Aug ०४, २०१८ १४:२५ Asia/Kolkata

हमने उल्लेख किया था कि आज़रबाइजान क्षेत्र की वास्तुकला ईरानी वास्तुकला में पहले नम्बर पर है।

इसलिए कि पार्सी, आज़री और इस्फ़हानी वास्तुकलाओं ने एक प्रकार से इसी इलाक़े में जन्म लिया है। आर्यन समुदायों ने ईरान का रुख़ किया और आज़रबाइजान पहुंचे तो उन्होंने वहां स्तंभ वाले हॉल देखे जिन्हें लकड़ी से बनाया गया था। इन सुन्दर महलों में तहख़ाने भी बने हुए थे। जब उन्होंने नए देश को अपना आशियाना बना लिया तो इमारतों के निर्माण में आज़री शैली को अपनाया। इस शैली को हख़ामनेशी काल के महलों के निर्माण में प्रयोग किया गया।

वास्तुकला के इतिहास पर नज़र डालने से पता चलता है कि इस्फ़हानी वास्तुकला भी आज़री वास्तुकला से प्रभावित है। सफ़वी काल में सफ़वी शासकों ने आज़रबाइजान के बुनाब और मराग़े शहरों में प्रचलित वास्तुकला में लकड़ी और स्तंभ के प्रयोग का अनुसरण किया था। इस शैली के बारे में हम अगली कड़ियों में चर्चा करेंगे।

आज़री शैली के नाम से जो शैली प्रसिद्ध हुई, उसमें आज़रबाइजान के वास्तुकारों की कला की पूर्ण झलक देखी जा सकती है। इसी की एक झलक दो दीवारों वाले गुंबदों में देखी जा सकती है, जो उस काल में काफ़ी प्रचलित थे।

फ़्लोरेंस की वास्तुकला यूनिवर्सिटी के पूर्व प्रमुख प्रोफ़ेसर पी. सानपाओलेसि ने वर्षों ईरानी और इतालवी इमारतों में गुंबद के निर्माण पर अध्यन किया है और इतालवी वास्तुकला पर सुल्तानिया वास्तुकला के प्रभाव पर एक किताब लिखी है। उनका मानना है कि सैंटा मारिया डेल फ़ियोरा के चर्च का गुंबद, ज़ंजान शहर के सुल्तानिया गुंबद की शैली पर बना हुआ है। ईरानी कठिन प्रयास करते थे और उनमें भरपूर क्षमताएं पाई जाती थीं, जिन्होंने अन्य देशों को साहित्य और वास्तुकला का निर्यात किया। उसका एक उदाहरण दो परतों वाला गुंबद है, जो ईंटों से बना हुआ है और उसके निर्माण में किसी ढांचे का प्रयोग नहीं किया गया है। सौ साल बाद सुल्तानिया शहर से हज़ारों किलोमीटर की यात्रा करके यह शैली इटली के सैंटा मालिया डेल फ़ियोरा के चर्च तक पहुंची। इस प्रकार कला के आदान-प्रदान में एक महत्वपूर्ण घटना घटी।

वे आगे लिखते हैं कि इस चर्च से पहले इटली में कहीं भी इस तरह की इमारत नहीं थी, इसलिए वास्तुकला की यह शैली ईरान से ली गई थी। यहां यह सवाल उठता है कि सुल्तानिया गुंबद की क्या विशेषताएं हैं?

सुल्तानिया इमारत एक अष्ठ कोणीय इमारत है। जिसका भीतरी व्यास 26 मीटर है। इस इमारत के ऊपर एक गुंबद है। गुंबद की नोक ज़मीन से 54 मीटर ऊंची है। उसके भीतरी भाग में ईंटे व टाइलें लगी हुई हैं। इस वास्तुकला की सबसे आश्चर्यचकित करने वाली विशेषता, ताज या वह दायरा है, जिसमें आठ छोटी मीनारों ने बाहर से गुंबद का घेराव किया हुआ है। सुल्तानिया में 8 हॉल और 50 कमरे हैं। धार्मिक समारोहों में पुरुष ऊपर के फ़्लोर पर औऱ महिलाएं ग्राउंड फ़्लोर में एकत्रित होती थीं।

सुल्तानिया इमारत को सन् 1313 में एलख़ानी राजा अल-जायतू के आदेश से अली साह नामक वास्तुकार ने बनाया था, जिसका उद्घाटन दरबार के समस्त अधिकारियों की उपस्थिति में किया गया था। कुछ स्रोतों के मुताबिक़, जायतू मुसलमान हो गया था और वह धार्मिक हस्तियों की क़ब्रों को इस स्थान में स्थानांतरित करना चाहता था। लेकिन जब वह इस काम में सफल नहीं हुआ तो उसने आदेश दिया कि उसकी मौत के बाद उसे यहां दफ़्न किया जाए। लेकिन इस स्थल की लम्बे समय तक आबाद रहने की आकांक्षा पूरी नहीं हो सकी। अल-जायतू की मौत के बाद, सुल्तानिया के अधिकांश निवासी कि जिन्हें वहां बसने के लिए बाध्य किया गया था, वहां से चले गए, जिसके कारण यह शहर उजड़ गया। आज केवल सुल्तानिया इमारत और उसके आस-पास कुछ घर वहां बाक़ी हैं। इस शहर से खुदाई में प्राचीन वस्तुएं प्राप्त हुई हैं। ज़ंजान शहर वहां से 30 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है और वह सुल्तानिया शहर से कई शताब्दी पहले आबाद हुआ था और आज भी आबाद है।

