ईश्वरीय वाणी-८१
पवित्र क़ुरआन का एक सूरा, सूरे मुनाफ़ेकीन है।
इस सूरे की मुख्य बातें मुनाफेक़ीन अर्थात मित्याचारियों से संबंधित हैं। इस सूरे में जिन बातों का उल्लेख किया गया है वे इस प्रकार हैं। मुनाफेक़ीन की अलामतें, मुनाफ़िकों के षडयंत्रों से मोमिनों को होशियार करना, मोमिनों को इस बात की चेतावनी कि सांस्सारिक नेअमतें उन्हें महान ईश्वर की याद से निश्चेत न बना दें, मौत आने से पहले ईश्वर के मार्ग में खर्च करने की सिफारिश।
ज़बान से ईमान प्रकट करने और अंदर से कुफ्र व बेईमानी को छिपाने को नेफाक़ व मित्थ्याचार कहते हैं। मुनाफ़िक वे लोग हैं जिन्होंने दिल से ईमान व ईश्वरीय बातों को स्वीकार नहीं किया है और अपने दिल में कुफ्र को छिपा रखा है और विदित में स्वयं को मुसलमानों के मध्य ईमानदार के रूप में पेश करते हैं।
इस्लाम में मित्थ्याचार और मित्थ्याचारियों का मामला उस समय से पेश आया जब पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेहि व सल्लम मक्का से मदीना पलायन कर गये और इस्लाम की सुदृढ़ता व सफलता स्पष्ट हो गयी। उससे पहले जब पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेहि व सल्लम मक्के में थे लगभग कोई मुनाफिक़ नहीं था। क्योंकि मक्का की कठिन परिस्थिति में मुसलमान कमज़ोर, दबाव और शत्रुओं की यातना में थे परंतु मदीने में इस्लाम के विस्तृत होने से दुश्मन कमज़ोर पड़ गये और इस प्रकार की स्थिति में उनके साथ विरोध प्रकट करना कोई सरल कार्य नहीं था। इसलिए परास्त व मार खाये दुश्मनों ने अपना कार्यक्रम जारी रखने के लिए अपना चेहरा बदल लिया और विदित में मुसलमान बनकर उनकी पंक्ति में शामिल हो गये और छिपकर अपना कार्यक्रम जारी रखा।
स्वाभाविक रूप से हर क्रांति में यह होता है कि सफलता के बाद उसमें मित्थ्याचारी घुसपैठ कर जाते हैं और पुराने व अतीत के दुश्मन मित्र का वस्त्र धारण करके उसमें शामिल हो जाते हैं। इस बात से समझा जा सकता है कि पवित्र कुरआन की विभिन्न आयतें मुनाफेकिन के संबंध में मक्का के बजाये मदीना में क्यों नाज़िल हुईं हैं। यह बिन्दु भी ध्यान योग्य है कि मित्थ्याचार और मित्थ्याचारी का मामला पैग़म्बरे इस्लाम के काल से विशेष नहीं है बल्कि हर समाज को इस समस्या का सामना पड़ सकता है। अतः मित्थ्याचारियों के बारे में पवित्र कुरआन का जो दृष्टिकोण है उसका अध्ययन किया जाना चाहिये क्योंकि हर समाज को इस समस्या का सामना हो सकता है। मित्थ्याचारियों का ख़तरा समाज के लिए बहुत अधिक है।
क्योंकि आम तौर पर मित्थ्याचारियों की पहचान सरल नहीं है और कभी वे समाज में अपनी पैठ इस प्रकार बना लेते हैं कि उन्हें समझना बहुत कठिन हो जाता है। इसी कारण पवित्र कुरआन ने मित्थ्याचारियों की बड़ी भर्त्सना की है और पूरे इस्लामी इतिहास में इस्लाम को सबसे अधिक हानि षडयंत्रकारी मित्थ्याचारियों से पहुंची है।
पवित्र कुरआन सूरे मुनाफेक़ीन के आरंभ में जिस बिन्दु को सबसे पहले बयान करता है वह मित्थ्याचारियों का झूठा ईमान है और यही झूठा व पाखंडी ईमान मित्थ्याचार का आधार है। महान ईश्वर कहता है हे पैग़म्बर जब मित्थ्याचारी तुम्हारे पास आते हैं तो वे कहते हैं कि हम गवाही देते हैं कि आप ईश्वरीय दूत हैं और ईश्वर जानता है कि आप उसके दूत हैं और ईश्वर गवाही देता है कि मित्थ्याचारी झूठ बोल रहे हैं।“
वास्तव में मित्थ्याचारी का पहला चिन्ह यह है कि उसके दिल में कुछ और ज़बान पर कुछ होता है और उसके दिल में ईमान नाम की कोई चीज़ नहीं होती है और उसका दोगलापन ही मित्थ्याचार का अस्ली आधार होता है।
मित्थ्याचारियों ने जो यह गवाही दी कि पैग़म्बरे इस्लाम ईश्वर के दूत थे वह झूठ नहीं था बल्कि एक वास्तविक बयान था परंतु उनके दिल में वास्तव में यह ईमान नहीं था इसलिए वह झूठ था। अतः पवित्र कुरआन कहता है हे पैग़म्बर आप वास्तव में ईश्वरीय दूत हैं परंतु वे झूठ बोल रहे हैं!
