अल्लाह के ख़ास बन्दे- 36
आपको अवश्य याद होगा कि पिछले कार्यक्रम में हमने कहा था कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने बनी उमय्या के दौर से मुकाबला करने के लिए बहुत प्रयास किया।
इसके लिए उन्होंने पत्र लिखा, खुत्बा दिया, धार्मिक और राजनीतिक हस्तियों से मुलाकात करके यज़ीद की अत्याचारी सरकार की वास्तविकता को लोगों के लिए बयान किया। इस प्रकार उन्होंने लोगों को जागरुक बना कर बनी उमय्या के साथ युद्ध को रोकने का प्रयास किया परंतु उनके इन प्रयासों का कोई परिणाम नहीं निकला। यज़ीद, उसके पिछलग्गुओं और बहुत से दिग्भ्रमित मुसलमानों ने इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके वफादार साथियों से युद्ध करने का फैसला किया। यज़ीद और उसके पिछलग्गु यह सोच रहे थे कि वे इमाम हुसैन अलैहिस्लाम को शहीद करके ईश्वरीय प्रकाश बुझा सकते हैं परंतु वे इस बात से निश्चेत थे कि महान ईश्वर की इच्छा के अनुसार ईश्वरीय प्रकाश बुझने वाला नहीं है और काफिरों व अनेकेश्वरवादियों की अनिच्छा के बावजूद ईश्वरीय प्रकाश दिन प्रतिदिन अधिक व परिपूर्ण होता रहेगा। इस संबंध में महान ईश्वर पवित्र कुरआन में फरमाता हैः वे ईश्वरीय प्रकाश को बुझाना चाहते हैं परंतु ईश्वर ने अपने प्रकाश को पूरा करने का इरादा किया है यद्यपि यह बात काफिरों व अनेकेश्वरवादियों को नापसंद ही क्यों न हो।
यज़ीद और उसके पिछलग्गुओं ने ईश्वरीय प्रकाश बुझाने के लिए सन 61 हिजरी कमरी में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को शहीद करने का फैसला किया और कर्बला की हृदयविदारक घटना अस्तित्व आई और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके 72 वफादार साथियों के मुकाबले में कई हज़ार की यज़ीदी सेना थी। यज़ीदी सेना ने बहुत ही क्रूरता और निर्ममता के साथ इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके वफादार साथियों को शहीद कर दिया जिसके बाद उनके सिरों को उनके पावन शरीरों से अलग करके नोके नैज़ा यानी भाले पर उठा लिया। यही नहीं उसके बाद यज़ीद की राक्षसी सेना ने इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके वफादार साथियों के तंबुओं पर जिनमें बच्चे और महिलाएं थीं हमला करके उनमें आग लगा दी। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने अपनी शहादत के अंतिम क्षण के समय जब यह देखा कि यज़ीद की राक्षसी सेना जघन्य अपराध अंजाम दे रही है तो उन्होंने चिल्लाकर कहा कि हे अबू सुफयान के खानदान के अनुयाइयों अगर तुम अधर्मी हो और प्रलय के दिन से नहीं डरते तो कम से कम सांसारिक जीवन में आज़ाद रहो परंतु अधर्मी यज़ीद की राक्षसी सेना और सत्ता और संसार के भूखे लोगों ने इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की मानवीय पुकार पर कोई ध्यान दिये बिना अपने जघन्य अपराधों को जारी रखा और उन्होंने इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके वफादार साथियों की महिलाओं और बच्चों को बंदी बना लिया और उन्हें कूफे एवं शाम के बाज़ारों में नंगे सिर फिराया, उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया और कूफे में उबैदुल्लाह और शाम में यज़ीद के दरबार में हाजिर किया। ये लोग शक्ति के नशे में चूर थे। यजीद और उसके सामने नतमस्तक रहने वाले सोच रहे थे कि इंसानों को बंदी बना कर वे लोगों की आत्माओं को भी बंदी बना सकते हैं परंतु अचानक उन्होंने देखा कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की बहन हज़रत ज़ैनब और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के बेटे इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम ने अदम्य साहस के साथ एतिहासिक व जागरुक करने वाले भाषण दिये। उन भाषणों से कूफा और शाम के लोगों की निश्चेतना की नींद उड़ गयी। इस प्रकार से कि यज़ीद और उबैदुल्लाह के दरबारियों ने आपत्ति जताई और अमवी शासकों की सत्ता के स्तंभ हिल गये।
