पश्चिम में इस्लामोफ़ोबिया
ब्रिटेन वह देश है जहां एक वर्ष में 200 दिन सूरज नहीं दिखाई देता है।
ब्रिटेन वह देश है जहां एक वर्ष में 200 दिन सूरज नहीं दिखाई देता है यानी वहां अधिकांश बादल छाया रहता है। आजकल वह अधिक अंधकार का अनुभव कर रहा है।
इस्लामोफोबिया के बहाने मानवीय और नैतिक मूल्य दिन -प्रतिदिन अंधकारमय होते जा रहे हैं। ब्रिटेन में मुसलमानों की जनसंख्या तीस लाख से अधिक है और इस्लाम इस देश में दूसरा धर्म है। इनमें से आधे मुसलमान शताब्दियों से ब्रिटेन में रह रहे हैं जबकि आधे दूसरे देशों के पलायनकर्ता हैं। ब्रिटेन में रहने वाले मुसलमानों को इस समय असुरक्षा सहित विभिन्न प्रकार की कठिनाइयों व समस्याओं का सामना है।
TELL MAMA ब्रिटेन की एक ग़ैर सरकारी संस्था है और वह इस देश में इस्लामोफोबिया से संबंधित अपराधों को पंजीकृत करती है। इस संस्था ने अभी हाल ही में अपनी रिपोर्ट में कहा था कि पिछले एक वर्ष में मुसलमानों के विरुद्ध घृणा में 70 प्रतिशत वृद्धि हुई है।
इसी प्रकार इस नागरिक संस्था ने बताया है कि जिन अपराधों को पंजीकृत किया गया है उनमें से 60 प्रतिशत का निशाना हिजाब करने वाली महिलाएं बनी। यह आंकड़ा ऐसी स्थिति में पेश किया जा रहा है कि जब विशेषज्ञों का मानना है कि पुलिस और न्यायिक तंत्र पर भरोसा न होने के कारण इस्लामोफोबिया की भेंट चढ़ने वाले आधे लोग इन हमलों की शिकायत ही दर्ज नहीं कराते। इसी प्रकार ब्रिटेन में टेलीफोन सहायता केन्द्र की रिपोर्ट, बस स्टाप और मैट्रो जैसे सार्वजनिक स्थलों, नगरों और मस्जिदों में मुसलमानों के विरुद्ध मार- पीट और अपशब्द की सूचक है और इन लड़ाइयों में भेंट चढ़ने वाले पुलिस और अन्य संबंधित संस्थाओं से संपर्क करते हैं।
लंदन में इस्लामी मानवाधिकार आयोग ने भी ब्रिटेन में रहने वाले इस्लामी समाज की परिस्थिति के बारे में रिपोर्ट प्रकाशित की है जो इस बात की सूचक है कि इस समय इस्लामोफोबिया मुसलमानों के विरुद्ध घृणा फैलाने का बहाना बन गयी है। इस आयोग की रिपोर्ट में आया है कि ब्रिटेन में रहने वाले बहुत से मुसलमानों का जनमत सर्वेक्षण किया गया और उसके परिणाम इस बात के सूचक हैं कि वर्ष 2010 की तुलना में इस समय इस्लामोफोबिया की स्थिति बहुत ख़राब हो गयी है और वह इस्लामी समाज के विरुद्ध जातीय भेदभाव फैलाने का माध्यम बन गया है।
इस सर्वेक्षण के परिणाम इस बात के सूचक हैं कि वर्ष 2010 में जिन मुसलमानों पर घिसे- पीटे आरोप लगाये गये उनकी संख्या 10 प्रतिशत थी पर इस संख्या में वर्ष 2015 में लगभग 40 प्रतिशत की वृद्धि हो गयी। इसी प्रकार जो लोग इस्लामी क़ानूनों व शिक्षाओं के पालन को अपना दायित्व समझते हैं और स्वयं को उसके प्रति कटिबद्ध समझते हैं उनका मानना है कि ब्रिटेन के राजनेता इस्लाम धर्म को समस्या भानते हैं।
