Jul २८, २०१८ १४:२१ Asia/Kolkata

सलजूक़ी रणकौशल वाले और लड़ने में दक्ष लोग थे और ईरान के आस-पास के क्षेत्रों को उनके द्वारा जीतने का मुख्य कारण यही है।

सलजूक़ी काल के अंतिम दिनों में इस शासन के अधीन क्षेत्रों के शासकों के बीच युद्ध और प्रतिस्पर्धा और इसी तरह दासों के सत्ता में आने के कारण धीरे धीरे विभिन्न क्षेत्रों की स्थानीय सरकारों ने स्वाधीनता की घोषणा की। इन्हीं में से एक सरकार, ख़ारज़्मशाहियों की थी जिसका आधार क़ुतुबुद्दीन मुहम्मद ने रखा था। इस श्रंखला ने बारहवीं शताब्दी ईसवी से तेरहवीं शताब्दी तक शासन किया।

कहा जा सकता है कि ख़ारज़्मशाहियों का पूरा शासनकाल मतभेद, विवाद और झड़पों में बीता, यहां तक कि इन झड़पों और लड़ाइयों के चलते जनता में ख़ारज़्मशाहियों के ख़िलाफ़ नफ़रत बढ़ने लगी। इस शासन श्रंखला का अंतिम शासक सुलतान मुहम्मद ख़ारज़्मशाह एक मूर्ख व अयोग्य व्यक्ति था। मंगोलों ने, जो उस समय ईरान के पड़ोस में शासन कर रहे थे, उसकी अयोग्यता से फ़ायदा उठाया और अपने प्रतिनिधियों के मारे जाने के बहाने, ईरान पर एक पाश्विक हमला शुरू कर दिया। सुलतान मुहम्मद ख़ारज़्मशाह मंगोल सेना के मुक़ाबले में डर कर भाग खड़ा हुआ और एक दूरस्थ टापु में उसकी मृत्यु हो गई।

 

सुलतान मुहम्मद ख़ारज़्मशाह का शासनकाल, युद्धों और जीत की दृष्टि से सबसे मशहूर काल रहा है। पूरे ईरान, मेसोपोटामिया, ख़ारज़्म और तुर्कमनिस्तान व भारत के कुछ भागों पर उसका शासन था और यद्यपि वह लड़ाकू प्रवृत्ति का था लेकिन अत्यंत अक्षम व अयोग्य था। यद्यपि ख़ारज़्म, प्राचीन ईरान व रोम के अत्यधिक प्रभाव में था लेकिन वह अपनी कलात्मक संस्कृति को अस्तित्व में लाने में सफल रहा जिसकी मौलिकता, उसकी वास्तुकला की विशेषताओं में स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। रूसी खोजकर्ता एस पी टोलसटोफ़ के अध्ययनों से पता चलता है कि ख़ारज़्मशाहियों की सिंचाई और वास्तुकला की शैली सातवीं और छठी शताब्दी ईसा पूर्व में पनपी है। अलबत्ता पुरातनविदों ने अब जो खोज की है और भुगोलशास्त्रियों के लेखों से इस वास्तुकला का अधिक सटीक इतिहास सामने आता है।

ख़ारज़्मशाहियों की वास्तुकला का सबसे अहम स्वरूप दुर्ग निर्माण में सामने आया जिसका सबसे स्पष्ट उदाहरण तूपराक़ दुर्ग है जो ख़ारज़्मशाहियों का दरबार और शासकों के रहने का स्थान था। टोलस्टोफ़ ने अपनी खोजों में न केवल आवासीय स्थानों को ढूंढ निकाला बल्कि एक ऐसे शहर को भी खोजा जिसमें मूर्ति बनाने और चित्रकला के संबंध में ध्यान योग्य दस्तावेज़ भी थे। तूपराक़ दुर्ग 1380 बाइ 1910 फ़ुट की एक वृत्ताकार इमारत है और इसके चारों ओर एक चौड़ी खाई है। खाई पर बना हुआ एक पुल उसे दुर्ग की बाहरी दीवार में एक छोटे से क़िले से जोड़ता है और यही क़िला नगर में प्रवेश का द्वार है।