संक्षिप्त समीक्षा के बाद अब हम आशूरा की एतिहासिक घटना की समीक्षा की ओर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं।
यज़ीद अपने बाप मोआविया की देखरेख में पला बढ़ा था। मोआविया वह व्यक्ति था जिसने मुसलमानों के ख़लीफा हज़रत अली से युद्ध किया और बहुत से निर्दोष लोगों की हत्या की। यज़ीद ने इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से मुकाबले के लिए बहुत ही तुच्छ मार्ग का चयन किया। उसने इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की छवि खराब करके आम जनमत को यह समझाने का प्रयास किया था कि वह मुसलमानों का खलीफा है जबकि सब उसकी दुष्टता से भली- भांति अवगत थे। इसी तरह वह यह समझाने का प्रयास कर रहा था कि पैग़म्बरे इस्लाम के नाती इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने सत्ता की लालसा में मुसलमानों के खलीफा के विरुद्ध विद्रोह किया है अतः उनका खून बहाना वैध है। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने यह बताने के लिए कि उनके खिलाफ यज़ीद जो दावे कर रहा है वह झूठ और निराधार हैं” फरमाया निः संदेह मैंने व्यक्तिगत उद्देश्यों, एश्वर्यपूर्ण जीवन, बुराई फैलाने और दूसरों पर अत्याचार के लिए आंदोलन नहीं किया है बल्कि मेरा लक्ष्य अच्छाई का आदेश देना और बुराई से रोकना है, मैं राजनीतिक, सामाजिक और नैतिक बुराई को खत्म करना चाहता हूं मैं सुधार करना चाहता हूं। इस संबंध में मैं अपने नाना पैग़म्बरे इस्लाम और पिता अली इब्ने अबि तालिब की शैली का अनुसरण कर रहा हूं। तो जो मेरे संदेश को स्वीकार करेगा उसने ईश्वर का रास्ता पकड़ लिया है और जो मेरे संदेश को स्वीकार नहीं करेगा तो मैं धैर्य के साथ अपने मार्ग को जारी रखूंगा यहां तक कि ईश्वर हमारे बीच फैसला करेगा कि वह बेहतरीन फैसला करने वाला है।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने अपनी इस शैली व स्पष्ट दृष्टिकोण से अपने समय के लोगों और आने वाली पीढ़ियों को यह समझा दिया कि अत्याचारियों के समक्ष चुप नहीं बैठना चाहिये और वे लोगों के मार्ग दर्शन और शासन करने के योग्य नहीं हैं और यह कार्य योग्य लोगों के हवाले किया जाना चाहिये। जैसाकि महान ईश्वर पवित्र कुरआन के सूरे निसा की 56वीं आयत में कहता हैः ईश्वर आपको आदेश देता है कि अमानत को साहबे अमानत और उस व्यक्ति के हवाले करो जो उसकी योग्यता रखता है और जब लोगों पर शासन करो एवं उनके मध्य फैसला करो तो न्याय से फैसला करो।
यज़ीद अपने बाप की भांति सत्ता की प्राप्ति के लिए हर प्रकार की शैतानी, ग़ैर धार्मिक और अमानवीय शैली अपना रहा था परंतु इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम सत्ता के भूखे नहीं थे वह समाज में मात्र सुधार चाहते थे। वह चाहते थे कि समाज अपने अस्ली मार्ग पर लौट आये।
कुछ इतिहासकार और विश्लेषक इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और अत्याचारी यज़ीद के बीच होने वाली लड़ाई को एक एतिहासिक घटना बताना चाहते हैं और उनका कहना है कि इतिहास की बहुत सारी दूसरी घटनाओं की भांति कर्बला की घटना का भी समय बीत गया है और उसका कोई संदेश नहीं है पंरतु वास्तविकता यह है कि आशूरा या कर्बला की घटना एक महाआंदोलन है और वह पूरे इतिहास में ईरान की इस्लामी क्रांति सहित बहुत सी घटनाओं की प्रेरणा की स्रोत रही है। अतः अगर आशूरा की घटना मात्र एक एतिहासिक घटना होती तो उसे भी दूसरी बहुत सारी घटनाओं की भांति भुला दिया गया होता परंतु आशूरा की घटना को हुए लगभग 1400 साल का समय बीत रहा है और दिन प्रतिदिन इस घटना की याद विस्तृत रूप धारण करती जा रही है।
आशूरा की महान एतिहासिक घटना के संबंध में एक अन्य महत्वपूर्ण बिन्दु यह है कि कुछ लोग यह कहते हैं कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को ज्ञात था कि अगर वह यज़ीद के मुकाबले में आंदोलन करेंगे तो अवश्य मारे जायेंगे और इससे बचने के लिए उनके पास कोई विकल्प नहीं था यानी वह आंदोलन करने पर बाध्य थे तो उनके आंदोलन का महत्व कम हो जाता है क्योंकि इन लोगों के अनुसार उस आंदोलन का महत्व अधिक है जो पूर्ण स्वतंत्रता व आज़ादी के साथ हो।