लंदन में इस्लामी मानवाधिकार आयोग की हालिया रिपोर्ट में आया है कि जिन लोगों से पूछताछ की गयी है उनमें से 66 प्रतिशत लोगों ने दावा किया है कि उन पर शाब्दिक हमले किये गये। इस रिपोर्ट में आया है कि जिन लोगों ने इस सर्वेक्षण में भाग लिया उनमें से 58 प्रतिशत लोगों ने कहा है कि किसी प्रकार के प्रमाण के बिना ही ब्रिटेन के सुरक्षा तंत्र ने उन पर संदेह किया और इसी प्रकार सर्वेक्षण में भाग लेने वाले 87 प्रतिशत लोगों का मानना है कि जो लोग मुसलमानों के विरुद्ध भेदभावपूर्ण व्यवहार करते हैं वे संचार माध्यमों से प्रभावित होकर ऐसा करते हैं।
लंदन में इस्लामी मानवाधिकार आयोग ने अपनी हालिया रिपोर्ट में इस्लामोफोबिया को मुसलमानों में घृणा फैलाने का माध्यम बताया है। क्योंकि जो चीज़ें इस शोध के परिणाम में सामने आई हैं वे इस बात की सूचक हैं कि ब्रितानी समाज मुसलमानों के विरुद्ध घृणा से भरा है और यह घृणा मुसलमानों के व्यवहार के कारण नहीं है बल्कि यह उस परिस्थिति के कारण है जो इस देश के संचार माध्यमों और राजनेताओं के क्रिया- कलापों से अस्तित्व में आई है।
पेरिस में होने वाले आतंकवादी हमलों के बाद पश्चिमी विशेषकर ब्रिटेन के मुसलमानों के लिए जीवन कठिन हो गया है और बर्सल्ज़ आतंकी हमलों के बाद हालात और ख़राब होने की आशंका है। आतंकवाद की सबसे अधिक भेंट मुसलमान चढ़े हैं। उदाहरण के तौर पर फिलिस्तीनियों के विरुद्ध जायोनी शासन का सरकारी आतंकवाद, यमनी जनता के विरुद्ध सऊदी अरब और उसके घटकों का सरकारी आतंकवाद और इस्लामी देशों में दाइश का तकफीरी आतंकवाद। आतंकवाद के इन समस्त स्वरूपों को अमेरिका और पश्चिम का व्यापक समर्थन प्राप्त है और इन सबमें भेंट चढ़ने वाले को ही लगभग सभी मुसलमान हैं परंतु खेद के साथ कहना पड़ता है कि पश्चिमी संचार माध्यमों एवं सरकारों ने भेंट चढ़ने वालों को भेंट चढ़ाने का ज़िम्मेदार बताया। परिणाम यह हुआ कि अब इस्लामी समाज पर आतंकवाद का आरोप मढ़ा जाता है और वह घृणा से भरे वातावरण का साक्षी बने हुए हैं जबकि स्वयं लाखों मुसलमान आतंकवाद की भेंट चढ़ चुके हैं।
ब्रिटेन की एक मुसलमान महिला गार्डियन समाचार पत्र के साथ साक्षात्कार में कहती है” मैं एक पश्चिमी महिला और पूरी तरह स्वतंत्र हूं। मैं ब्रिटेन की एक नागरिक हूं। इसी प्रकार एक मुसलमान हूं। इन दोनों चीज़ों में कोई विरोधाभास नहीं है। मेरे अंदर समस्त वह बातें पायी जाती हैं जो मैंने कही परंतु पेरिस हमले जैसी घटनाएं इस तस्वीर को दूसरा रंग देती हैं। जो कुछ मैं सोचती थी उससे ज़्यादा मेरी ज़िन्दगी प्रभावित हो गयी है।
मैं सोचती हूं कि इस कहानी को अपने सीने में लिए रहूं और जिस हालत में हूं उसकी शिकायत भी न करूं परंतु मैं कहना चाहती हूं कि जब मैं सार्वजनिक स्थलों पर होती हूं तो ऐसा लगता है जैसे लोग मुझे नहीं देख रहे हैं केवल मेरे स्कार्फ को देख रहे हैं। जब लोग मेरे पास से गुज़रते हैं तो बड़े ध्यान और क्रोध से मुझे देखते हैं। इसका मेरे निकट कोई महत्व नहीं है किन्तु यह कि एक मुसलमान होने के नाते हर स्थान से दुत्कार दिया जाता है इसके बारे में अच्छा आभास नहीं रखती हूं। जैसे कि मैं पापी हूं। मैं यह आभास नहीं करना चाहती कि एक भेंट चढ़ने वाली या भेंट चढ़ाने वाली हूं। जिन निर्दोष लोगों की हत्या कर दी गयी है मैं भी उनके लिए आंसू बहाना चाहती हूं।