सूरे मुनाफेक़िन की एक आयत मित्थ्याचारियों की एक अन्य अलामत को बयान करती है उन्होंने अपनी शपथों को ढ़ाल बनाया और लोगों को ईश्वर के मार्ग से रोक रखे हैं निः संदेह वे जो कार्य अंजाम देते हैं वह अप्रिय है।“
लोगों के मार्गदर्शन के मार्ग में वे बाधायें उत्पन्न करते हैं कौन सा कार्य इस कार्य से बदतर होगा?
मित्थ्याचारियों की एक अलामत यह है कि वे स्वयं को छिपाने के लिए ईश्वर के नाम और उसकी सौगन्ध का सहारा लेते हैं ताकि उनका अस्ली चेहरा छिपा रहे और लोगों को अपनी ओर आकृष्ट करें अतः कभी भी उनके विदित छलावे और चिकनी-चुपड़ी बातों में नहीं आना चाहिये।
सूरे मुनाफेक़ून की चौथी आयत मित्थ्याचारियों की अधिक पहचान को बयान करते हुए कहती है” जब उन्हें देखोगे तो उनका शरीर व विदित इतना अच्छा है कि तुम हतप्रभ हो जाओगे और यदि वे बातें करें तो तुम उनकी बात सुनते रह जाओगे किन्तु यह ऐसा ही है कि मानो वे लकड़ी के कुंदे हैं जिन्हें दीवार के सहारे लटका दिया गया है हर ज़ोर की आवाज़ को वे अपने ही विरुद्द्ध समझते हैं वही वास्तविक शत्रु हैं अतः उनसे बचकर रहो ईश्वर की मार उन पर हो वे कहां उल्टे फिर जा रहे हैं“
यह आयत कहती है कि मित्थ्याचारियों का विदित अच्छा होगा और वे चिकनी-चुपड़ी बातें करेंगे। यद्यपि मित्थ्याचारियों का विदित रूप धोखे में डालने वाला होता है परंतु अंदर से वे ईमान से बिल्कुल खाली होते हैं। उनके शरीरों में प्राण नहीं होते हैं और उनके चेहरे अर्थहीन होते हैं संभव है कि उनका विदित शांतिपूर्ण हो परंतु वे सदैव परेशान व व्याकुल होते हैं। उनका अंदर अंधकारमय होता है। मित्थ्याचारियों का इरादा और ईमान सही नहीं होता है। वे दीवार पर टेक लगाकर रखे लकड़ी के कुंदे की तरह हैं।
उसके बाद पवित्र कुरआन के सूरे मुनाफेक़ून की आयत उनकी मानसिक विशेषताओं को बयान करती है। वे ईश्वर पर भरोसा नहीं रखते हैं और उनमें आत्म विश्वास नहीं होता है। महान ईश्वर कहता है” हर जोर की आवाज़ को वे अपने विरुद्ध समझते हैं। मित्थ्याचारियों के दिल में हमेशा विचित्र प्रकार का भय व आतंक होता है और वे भ्रांति का शिकार होते हैं। इस सूरे की चौथी आयत पैग़म्बरे इस्लाम को चेतावनी देती है कि वे वास्तविक शत्रु हैं तो उनसे सावधान हो। ईश्वर की मार उन्हें पड़े वे किस प्रकार स्पष्ट तर्कों को देखने के बावजूद सत्य से मुंह मोड़ लेते हैं।? यह मित्थ्याचारी वास्तिक दुम्शमन हैं क्योंकि ये समाज में रहते हैं और मुसलमानों के भेद व रहस्यों से अवगत होते हैं और चूंकि लोग उनसे अवगत नहीं होते हैं इसलिए उनसे मुकाबला कठिन है। सूरे मुनाफेक़ून की 5वीं से लेकर 8वीं तक आयतें मित्थ्याचारियों की दूसरी अलामतें बयान करती हैं। इस सूरे की सातवीं आयत इस बिन्दु को बयान करती है कि जो लोग पैग़म्बरे इस्लाम के पास हैं वे कहते हैं कि उन पर धन न खर्च करो और अपनी धन- सम्पत्ति को उन्हें मत दो ताकि वे पैग़म्बर से अप्रसन्न हो जायें और उनके पास से उठ कर चले जायें जबकि उन्हें इस बात की ख़बर नहीं है कि आसमान और ज़मीन के समस्त ख़ज़ाने ईश्वर के हैं परंतु मित्थ्याचारी इस वास्तविकता को नहीं समझते। वह इस बात को नहीं जानते कि जिसके पास जो कुछ भी है वह ईश्वर की ओर से है और सब ,,,आजीविका पाते हैं।