अलग-अलग आकारों के विभिन्न दुर्ग भी इस ऐतिहासिक इमारत की विशेषताओं में से हैं। इस दुर्ग के ऊपरी भागों से जो सिक्के मिले हैं उन पर पांचवीं और छठी शताब्दी ईसवी की तारीख़ें अंकित हैं। ख़ारज़्मशाहियों का निवास स्थान रहे तूपराक़ क़िला का मुख्य भाग अनेक कमरों के साथ दो मंज़िला इमारात पर आधारित है। बीच के कमरों को मूर्तियों व पेंटिंगों से सजाया गया है जो दरबार के ख़ास मेहमानों के लिए विशेष थे। इन मूर्तियों की अहम विशेषता इनका रंगीन होना है। कमरों के आस पास के हॉलों, गलियारों और दूसरे कमरों को भी विभिन्न प्रकार की पेंटिंगों से सजाया गया है। इन मूर्तियों में से जो कुछ बाक़ी बची हैं उनमें एक औरत की मूर्ति भी है जो फल लेकर जा रही है और दूसरी वीणा बजा रहे दो कलाकारों की है जो यूरोपीय कला से प्रभावित दिखाई देती है।

 

सातवीं शताब्दी हिजरी के आरंभ में मंगोल विध्वंसकारियों ने सुंदर व आबाद देश ईरान पर हमला किया और इस देश में लूट-मार और रक्तपात के बाद एक मूक क़ब्रिस्तान छोड़ गए। मंगोलों के हमले में बच कर निकल भागने वाले बुख़ारा के एक दरवेश से पूछा गया कि उसने क्या देखा? तो उसने कहाः वे आए, उन्होंने जलाया, उन्होंने जनसंहार किया और वे चले गए। उस दरवेश की बातों के विपरीत मंगोल ईरान से गए नहीं थे। कुछ समय बाद इन्हीं रक्त पिपासु और विध्वंसकारी मंगोलों के बच्चे अन्य हमलावरों की तरह ईरान की संस्कृति व परंपराओं के सामने नतमस्तक हो गए और उनमें से अधिकांश ने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया।

मंगोला का एक क़बीला, जिसे ईलख़ानी क़बीला कहा जाता था, ईरान के प्राचीन राजाओं की तरह गद्दी पर बैठा और उसने ताज पहन लिया। उस क़बीले ने क़बायली जीवन और तम्बुओं में रहना बंद कर दिया और अपने रहने के लिए अनेक महल बनवाए। ईलख़ानी शासनकाल में ईरान विशेष कर ख़ुरासान क्षेत्र, जो ईरानी कला व संस्कृति का पालना समझा जाता था, ऐसे कलाकारों व वास्तुकारों से ख़ाली हो चुका था जो शहरों का पुनर्निर्माण कर सकते थे। सौभाग्य से ईरान के दक्षिण व पश्चिम में मंगोलों के हमलों से बच कर भाग निकलने वाले बहुत से वास्तुकारों से ईरानी संस्कृति व कला की रक्षा की।

