Aug ०८, २०१८ १२:११ Asia/Kolkata

हमने यह बताया कि मस्जिद की एक उपयोगिता राजनैतिक जागरुकता पैदा करना है इसी वजह से इस्लामी जगत में मस्जिद के रोल को कमज़ोर करने, बदलने और उसे गिराने की हमेशा कोशिश की गयी।

अलबत्ता इस्लामी समाज में मस्जिद के रोल को कमज़ोर करने का इतिहास बहुत पुराना है। हज़रत अली अलैहिस्सलाम की शहादत के बाद बनी उमय्या शासकों ने मस्जिद का, जो मोमिन बंदों के इकट्ठा होने और लोगों से सीधे संबंध बनाने का केन्द्र है, बहुत दुरुपयोग किया। मोआविया बिन अबू सुफ़ियान जो पहला बनू उमय्या शासक था, ख़ुद को पैग़म्बरे इस्लाम का उत्तराधिकारी कहता और जुमे की नमाज़ और दैनिक नमाज़ की इमामत के लिए सबसे योग्य समझता था। वह पैग़म्बरे इस्लाम के मिंबर से भाषण देता और सत्याभासी कुतर्कों से धार्मिक शिक्षाओं को अपने शासन के अत्याचारों का औचित्य पेश करता। बाद के इस्लामी जगत के शासकों और राजाओं ने भी मस्जिद की उपयोगिता के इस आयाम को मज़बूत किया ताकि इस तरह अपनी सत्ता के आधार को मज़बूत करें।

आज भी इस्लामी जगत के कुछ शासक मस्जिद को अपनी स्थिति को मज़बूत बनाने के लिए इस्तेमाल करते हैं। कुछ इस्लामी देशों के धर्म विरोधी शासक जो धर्म को सामाजिक मंच से हटाने की कोशिश करते हैं, लेकिन इंसान की धार्मिक प्रवृत्ति के कारण इसमें बहुत ज़्यादा सफल नहीं हुए, मस्जिद को नियंत्रित करते हैं। वे इस बात की कोशिश करते हैं कि मस्जिद में उपासना पर ध्यान दिया जाए और कुछ नहीं। इसलिए वे मस्जिद में सामूहिक रूप से नमाज़ के आयोजन को काफ़ी समझते हैं और हुकूमत मस्जिद में किसी भी तरह की सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनैतिक गतिविधियां नहीं होने देती। मिसाल के तौर पर ताजिकिस्तान की सरकार जहां की 98 फ़ीसद जनता मुसलमान है, धर्म को राजनीति से अलग करना चाहती है। इसलिए उसने बड़ी संख्या में मस्जिदों को पंजीकृत न होने के बहाने बंद कर दिया, कुछ मस्जिदों को बुनाई के कारख़ानों, छोटे बच्चों के स्कूलों, चाय के होटलों और दवाख़ानों में बदल दिया है। ताजिकिस्तान में 18 साल से कम उम्र के लोगों को मस्जिद में नमाज़ पढ़ने की इजाज़त नहीं है।

एक और मिसाल तुर्की है। आज तुर्की का इस्तांबोल शहर, जहां धर्म विरोधी शासकों ने लगभग एक शताब्दी तक इस्लाम को ख़त्म करने की कोशिश की, पांच वक़्त अज़ान की आवाज़ से गूंजता है और बड़ी संख्या में नमाज़ी मस्जिद जाते हैं। रोचक बात यह है कि इथोपिया जैसे अविकसित देश में अज़ान के वक़्त और ख़ास तौर पर पवित्र रमज़ान में मस्जिदों में इतनी भीड़ होती है कि लोग लाइनों में इंतेज़ार में खड़े रहते हैं कि पहले वाले गुट की नमाज़ ख़त्म हो तब दूसरा गुट पढ़े यहां तक कि कभी कभी चार बार यह क्रम दोहराया जाता है। ये सब इस हालत में है कि शासकों ने मस्जिद के रोल को कमज़ोर करने के लिए हर तरह का दुष्प्रचार किया। लेकिन मस्जिद को नष्ट करने और उसके रोल को कमज़ोर करने की इतनी कोशिशों के बावजूद, मस्जिद आज भी मुसलमानों के बीच एकता का केन्द्र बनी हुयी है। सामूहिक रूप से नमाज़ के आयोजन से मस्जिद में इस समन्वय व एकता का भलिभांति चित्रण होता है। मस्जिद में सामूहिक रूप से नमाज़ का आयोजन एकता का अद्भुत नज़ारा पेश करता है। सब एक दूसरे से कांधे से कांधा मिलाए क़िबले की ओर मुंह किए अनन्य ईश्वर का गुणगान करते हैं।                                

