Jul ०७, २०१८ १४:४७ Asia/Kolkata

इस्लाम का अरब क्षेत्र में उदय हुआ जिसे हिजाज़ भी कहा जाता है।

उस समय के अरब क़बाइली हर साल मक्का जाते थे ताकि पूजा-पाठ कर सकें और काबे का दर्शन करें। इस्लाम से पहले के अरबों को कला की कोई विशेष जानकारी नहीं थी। उनकी मुख्य कला व, कविताएं लिख कर काबे की दीवारों पर लटका देते थे। इसके अलावा उस युग में एक अन्य प्रचलित कला, छागल, तंबुओं के फर्श, घोड़ों की ज़ीन और ऊंट के पालान आदि की सजावट थी ।

 

पैगम्ब़रे इस्लाम ( स) का वर्ष 570 ईसवी में मक्का में जन्म हुआ। वह बनी हाशिम परिवार और कुरैश क़बीले से थे। 40 वर्ष की आयु में उन्हें विदित रूप से पैगम्बरी का पद सौंपा गया। आरंभ में बहुत कम लोगों ने उन पर विश्वास जताया लेकिन फिर उनके उच्च संदेश, प्रभावशाली बातों और अदभुत व्यक्तित्व , कथनी व करनी में सच्चाई जैसे गुणों के कारण, इस्लाम बहुत तेज़ी से फैलने लगे। सन 621 ईसवी में पैगम्ब़रे इस्लाम (स) ने मक्का से मदीना पलायन किया और यह पलायन, इस्लामी कैलैंडर का आरंभ बिन्दु बना। पैगम्ब़रे इस्लाम ( स) ने इस्लाम के मूल सिद्धान्तों का वर्णन किया और एक ईश्वर में आस्था और अपनी पैग़म्बरी तथा प्रलय पर विश्वास को इस्लाम के मूल सिद्धान्त बताए। इस्लाम अपने पारदर्शी व प्रभावशाली सिद्धान्तों की वजह से तत्कालीन अरब जगत में बड़ी तेज़ी के साथ फैलने लगा  और फिर उसका प्रभाव, अरब जगत की सीमाओं से बाहर निकलने लगा। हिजाज़ के आस-पास के इलाक़ों में राजनीतिक सामाजिक व आर्थिक  उथल-पुथल की वजह से इन इलाक़ों के लोगों ने दिल से इसलाम का स्वागत किया। पहले इराक़ में इस्लाम फैला फिर सीरिया और मिस्र में भी इस्लाम की पताका लहरायी लेकिन ईरान में इस्लाम को समस्याओं का सामना करना पड़ा क्योंकि सासानी शासन श्रंखला ने, पतन की ओर अग्रसर होने के बावजूद, कुछ समय तक इस्लाम का मुक़ाबला किया लेकिन ईरानी समाज के विभिन्न वर्गों में दूरी और सरकार से आम जनता के असंतोष और इस्लामी सेना से सासानी सैनिकों की पराजय की वजह से अन्ततः वर्ष 22 हिजरी क़मरी में सासानी शासन श्रंखला का अंत हो गया।

 

बनी उमैया के काल में इस्लाम की विजय का क्रम जारी रहा यहां तक कि इस्लाम पश्चिम में स्पेन और एटलांटिक महासागर के तटों तक पहुंच गया और पूरब में वह चीन के दरवाज़े पर दस्तक देने लगा। कला का प्रचार हालांकि इसी काल से आरंभ हो गया था किंतु बनी उमैया के शासनों की ओर से इस्लामी शिक्षाओं और सिद्धान्तों के उल्लंघन के कारण लोग उनसे दूर होने लगे और अन्ततः इस शासन श्रंखला का भी पतन हो गया। उन के बाद बनी अब्बास शासन श्रंखला ने  ईरानियों की मदद से इस्लामी जगत की सत्ता पर क़ब्ज़ा किया और लगभग उसी काल से इस्लामी ईरानी संस्कृति व कला का आरंभ हुआ। बगदाद में ज्ञान विज्ञान और कला का महाआंदोलन आरंभ हुआ जिसमें ईरानियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही। पहलवी, हिन्दी, यूनानी और सरयानी भाषाओं की महत्वपूर्ण किताबों का अरबी में अनुवाद हुआ और प्रसिद्ध धार्मिक व वैज्ञानिक पाठशालाओं की स्थापना हुई। इस प्रकार से सासानी राजाओं के अत्याचारों से तंग आ चुके ईरानियों ने उस दिन का खुले दिल से स्वागत किया जो न्याय, समानता ज्ञान व कला से परिपूर्ण था और यहीं से ईरानी व इस्लामी सभ्यता की नींव पड़ी। बहुत से विशेषज्ञों और इतिहासकारों के अनुसार, इस्लामी कला, ईरान में विकसित हुई और इस महान सभ्यता के  कई पहलुओं को उजागर किया गया।

 

चौथी और पांचवी सदी से संबंध रखने वाले प्रसिद्ध मुसलमान दर्शनशास्त्री और इतिहासकार इब्ने खलदून ने इस संदंर्भ में लिखा हैः यह एक स्पष्ट वास्तविकता है कि अधिकांश इस्लामी बुद्धिजीवी, धर्म शास्त्र हो या तर्कशास्त्र, कुछ के अलावा लगभग सभी गैर अरब  और ईरानी थे। हदीस के ज्ञान में दक्षता रखने वाले अधिकतर विद्वान ईरानी थे।