मंगोल क़बीले ईलख़ान के पहले शासक हलाकू ख़ान ने बग़दाद की सरकार गिरा दी। उसने मराग़े नगर को राजधानी बनाया और अपने विद्वान ईरानी मंत्री ख़ाजा नसीरुद्दीन तूसी के परामर्श पर ईरानी संस्कृति व कला को पुनर्जीवित किया। इस मार्ग में उसने कला की प्राचीन शैलियों और ईरान के दक्षिण व पश्चिम की वास्तुकला की विशेषताओं को जोड़ दिया और आज़रबाइजानी वास्तुकला के प्रभुत्व के कारण नई आज़री शैली का आधार रखा। उसने ईरान की राजधानी मराग़े से तबरेज़ और फिर वहां से ज़नजान के निकट सुलतानिये स्थानांतरित की। ये सारे शहर ईरान के पश्चिमोत्तर में और आज़रबाइजान के क्षेत्र में स्थित हैं। थोड़े ही समय में नवनिर्मित शहर सुलतानिये वैभव और चहल पहल की दृष्टि से उस समय के सबसे अच्छे शहरों में से एक हो गया लेकिन चूंकि प्राकृतिक दृष्टि से उसकी स्थिति उचित नहीं थी इस लिए जितनी तेज़ी से वह बसा था उतनी ही तेज़ी से उजड़ भी गया। ईलख़ानी शासनकाल में इस बात की बड़ी कोशिश की गई कि मंगोलों के हमले में तबाह होने वाले क्षेत्रों को पुनः बसाया जाए। धीरे धीरे अधिकतर शहरों में खंडहरों पर सुंदर मस्जिदों, मदरसों और सरायों का निर्माण किया गया।

 

अब्बास इक़बाल जैसे कुछ इतिहासकारों और खोजकर्ताओं का कहना है कि ईरान व चीन के आपसी संबंध, जो अतीत में बड़े सीमित थे, ईलख़ानी काल में चरम पर पहुंच गए। इन संबंधों ने ईरान की कला के सभी क्षेत्रों विशेष कर वास्तुकला पर प्रभाव डाला। चीनी इमारतों के डिज़ाइन की नक़ल, टाइलों के काम में हलके नीले रंग और गुंबदों में गहरे नीले रंग का इस्तेमाल और मंगोली तम्बुओं के समान कुछ इमारतों और मीनारों का निर्माण इसके उदाहरण हैं।

इतिहास के इस काल में इमारतों की बाहरी दीवार को कच्ची या पक्की ईंट और पत्थरों से तैयार किया जाता था जबकि अंदर की दीवारों पर चूने का काम होता है। धीरे धीरे अधिकतर इमारतों में साधारण ईंटों के बजाए रंगीन ईटों और चमकदार टाइलों का प्रयोग होने लगा। ईंट और टाइलों को मिला कर इस्तेमाल करने का प्रचलन बढ़ता गया और चूने पर पेंटिंग के काम में व्यापकता आती गई। इस काल की वास्तुकला की एक विशेषता इमारतों की डिज़ाइनिंग और निर्माण में ज्योमिति का अधिक से अधिक प्रयोग है। इस शैली में डिज़ाइनों की विविधता अन्य कालों की तुलना में सबसे अधिक है। इसी तरह इस शैली में इमारतें काफ़ी बड़े आकार में बनाई गईं जो पहले की तुलना में बेजोड़ हैं। इन इमारतों में गुंबदे सुलतानिए या तबरेज़ की अलीशाह मस्जिद शामिल है।

आज़री वास्तुकला की शैली दो कालखंडों पर आधारित है। पहला काल आज़रबाइजान में हलाकू ख़ान और उसके उत्तराधिकारियों के ज़माने में मराग़े के राजधानी बनने का है जबकि दूसरा काल तैमूर के ज़माने से शुरू होता है जब समरक़ंद को राजधानी बनाया गया। इतिहास के इस कालखंड में कुछ ख़ास विशेषताएं हैं जिन्होंने उस समय की वास्तुकला पर प्रभाव डाला। उदाहरण स्वरूप तेज़ गति से निर्माण और मज़दूरों की संख्या अधिक होने के कारण कुछ इमारतों के निर्माण में समस्याएं आईं और उनमें वास्तुकला की त्रुटियां पैदा हुईं। इस काल में कुछ शासक, रास्तों में परिवर्तन कर दिया करते थे जिसके चलते कुछ शहर उजड़ जाते थे और कुछ में चहल पहल बढ़ जाती थी।

 

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