कार्यक्रम के इस भाग में इस्लामी जगत की मस्जिदों के परिचय के क्रम में तुर्की की अयासोफ़िया मस्जिद के बारे में आपको बताने जा रहे हैं।  इस मस्जिद की इमारत पहले गिरजाघर थी जिसका निर्माण चौथी ईसवी शताब्दी में सम्राट कॉन्सटनटीन द्वितीय ने अपने पिता कॉन्सटनटीन प्रथम की जीत की ख़ुशी में कराया था। यह इमारत शुरु में विशाल गिरजाघर के नाम से मशहूर थी और बाद में इसका नाम बदल कर सियासोफ़िया रख दिया गया। पांचवी ईसवी शताब्दी तक लोग इसे सोफ़िया कहते थे। वर्ष 404 ईसवी में क़ुस्तुनतुनिया या वर्तमान इस्तांबोल में फैली अराजकता के कारण इस गिरजाघर का एक भाग जल गया। यहां तक कि छठी ईसवी में इसकी फिर से मरम्मत हुयी। पंद्रहवीं ईसवी शताब्दी में मुसलमानों और यूनानी साम्राज्य के बीच कई साल तक चली जंग के बाद कि जिसका नेतृत्व सुल्तान मोहम्मद फ़ातेह ने किया था, उस्मानी राजा विजयी हुआ और उसने क़ुस्तुनतुनिया को फ़त्ह किया। इस तरह क़ुस्तुनतुनिया उस्मानी शासन का जिसे उस्मानी ख़िलाफ़त कहा जाता है, केन्द्र बना और हाजिया सोफ़िया गिरजाघर बदल कर अयासोफ़िया मस्जिद बन गयी। अयासोफ़िया मस्जिद की स्थिति शुरु में बहुत अच्छी नहीं थी। इसके कुछ द्वार गिरे हुए थे। इस वजह से तत्कालीन शासक मोहम्मद द्वितीय ने मस्जिद के निर्माण का आदेश दिया और इस मस्जिद में 4 मिनार अलग से जोड़े गए। सोलहवीं ईसवी में शासक सलीम द्वितीय के शासन काल में मस्जिद को मज़बूत करने के लिए, मशहूर वास्तुकार मेमार सेनान की निगरानी में मस्जिद की इमारत के बाहर निर्माण कार्य कराया गया। वह ऐतिहासिक दृष्टि से पहला वास्तुकार है जिसने मस्जिद को भूकंप के विनाश से बचाने के लिए नक़्शा पेश किया। इमारत को भूकंप के ख़िलाफ़ मज़बूत बनाने के लिए सेनान ने इमारत के पश्चिमी छोर पर 2 और मिनारें बनायीं और वर्ष 1577 में मस्जिद के दक्षिण-पूर्वी छोर पर शासक सलीम द्वितीय का मक़बरा बनवाया।

इस मस्जिद में उस समय जो चीज़ें और शामिल की गयीं उनमें शासक के बैठने की जगह, संगे मरमर का मिंबर, शासक का विशेष सिंहासन और अज़ान देने वाले के लिए छतदार एवान शामिल हैं। वर्ष 1739 में तत्कालीन शासक महमूद प्रथम ने मस्जिद के पुनर्निर्माण का आदेश दिया। इसके बाद इस मस्जिद के परिसर में एक मदरसे की इमारत जोड़ी गयी जो अब लाइब्रेरी का रूप अख़्तियार कर चुका है और इसमें 3 लाख किताबे हैं। इसके अलावा इस मस्जिद के परिसर में एक बावर्चीख़ाना भी बनाया गया जहां खाना पकवाकर वंचितों को बांटा जाता था।

अयासोफ़िया मस्जिद में सबसे बड़ा मरम्मत का काम 1847 और 1849 में हुआ। इस मरम्मत के काम में 800 मज़दूरों की मदद ली गयी। इस दौरान बड़ी बहुत बड़ी तख़्तियां खंबों से लटकायी गयीं। इन तख़्तियों पर अल्लाह, मोहम्मद, अबू बक्र, उमर, उस्मान, अली, हसन और हुसैन के नाम लिखे हुए थे।