वह आगे लिखते हैः ईरानियों के अलावा किसी ने ज्ञान को सुरक्षित करने और उसके संकलन के लिए प्रयास नहीं किये  और इस तरह से उन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम ( स) के इस कथन को सिद्ध किया कि यदि ज्ञान विज्ञान सुरैया सितारे पर भी हो तब भी फार्स के पुरुष उसे सीख लेंगे और प्राप्त कर लेंगे।

इस संदर्भ में इब्ने खलदून के कथनों पर बहुत कम लोगों अविश्वास प्रकट किया है। ईरानी सभ्यता के विकास में ईरानियों की भूमिका के व्यापक अध्ययन की ज़रूरत है। इस भूमिका का कई पहलुओं से अध्ययन किया जा सकता है। राजनीति, सत्ता, धर्म, दर्शन शास्त्र, चिकित्सा, औषधि, व्यापार, कला तथा साहित्या व भाषा जैसे क्षेत्रों में ईरानियों की भूमिका का अध्ययन करने से अधिक तथ्य सामने आंएगे किंतु हम इस कार्यक्रम में कला व शिल्पकला पर इस्लाम के प्रभाव की चर्चा कर रहे हैं।

 

हम जब किसी भी चीज़ पर इस्लाम के प्रभाव की बात करते हैं तो तो निश्चित रूप से विशेष प्रकार के मापदंडों पर ध्यान देने की ज़रूरत है। इस संदंर्भ में मापदंडों की अधिक जानकारी के लिए क़ुरआने मजीद की आयतों पर नज़र डालने की ज़रूरत है। कुरआने मजीद ने मक्का नगर को सुरक्षित नगर कहा और यह भी बताया है कि यह नगर अत्याधिक पवित्र है।  सूरए बक़रा की आयत नंबर 126  और सूरए इब्राहीम की आयत नंबर 35 में इस नगर के गुणों का वर्णन किया गया है। हालांकि इन आयतों में भवन निर्माण का उल्लेख स्पष्ट रूप से नहीं किया गया है और यह नहीं बताया गया है कि किस तरह से घर बनाना चाहिए लेकिन नगर निर्माण के लिए आवश्यक  कुछ गुणों की ओर संकेत ज़रूर किया गया है। वास्तव में कुरआने मजीद नगर निर्माण और शिल्पकला को मनुष्य की एक प्रकार की विचार धारा समझता है।

 

 

इसके बाद पैगम्बरे इस्लाम (स) की जीवन शैली का उल्लेख किये जाने की ज़रूरत है। पैगम्बरे इस्लाम ने जब यसरब नामक नगर की ओर पलायन किया तो उसका नाम मदीनतुन्नबी अर्थात पैगम्बरे इस्लाम का नगर कहा गया। मदीना में पैगम्बरे इस्लाम ने सब से पहले मस्जिद निर्माण की जगह का निर्धारण किया जो बाद में पूरे इस्लामी जगत में मस्जिद निर्माण का आदर्श बनी। यह मस्जिद जिस ज़मीन पर बनायी गयी उसे पैगम्बरे इस्लाम ने खरीद लिया था और फिर आम लोगों की मदद से वहां मस्जिद बनायी। इस जगह में इस्लामी इतिहास की बड़ी बड़ी घटनाओं के भविष्य का निर्धारण किया गया। इसी लिए मस्जिद को मुसलमानों के मध्य अत्याधिक पवित्र माना जाता है और मस्जिद को विशेष रूप में बनाया जाता है लेकिन उसकी वजह से बाहरी और भीतरी रूप से उसकी सजावट एक जैसी नहीं होती बल्कि इस्लामी क्षेत्रों में अलग अलग तरह के रूप व रंग में मस्जिदें बनायी गयीं  लेकिन इन सब का उद्देश्य एक होता है और सारी मस्जिदें मुसलमानों के पवित्र स्थल काबे की दिशा में बनायी जाती हैं।

 

प्रसिद्ध इस्लामी लेखक नजमुद्दीन बमात ने इस्लामी नगरों नामक अपनी किताब में इस्लामी दृष्टिकोण से शिल्कला व निर्माण कला के अर्थ पर कई विचारों का उल्लेख किया है। इस किताब के एक भाग में आया हैः एक मुसलमान के लिए नगर व घर का विशेष अर्थ है चाहे वह हेरात व समरक़ंद में हो या इस्फहान व तेहरान में, वह एक दिन में 5 बार अपने घर और नगर को भूल जाता है और वहां से निकल जाता है, इस दौरान में अपने मन में एक दूसरे नगर की कल्पना करता है, वह नगर, पवित्र नगर मक्का है लेकिन इस मक्का नगर में भी जो चीज़ एक मुसलमान के लिए बहुत ज़्यादा अहम है वह इस नगर में मौजूद मस्जिद है जिसे मस्जिदुल हराम या काबा कहा जाता है। मुसलमान, नमाज़ के समय उस दिशा की ओर आकृष्ट होते हैं जो पूरे विश्व के मुसलमानों का किब्ला और केन्द्र है। वास्तव में सभी मुसलमान, दुनिया के अलग अलग क्षेत्रों से इसी काबे की दिशा में नमाज़ पढ़ते हैं और इस तरह से एक एसा दायरा बन जाता है जिसके केन्द्र में काबा होता है। इसी लिए हालांकि शिल्पकला की दृष्टि से भले ही काबा एक साधारण इमारत हो लेकिन उससे इस्लामी शिक्षाएं और संदेश जुड़ा है और उसकी वजह से उसकी महानता और आध्यात्मिकता असाधारण है।

 

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