इस प्रकार के संदेह के जवाब में बहुत सारे एतिहासिक नमूनों को प्रमाण के रूप में पेश किया जा सकता है। इतिहास में एसे बहुत से लोग हैं जो जानते थे कि अगर इस मार्ग में उन्होंने कदम रखा तो अवश्य मारे जायेंगे उसके बावजूद उन्होंने उस मार्ग में कदम रखा और मारे गये। इसके लिए मिस्र के अत्याचारी शासक फिरऔन के मुकाबले में जादूगरों के प्रतिरोध को उदाहरण के रूप में पेश किया जा सकता है। जब जादूगरों को ईश्वरीय दूत हज़रत मूसा की सत्यता का ज्ञान हो गया वे पूरी दृढ़ता व साहस के साथ फिरऔन के मुकाबले में डट गये तो फिरऔन ने उनसे कहा मैं अवश्य तुम लोगों का हाथ पैर काट डालूंगा और फिर तुम्हारे शरीरों को पेड़ पर लटका दूंगा उस वक्त तुम देखोगे कि हमारा दंड कैसा है इस पर जादूगरों ने कहा जो निशानियां हमारे लिए स्पष्ट रूप से आई हैं हम उनके मुकाबले में कभी भी तेरी धमकियों को प्राथमिकता नहीं देंगे तो तू जो आदेश देना चाहे दे तू केवल इस दुनिया में शासन कर रहा है। हम अपने पालनहार पर ईमान लाये ताकि वह हमारे पापों और उन जादू की कार्यवाहियों को क्षमा कर दे जो तूने हम पर थोपी है।
इस संदेह के जवाब में पवित्र कुरआन से एक अन्य नमूना पेश किया जा सकता है। वह फिरऔन की पत्नी आसिया का साहसिक प्रतिरोध है। आसिया फिरऔन को अच्छी तरह जानती थी और उसे पूरा विश्वास था कि अगर ईश्वरीय दूत हज़रत मूसा के संदेश पर वह ईमान लाती है तो फिरऔन उसकी हत्या कर देगा। उसने लेशमात्र भी फिरऔन की परवाह नहीं किया और वह हज़रत मूसा पर ईमान ले आयी और फिरऔन ने आसिया की हत्या भी कर दी। इन सबके बावजूद इतिहास में आसिया का नाम विश्व की एक भली व अच्छी महिला के रूप में अमर है और पवित्र कुरआन ने उनकी सराहना भी की है।
बहरहाल इस प्रकार के दसियों नमूने हैं जो इस बात के सूचक हैं कि जब भी ईश्वरीय मूल्यों की रक्षा में जानबूझ कर मौत को गले लगाया जाता है तो न केवल यह कि उसका महत्व कम नहीं है बल्कि वह सराहनीय और उसका महत्व बहुत अधिक है। इस आधार पर इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के सामने दो रास्ते थे एक सत्य का और दूसरे असत्य का। असत्य के रास्ते में अपमान का जीवन और सत्य के रास्ते में इज्ज़त और प्रतिष्ठित मौत। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने सत्य का रास्ता चुना और कहा मैं मौत व शहादत को कल्याण के अलावा कुछ और नहीं देखता और अत्याचारियों के साथ जीवन को अपमान और घाट के अलावा कुछ और नहीं देख रहा हूं। जब इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम सत्य व असत्य के दो राहे पर खड़े थे यानी यज़ीद की बैअत करें या शहादत को गले लगायें तो उन्होंने फरमायाः अपवित्र और अपवित्र के बेटे ने मुझसे कहा है कि मैं उसकी बैअत करूं और अपमान को स्वीकार कर लूं या मौत व शहादत के लिए तैयार हो जाऊं। जान लो कि अपमान हमसे दूर है। ईश्वरीय दूत और सच्चे मोमिन जिनकी गोद में मैं पला- बढ़ा हूं इस बात को पसंद नहीं करते कि मैं अपमान को स्वीकार कर लूं। अपमान हमारे परिवार से दूर है। अपमान हमारी पवित्र आत्माओं से दूर है।
एक अन्य स्पष्ट नमूना इस बात का सूचक है कि जानकारी और आज़ादी से होने वाली शहादत में न तो किसी प्रकार का विरोधाभ है और न ही उसका महत्व कम है। वह नमूना आशूरा की रात का है। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के समस्त वफादार साहियों को भली- भांति ज्ञात था कि सुबह में सबके सब मारे जायेंगे फिर भी उन्होंने इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का साथ नहीं छोड़ा यहां तक कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने फरमायाः मैं तुम सबसे अपनी बैअत उठा लेता हूं और तुम लोग जा सकते हो और मेरे साथ रहे तो मारे जाओगे। इस पर उनके वफादार साथियों ने सजल नेत्रों के साथ कहा कि अगर हमें 70 बार भी कत्ल किया जाये तब भी हम आपकी मदद से पीछे नहीं हटेंगे।