अयासोफ़िया मस्जिद का क्षेत्रफल लगभग 6000 वर्ग मीटर है। इस मस्जिद की इमारत के निर्माण के दौरान मस्जिद के ताक़ों और खंबों के निर्माण में बड़ी बारीकी को मद्देनज़र रखा गया है ताकि दोनों के बीच समन्वय क़ायम रहे। 4 बड़े खंबों पर 4 ताक़ बने हैं और उन पर मुख्य गुंबद टिका है। इस इमारत में 107 खंबे और 9 द्वार हैं। सबसे बड़ा द्वार बीच में है। ये द्वार धांतु और मरमर के चौखटे का है जिसे सम्राट के प्रवेश के लिए बनाया गया था।

गुंबद के नीचे 40 खिड़कियां हैं जहां से सूरज की रौशनी दाख़िल होती है। इमारत के भीतर हुयी पच्चीकारी पर सूरज की रौशनी की चमक से बहुत आध्यात्मिक वातावरण पैदा होता है जिसे देखकर पर्यटक देखते रह जाते हैं। इतिहासकारों का कहना है कि जिस समय अयासोफ़िया मस्जिद के निर्माण का काम ख़त्म हुआ, तत्कालीन सम्राट जेस्टिनिन ने कहाः "सुलैमान मैं तुमसे आगे निकल गया।"

अयासोफ़िया मस्जिद के भीतर सजावट और पच्चीकारी का काम बहुत ही सुंदर है। बहुत से पुराने स्रोतों में इस मस्जिद की सजावट की बहुत तारीफ़ की गयी है। इस मस्जिद की सजावट का सबसे सुदंर भाग यूनानी साम्राज्य के दौर में इस मस्जिद में किया गया पच्चीकारी या मुज़ैइक के काम से सुशोभित है। मस्जिद के आधे गुंबदों की भीतरी सतह, दीवारों, ताक़ों, बरामदे और शासक के प्रवेश के लिए बने विशेष द्वार पर पच्चीकारी का काम हैरत में डालने वाला है। अलबत्ता मस्जिद में हुए अनेक बार मरम्मत के काम की वजह से अयासोफ़िया मस्जिद में पच्चीकारी के काम का कुछ भाग नष्ट हो चुका है। इस मस्जिद के गुंबद की भीतरी सतह पर 14वीं ईसवी शताब्दी में हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम की बनी तस्वीर भी पच्चीकारी का अद्भुत नमूना था। यह तस्वीर 17वीं ईसवी शताब्दी तक मौजूद थी, लेकिन शासक सुल्तान अब्दुल मजीद के दौर में पवित्र क़ुरआन की आयतों से इसे छिपा दिया गया।        

इस विशाल मस्जिद को 1935 में तुर्क राष्ट्रपति मुस्तफ़ा अतातुर्क के आदेश पर म्यूज़ियम बना दिया गया और मस्जिद में पैग़म्बरे इस्लाम, ख़ुलाफ़ाए राशेदीन और इमाम हसन और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के नाम वाली तख़्तियों को नीचे उतार दिया गया ताकि यह मस्जिद आध्यात्मिक वातावरण के बजाए म्यूज़ियम का दृष्य पेश करे लेकिन जब हुकूमत ने इन नामों की तख़्तियों को दूसरी मस्जिदों में इस्तेमाल के लिए बाहर ले जाने की कोशिश की तो इसके बड़े आकार की वजह से इसे बाहर न ले जा सके क्योंकि अयासोफ़िया मस्जिद का कोई भी द्वार इतना बड़ा न था कि ये तख़्तियां बाहर निकाली जा सकें। इसी वजह से इन तख़्तियों को एक किनारे रख दिया गया, लेकिन 1949 में इन तख़्तियों को दूसरी बार अयासोफ़िया की दीवारों पर लटकाया गया।

अलबत्ता इस पवित्र स्थल में एक समय तक उपासना मना थी यहां तक कि 2006 में तुर्क सरकार ने मुसलमानों और ईसाइयों की उपासना के लिए एक छोटा कमरा विशेष किया। वर्ष 2013 से इस मस्जिद के मिनारों से दिन में दो बार अज़ान दी जाती है।