1381 से 1392 के बीच तैमूर के व्यापक हमलों के कारण, ख़ुरासान, फ़ार्स और केन्द्रीय एवं उत्तरी ईरान के इलाक़े ख़ून में डूब गए। तैमूरियों ने 100 साल ईरान पर राज किया। ईरान पर क़ब्ज़ा करने के बाद, तैमूर ने कलाकारों को सपरिवार अपनी राजधानी ट्रैंसोक्सियाना स्थानांतरित कर दिया।  उसके बाद उसके बेटों ने भी ऐसा ही किया। ईरान की राजधानी हेरात स्थानांतरित कर दी गई और यह शहर विभिन्न कलाओं एवं वास्तुकला का केन्द्र बन गया। इतिहास में है कि तैमूर की कला की सिफ़ारिश भयभीत करने वाली होती थी। उदाहरण स्वरूप, उसके आदेश के मुताबिक़, समरक़ंद में बनाई गई मस्जिद का जब उसने दौरा किया तो प्रवेश द्वार को छोटा देखकर वह क्रोधित हो गया और उसने मस्जिद की इमारत को गिरवा दिया और उसका निर्माण करने वाले को क़त्ल कर दिया, उसके बाद केवल एक हफ़्ते के दौरान उस इमारत का दोबारा निर्माण किया गया। इस डरावने वातावरण में कलाकारों ने मूल्यवान कलाओं को जन्म दिया।

इस काल की सबसे प्राचीन इमारतों का निर्माण मध्य एशिया और तुर्किस्तान एवं समरक़ंद व बुख़ारा शहरों में किया गया। इसी प्रकार, तैमूरी काल में बल्ख़, हेरात और मज़ारे शरीफ़ में भी महत्वपूर्ण इमारतों का निर्माण किया गया, जिससे ईरानी वास्तुकारों की दक्षता का पता चलता है। इन वास्तुकारों का ध्यान धार्मिक इमारतों के निर्माण पर अधिक था। यज़्द की जामा मस्जिद में भी ऐसी मेहराब है कि जिसका निर्माण सन् 1375 में किया गया था। इस इमारत को रंगीन टाइलों से डेकोरेट किया गया है और यह पहली ऐसी इमारत है कि जो तैमूरी काल के प्रारम्भ से अभी तक बाक़ी है।

इस काल की मस्जिदों को सल्जूक़ी मस्जिदों की शैली में बनाया गया है। एक आयताकार रूपी आंगन, चार हॉल और एक दालान जिसके ऊपर गुंबद बना होता था। असली हॉल और इमारत के चार कोनों पर मिनारें बनी हुई हैं। इस काल में विश्राम के लिए अनेक इमारतें बनाई गई थीं। इन इमारतों में एक स्क्वायर रूपी कमरा और उसके ऊपर गुंबद बनाया जाता था, अधिकांश गुंबद प्याज़ के रूप में होते थे। इन इमारतों को सजाने के लिए उन पर वनस्पतियों एवं इंसानों के चित्र बनाए जाते थे, जो प्राचीन काल की कला की भांति होते थे। फ़ीनक्स, बादल, कमल और तरह तरह के फूलों के चित्र इन इमारतों पर बनाए जाते थे। इसके अलावा, क़ुरानी आयतें, ईश्वर और पैग़म्बरे इस्लाम के नाम भी विभिन्न शैलियों में लिखे जाते थे।

तैमूर का मक़बरा सन् 1404 में मीर की क़ब्र के नाम से बनाया गया। यह समरक़ंद के पुराने क़ब्रिस्तान में स्थित है। यह इमारत भीतर से स्क्वायर है और बाहर से अष्ट कोणीय है, उसके ऊपर दो परतों वाला गुंबद है। इस गुंबद को बाहर से 64 खांचों में बांटा गया है। इस इमारत की ऊंचाई 32 मीटर है और ज्यामितीय चित्रों एवं रंगीन टाइलों से डेकोरेट किया गया है। अरबी और फ़ार्सी शिलालेख मक़बरे की दीवारों पर देखे जा सकते हैं। उसके बाद मध्य एशिया के दूसरे शहरों जैसे कि समरक़ंद और बुख़ारा में शासकों के मक़बरे इस शैली पर बनाए गए।