इतिहास में आया है कि बनी मुसतलक़ युद्ध के बाद पैग़म्बरे इस्लाम अपने सिपाहियों के साथ मदीना लौट रहे थे। मित्थ्याचारियों का एक सरगना अब्दुल्लाह बिन उबय इस कारवां में था। रास्ते में एक मामले को लेकर दो मुसलमानों के मध्य विवाद हो गया। एक मुसलमान मुहाजिर था जबकि दूसरा अंसार। मक्का से मदीना पलायन करने वाले मुसलमानों को मुहाजिर कहा जाता है जबकि मदीना में रहने वाले मूल मुसलमानों को अंसार कहा जाता है। बहरहाल जब दोनों के मध्य झगड़ा हो रहा था तो अब्दुल्लाह, अंसारी मुसलमानों की सहायता के लिए आगे बढ़ा। उसने अपने आसपास के लोगों से कहा आप लोगों ने मोहाजिर मुसलमानों की सहायता की है उन्हें अपने नगर में जगह दी और अपने माल को उनके मध्य विभाजित किया और अब वे तुम्हारे मुकाबले में खड़े हो गये हैं अगर यह काम न करते तो तुम पर सवार न होते। उसके बाद उसने क़सम खाई कि यदि मदीने वापस पहुंच गये तो उससे तुच्छ व गिरे हुए लोगों को निकाल बाहर करेंगे जो अब प्रतिष्ठित हो गए हैं।
अब्दुल्लाह बिन उबय का लक्ष्य यह था कि हम मदीने के रहने वाले हैं और पैग़म्बरे इस्लाम (स) तथा महाजिर, बाहर से आए हैं उनको मदीने से निकाल देंगे। इस मिथ्याचारी की बात पैग़म्बरे इस्लाम के कानों तक पहुंची। उन्होंने एक व्यक्ति को अब्दुल्लाह के पास भेजकर उसे बुलवाया। यह मिथ्याचारी पैग़म्बर की सेवा में हाज़िर तो हुआ किंतु वह अपनी बात से मुकर गया। पवित्र क़ुरआन ने इन आयतों में उसकी कड़ी भर्त्सना की है। इस प्रकार अब्दुल्लाह जो स्वयं को प्रतिष्ठित समझ रहा था, अपमानित हुआ और इस अपमान के कारण वह अपनी मृत्यु तक घर में ही रहा।
इस सूरे की आठवीं आयत में आगे हम पढ़ते हैं” जबकि इज़्ज़त ईश्वर, उसके दूत और मोमिनो से विशेष है परंतु मित्थ्याचारी नहीं जानते हैं” इस आयत का संदेश यह है कि स्वयं को सम्मानित एवं दूसरों को अपमानित समझने वाली सोच मुनाफ़िक़ों की सोच है। यह विचारधारा, घमण्ड से अस्तित्व में आती है। यदि मिथ्याचारी, यह बात मानते कि संसार में सब कुछ ईश्वर का है तो उनके मन में यह विचार न आता। क्योंकि मिथ्याचार का मुख्य स्रोत संसार प्रेम है इसलिए सूरए मुनाफ़ेक़ीन की नवीं आयत, मोमिनों का आह्वान करती है कि वे सांसारिक मायामोह से दूर रहें। आयत कहती है हे ईमान लाने वालों! तुम्हारे माल और तुम्हारी संतान तुम्हें ईश्वर की याद से निश्चेत न कर दें और जो एसा करेगा वही घाटे में रहेगा।“
सही है कि माल और संतान महान ईश्वर द्वारा प्रदान की गयी नेअमतें हैं किन्तु जहां तक हो सके महान ईश्वर के मार्ग में और कल्याण तक पहुंचने के लिए उनसे लाभ उठाया जाना चाहिये। अतः अगर धन -सम्मति और संतान से सीमा से अधिक प्रेम किया जाये तो वे महान ईश्वर और इंसान के बीच दीवार उत्पन्न करते हैं और उन्हें सबसे बड़ी बला समझा जाता है।
सूरे मुनाफेक़ून की 10वीं आयत महान ईश्वर के मार्ग में खर्च करने के महत्व की ओर संकेत करती और कहती है” हमने जो तुम्हें रोज़ी दी है उसमें से ख़र्च करो इससे पहले कि तुममें से किसी एक को मौत आ जाये और तुम कहो कि पालनहार तूने हमारी मौत को क्यों विलंबित नहीं कर दिया कि हम खर्च कर सकें और अच्छे लोगों में से हो जायें?
ऐसे बहुत से लोग हैं जब मौत का अंतिम क्षण होता है तो निश्चेतना का पर्दा उनकी आंखों से हट जाता है और वे समझ जाते हैं कि अब उन्हें धन -सम्पत्ति छोड़ कर चले जाना चाहिये। उस समय वे अपने अतीत के कार्यों पर पछताते हैं और फिर से वे जीवन की ओर पलटाये जाने की आकांक्षा करते हैं चाहे थोड़े समय के लिए ही क्यों न हो ताकि अपनी कमियों की भरपाई कर सकें परंतु उनकी यह मांग स्वीकार नहीं की जायेगी।
सूरे मुनाफेक़ून की अंतिम आयत पूरी दृढ़ता के साथ कहती है” जिनकी मौत का समय आ चुका है ईश्वर कदापि उसे विलंबित नहीं करेगा और ईश्वर जो कुछ करता है उसे वह जानता है।“