मस्जिद और उपासना- 39
आपको याद होगा कि पिछले कार्यक्रम में हमने इस बात की ओर इशारा किया कि इस्लाम में राजनीति को पवित्र गतिविधि माना गया है जिसका लक्ष्य इस्लाम के उद्देश्य की प्राप्ति और मानव समाज में ईश्वरीय आदेश पर अमल को व्यवहारिक बनाना है और इस काम के लिए मस्जिद सबसे अच्छी जगह है।
मुसलमान मस्जिद में अधिक एकता व समरस्ता के साथ एक दूसरे के पास बैठते और सब अपनी राजनैतिक सूझबूझ के विकास के लिए कोशिश करते हैं। नमाज़ों में जुमे और ईद की नमाज़ें राजनैतिक आयाम पर आधारित हैं क्योंकि इन नमाज़ों में दो भाषण दिए जाते हैं जिनमें राजनैतिक व आस्था संबंधी मुद्दो पर चर्चा होती है। नमाज़ का एक राजनैतिक आयाम इस्लामी समाज का सशक्तिकरण है। अलबत्ता जुमे और ईद की नमाज़ की तरह दैनिक नमाज़ों में भी राजनैतिक प्रतिबिंबन नज़र आता है और इनका भी इस्लामी समाज व इस्लामी शासन के सशक्तिकरण में असर पड़ता है। सामूहिक नमाज़ों से सामाजिक व राजनैतिक संगठनों के वुजूद में आने की पृष्ठिभूमि मुहैया होती है और ऐसे गुट को वजूद देते हैं जो राजनैतिक मंच पर सक्रिय होते हैं।

मस्जिद का मुसलमानों को संगठित करने, राजनैतिक सभाओं के आयोजन, लोगों में राजनैतिक चेतना को जागृत करने, उन्हें दुश्मन को पहचनवाने और उनके लक्ष्य के ख़िलाफ़ लड़ने की भावना पैदा करने में अद्वितीय रोल है। वास्तव में दुश्मन की पहचान एक राजनैतिक अनुभव है जो मस्जिद में अच्छी तरह विकसित होता है। पैग़म्बरे इस्लाम की नज़र में, दुश्मन की पहचान और उसके ख़िलाफ़ संघर्ष लोगों में बुद्धि के लक्षण हैं। पैग़म्बरे इस्लाम दुश्मन की पहचान को ज़रूरी बताते हुए फ़रमाते हैं, "जान लो कि सबसे अधिक बुद्धिमान व्यक्ति वह है जो अपने पालनहार को पहचान ले, उसके आदेश का पालन करे और अपने दुश्मन को पहचाने और उसकी अवज्ञा करे।" जैसा कि इस हदीस में आया है कि दुश्मन की पहचान और उसकी इच्छाओं की अवज्ञा लोगों में बुद्धि के लक्ष्ण हैं इसलिए जिस व्यक्ति को दुश्मन की जितनी अच्छी पहचान होगी वह उतना ही सावधानी भरा क़दम उठाएगा। हज़रत अली अलैहिस्सलाम दुश्मन की पहचान की अहमियत और उसके ख़तरे को कम आंकने के नुक़सान के बारे में फ़रमाते हैं, "दुश्मन अगर एक व्यक्ति हो, तब भी बहुत है।
ईश्वरीय मूल्यों की रक्षा और दुश्मन की साज़िशों से निपटने के लिए मस्जिद प्रतिरोध का मोर्चा है क्योंकि मस्जिद के इमाम दैनिक नमाज़ों और चाहे जुमे की नमाज़ या ईदुल फ़ित्र या ईदुल अज़्हा की नमाज़ हो, इस्लामी जगत के दुश्मनों और उनकी साज़िशों को नाकाम बनाने के मार्गों को पहचनवाते हैं। इस्लाम और इस्लामी मूल्यों के दुश्मनों का मुक़ाबला करने में मस्जिद के रोल की सबसे अहम दलील, जुमे की नमाज़ है कि इस राजनैतिक आयाम पर आधारित उपासना का दुश्मन बहुत विरोध करता है।

इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा ख़ामेनई जुमे की नमाज़ से दुश्मन की दुश्मनी के बारे में कहते हैं, "दुश्मनों ने जुमे की नमाज़ का भी विरोध किया ताकि देश में मुश्किल पैदा हो। सभी दुश्मन जुमे का इंतेज़ार करते हैं कि देखे उसमें नमाज़ के भाषण में क्या दृष्टिकोण अपनाया जाता है ताकि उसके बहाने जनमत के मन पर प्रभाव डाले। आज भी यही जारी है। अगर किसी को लगता है कि दुश्मन की नज़र राजनैतिक कार्यप्रणाली को तय करने वाले केन्द्र जुमे की नमाज़ पर नहीं है तो वह ग़लती पर है।"

