतिक सोच के संचालन में मस्जिद की महत्वपूर्ण भूमिका है इसीलिए मस्जिद को दो गुटों में सरकारी और प्राइवेट भाग में बांट दिया गया है। सरकारी मस्जिदें जो सीधे तौर पर सरकारी संस्थाओं या मंत्रालयों की ओर से चलायी जाती हैं या सरकारी संस्थाएं उन पर नज़र रखती हैं। यह मस्जिद सरकार की ओर से बनाई जाती हैं और यदि आम लोगों की ओर से बनायी गयी होती हैं तो उसमें आयोजित होने वाले कार्यक्रम सरकार निर्धारित करती है। इस मस्जिद के इमाम और उपदेशकों का निर्धारण सरकार की ओर से होता है या सरकार उनकी पुष्टि करती है। दूसरी ओर प्राइवेट मस्जिदें होती हैं जिन पर लोगों का नियंत्रण होता है। यह मस्जिदें स्वतंत्र होती हैं और इसका ख़र्चा स्थानीय लोग स्वेच्छा से उठाते हैं। यही लोग आपस में कमेटी बनाकर मस्जिद के इमाम का निर्धारण और मस्जिद पर होने वाले ख़र्चे अदा करते हैं। चूंकि यह मस्जिदें स्वाधीन होती हैं और सरकार से मदद नहीं लेती इसीलिए प्राइवेट मस्जिदों में अधिक भीड़ होती है और लोग बड़ी संख्या में इसमें आते हैं। बहुत सी कल्याणकारी संस्थाएं और लोन सेन्टर इन्हीं मस्जिदों में खोला जाता है और जनता के लिए विभिन्न सामाजिक सेवाएं दी जाती हैं।
दुनिया की प्रसिद्ध मस्जिदों में से एक तबरेज़ की मस्जिदे है। इस मस्जिद को मस्जिदे जहांनशाह भी कहा जाता है और यह तबरेज़ की ऐतिहासिक इमारतों में से एक है।

मस्जिदे कबूद या मस्जिदे जहांनशाह ईरान में इस्लाम के बाद कला और वास्तुकला का बेहतरीन नमूना है जो अबू मुज़फ़्फ़र जहांनशाह क़राक़िन्लू के आदेश पर बनी थी। इस मस्जिद को वर्ष 1193 हिजरी क़मरी में आए भूकंप में भारी नुक़सान पहुंचा और भूकंप के कारण इसके गुंबद गिर गये। मस्जिद की रक्षा के लिए इसका पुनर्निमाण किया गया जिसके अंतर्गत मस्जिद के स्तंभो, ताक़ों और बाक़ी बचे भाग की मरम्मत 1318 हिजरी शम्सी में शुरु हुई और 1355 में इसकी इमारत का काम समाप्त हुआ।
यह मस्जिद फ़ीरोज़े रंग की मुअर्रक़ हुई टाइलों के कारण सुन्दर डिज़ाइलों के दृश्य पेश करती है जिससे उस काल के कला प्रेम का पता चलता है। यह इमारत नवीं हिजरी में निर्मित हुई थी और इसकी प्राचीनता के दृष्टिगत इस पर बनी टाइलों, विभिन्न डिज़ाइनों और बेल बूटों को पर्यटक देखते ही रह जाते हैं। इस इमारत को कई नामों से पुकारा जाता है। मस्जिदे कबूद, मस्जिदे शाह जहांन, इमारत व मस्जिदे मुज़फ़्फ़रिया के नाम से प्रसिद्ध है। ग्यारही शताब्दी के पहले अर्ध में उस्मानी तुर्क पर्यटक कातिब चलबी और औलिया चलबी तथा इसी शताब्दी के दूसरे अर्ध में फ़्रांसीसी पर्यटक तारूनिया और शार्डन ने इस मस्जिद का दौरा किया।
उस्मानी इतिहासकार कातिब चलबी जब 1045 हिजरी में तबरेज़ आए तो जहांननुमा इतिहास नामक पुस्तक में लिखते हैं कि मस्जिदे जहांनशाह की ढेवड़ी, कसरा के ताक़ से ऊंची है। बहुत अच्छी इमारत है जिसे सुन्दरा टाइलों से सुसज्जित किया गया है, इसके गुंबद ऊंचे ऊंचे हैं, बहुत ही मनमोहक है, जैसे ही पर्यटक इस इमारत के भीतर प्रविष्ट होता है, उसका मन बाहर निकलने का नहीं करता, यह इमारत सुन्दर टाइलों से सजी हुई है, ऊंचे गुंबद हैं और इसकी दीवारें और दरवाज़े सुन्दर और रंग बिरंगी टाइलों से सजे हुए हैं।

पूर्वी मामलों की फ़्रांसीसी विशेषज्ञ मैडम डियोलाफ़ुआ ने 19 शताब्दी में काज़ारी शासन काल में मस्जिद का दौरा किया और वह लिखती हैं कि यह सुन्दर इमारत, सूक्ष्म अध्ययन के क़ाबिल है। इस इमारत, इसके प्रवेश द्वार और दीवारों को बहुत ही सुन्दर डिज़ाइनों से बनाया और सुन्दर और रंग बिरंगी टाइलों से सजाया गया है। इसकी सुन्दरता देखकर आश्चर्य होता है, खेद की बात है कि इस सुन्दर इमारत का सुन्दर गुंबद भूकंप के कारण गिर गया। भूकंप के कारण इमारत का कुछ भाग पूरी तरह तबाह हो गया था। मस्जिद में बहुत बड़ा प्रांगण है जिसके किनारे बड़े बड़े ताक़ बने हुए हैं। प्रांगण के बीचों बीच वज़ू करने के लिए बड़ा सा हौज़ बनाया गया है। मस्जिद का प्रवेश द्वार थोड़ी सी ऊंचाई पर बनाया गया है और उसके ऊपरी भाग में एक अंडाकार धनुष बनी हुई है। इस द्वार के दोनों ओर एक दूसरे से मिले हुए घमावदार स्तंभ बने हुए हैं जो इमारत से मिले हुए हैं। यह स्तंभ ऊपरी भाग में बारीक चांद की भांति दिखाई देता है। यह स्तंभ सुन्दर फ़िरोज़े से सजे हुए हैं। इस पर तरह तरह के छोटे फ़िरोज़े लगे हुए हैं। इस पर ऐसी सुन्दर डिज़ाइनें बनी हुईं है कि लोग देखते ही रह जाते हैं।

मस्जिदे कबूद के दक्षिणी प्रांगण में शाह जहांन और उनकी बेटी को दफ़्न किया गया है जिसका पता पुनर्निमाण के समय चला। (AK)