सत्य और असत्य के बीच को समझना उन अहम मामलों में है जो बिना सही पहचान व जागरुकता के हासिल नहीं होता। वास्तव में विवेकी व्यक्ति ही सत्य व असत्य और सदाचार व भ्रष्टाचार की पहचान में सक्षम होते हैं और ऐसे ही लोग मौजूदा घटनाओं की समीक्षा करते हैं। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम अपने एक कथन में जुमे की नमाज़ के भाषण की ज़रूरत के बारे में फ़रमाते हैं, "इस नमाज़ के भाषण का उद्देश्य वास्तविकताओं और अच्छी व बुरी बातों का बखान करना है।" इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम इस सवाल पर कि जुमे की नमाज़ के लिए दो भाषण क्यों हैं? फ़रमाते हैं, "जुमे की नमाज़ के खुत्बे इसलिए रखे गए हैं, क्योंकि यह भाषण इमाम के लिए लोगों को ईश्वर के आदेश का पालन करने के लिए प्रेरित करने और उसकी अवज्ञा के अंजाम से डराने का माध्यम और लोगों के लोक-परलोक के हित की ओर से जागरुक बनाने का माध्यम है ताकि जो कुछ आस-पास घट रहा है और जो चिंताएं उनके लिए लाभदायक हों उनके बारे में बताए। दो भाषण का उद्देश्य यह है कि एक में ईश्वर का आभार व्यक्त हो और दूसरे में लोगों को उनकी ज़रूरतों के बारे में बताया जा, अच्छी और बुरी बातों की शिक्षा दी जाए, उनमें आशा की भावना पैदा की जाए।"
इस्लामी इतिहास में ऐसे सुबूत मौजूद हैं जिनसे राजनैतिक समीकरण में जमाअत की नमाज़ अर्थात सामूहिक रूप से पढ़ी जाने वाली नमाज़ के प्रभाव की पुष्टि होती है। इसकी स्पष्ट मिसाल मक्के की फ़त्ह के बाद मुसलमानों की मस्जिदुल हराम में भव्य सामूहिक नमाज़ का आयोजन है। इतिहास के अनुसार, इस सामूहिक नमाज़ से मुसलमानों के रोब ने अबू सुफ़ियान और उसके साथियों को हार मानने पर मजबूर कर दिया। अबू सुफ़ियान ने जब यह देखा कि पैग़म्बरे इस्लाम सबसे आगे खड़े और मुसलमान उनके पीछे नमाज़ के लिए खड़े होकर उनकी तकबीर के साथ तकबीर कहते हैं, उन्हीं के साथ झुकते और सजदे में जाते हैं, तो इस कर्म की शान उसके मन पर बैठ गयी। अबू सुफ़ियान यह देखते हुए कि मुसलमान पैग़म्बरे इस्लाम के अनुसरण में एक दूसरे से आगे रहने की कोशिश कर रहे हैं, उनके आदेश का पूर मन से पालन करते हैं, इस शासन व वैभव को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता था। इसी वजह से अबु सुफ़ियान के पास मुसलमानों के सामने अपनी हार को स्वीकार करने के सिवा कोई और चारा न था। संगीत
हमने इस बात का उल्लेख किया था कि लुत्फ़ुल्लाह मस्जिद इस्फ़हान की मशहूर मस्जिदों में और इस मस्जिद में आम मस्जिदों की तरह मीनार नहीं है। इसी तरह इस मस्जिद में प्रवेश होते समय आंगन नहीं है जो आम तौर पर मस्जिदों में दाख़िल होते ही करने है। ऐसा लगता है कि इस मस्जिद में प्रवेश करने ही आंगन न होने की वजह नक़्शे जहान मैदान में समरूपता का पालन है क्योंकि यह मस्जिद ।आली क़ापू महल के सामने स्थित है।
इस्लामी-ईरानी वास्तुकला में आम तौर पर मस्जिदें ऐसी बनती हैं कि जैसे गेट से दाख़िल होते हैं तो पहले आंगन पड़ता है और उससे होते हुए मस्जिद के मुख्य हॉल में पहुंचते हैं।
लुत्फ़ुल्लाह मस्जिद की मेहराब भी वास्तुकला का एक उत्कृष्ट नमूना है क्योंकि इसे टाइले और मोक़र्नस नामक सजावट की कला से सजाया गया है। इस मस्जिद के मेहराब के भीतर मस्जिद के वास्तुकार का नाम लिखा हुआ है।
मेहराब के आस-पास और मस्जिद के भीतर अनेक शिलालेख हैं जिन पर पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम और इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम के कथन लिपिकार अली रज़ा अब्बासी के हाथों लिखे हुए हैं। इन कथनों के साथ साथ शेर भी लिखे हुए हैं। शैख़ लुत्फ़ुल्लाह मस्जिद का गुंबद दुनिया का सबसे वृत्ताकार गुंबद है। ज़मीन की सतह से इस गुंबद के सबसे ऊंचे भाग की ऊंचाई लगभग 32 मीटर है।
इस गुंबद की एक ख़ासियत यह है कि पूरे दिन में इसका रंग बदलता रहता है। सुबह की नमाज़ के वक़्त इसका रंग भूरा लगता है, दोपहर की नमाज़ के वक़्त गुलाबी और सूरज डूबने के वक़्त स्लेटी लगता है।

इस गुंबद के भीतरी व बाहरी भाग पर टाइलों लगी हुयी है। इसे दुनिया के सबसे ख़ूबसूरत गुंबदों में गिना जाता है। यह गुंबद कई दांतेदार मेहराब के ऊपर बना हुआ है। मेहराब के ऊपर गोला बना हुआ जिसमें 16 जालीदार खिड़कियां बनी हुयी हैं। ये खिड़कियां वेन्टिलेशन की सुविधा के साथ साथ मस्जिद में आध्यात्मिक माहौल बनाने के लिए भी उपयोगी हैं।
इस गुंबद का सबसे ख़ूबसूरत भाग इसका केन्द्रीय भाग है। इस केन्द्रीय भाग में मोर की डीज़ाइन की गयी है और मस्जिद के प्रवेश द्वार के ऊपर बने ताक़ों से आने वाली रौशनी से पर नज़र आता है। मस्जिद में पशुओं का चित्र बनाना सही नहीं है लेकिन लुत्फ़ुल्लाह मस्जिद के गुंबद पर मोर का चित्र उस वक़्त नज़र आता है जब सूरब डूबता है। यह अपने आप में एक रोचक बात है।