लंदन की रहने वाली 27 वर्षीय SHERMA भी कहती है मैं यह देखकर थक गयी हूं कि मुसलमान मांफी मांग रहे हैं। मैंने कोई ग़लत कार्य नहीं किया है। हम भी पहले से अधिक ख़तरे में हैं मैं एक शीया मुसलमान हूं दाइश भी हमारी हत्या करने के लिए हमारे पीछे है।“
ब्रिटेन में रहने वाले मुसलमान उसी नगर और उसी मोहल्ले में रह रहे हैं जहां पहले रहते थे। उनकी जीवन शैली और मूल्यों में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है परंतु उनके विरुद्ध दिन- प्रतिदिन घृणा में वृद्धि हो रही है। क्यों सार्वजनिक रूप से इस्लाम के विरुद्ध घृणा में गति आ गयी है जबकि ब्रिटेन में रहने वाले 30 लाख मुसलमान कार्य स्थल, स्कूल, कालेज और सार्वजनिक स्थलों आदि पर दूसरों के साथ शांतिपूर्ण ढंग से रह रहे हैं। उन अपराधियों के हाथों मुसलमानों की हत्या की ओर मानवीय ध्यान जाना चाहिये जो स्वयं को मुसलमान कहते हैं। इन हमलों में मारे जाने वाले मुसलमान इंसान हैं परंतु कितनी चालाकी से भेंट चढ़ने वालों पर ही हमले का ज़िम्मेदार होने का आरोप मढ़ दिया जाता है? ब्रिटिश अध्ययनकर्ता और लेखक पीटर ओ- बोर्न का मानना है कि कुछ राजनेता और ब्रितानी संचार माध्यम इस्लामोफोबिया को हवा देते हैं और उनका मानना है कि श्याम वर्ण के लोगों और दूसरे अल्पसंख्यकों के बाद अब मुसलमानों की बारी आ गयी है ताकि वे पश्चिमी समाज में भेंट चढें।
ब्रिटेन विश्व विद्यालय के एक प्रोफेसर मिलर का मानना है कि नियो कंज़रवेटिव और जायोनी संगठन सरकार को ऐसे कानून बनाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं जिससे नागरिक अधिकार समाप्त हो जायें। वह इसी प्रकार कहते हैं कि वह नीति और क़ानून जिसे सरकार आतंकवाद विरोधी बताती है, इस देश में इस्लामोफोबिया और जातिवाद को हवा देते हैं। पश्चिम में इस्लामोफोबिया और इस्लाम के विरोध के लिए शैलियां भिन्न और विस्तृत हैं।
ब्रिटेन में मुसलमान परिषद के एक सदस्य ताहा अहमद कहते हैं” पेरिस हमलों के बाद हम इस बात के साक्षी थे कि संचार माध्यमों यहां तक राजनीतिक वर्ग भी इस विषय को इस्लाम और मुसलमानों से जोड़ने के प्रयास में थे जबकि ऐसा कोई प्रमाण नहीं है जो इस बात का सूचक हो कि पेरिस हमले की योजना मस्जिद में बनाई गयी थी। इसके साथ अगर पेरिस हमलों के बाद राजनीति की ओर देखें तो आप पायेंगे कि अन्यायपूर्ण ढंग से मस्जिदों और मुसलमानों के संगठनों को निशाना बनाया गया है।
ब्रिटेन के संचार माध्यम भी मुसलमानों के विरुद्ध घृणा फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। अभी कुछ दिन पहले ब्रिटेन के एक संचार माध्यम ने दावा किया था कि ब्रिटेन के हर पांच में से एक मुसलमान जेहादी गुटों से सहानुभूति रखता है। इस प्रकार का दावा किसी प्रकार के अध्ययन व प्रमाण के बिना ही किया गया है और वह ब्रिटेन में रहने वाले समस्त मुसलमानों के विरुद्ध घृणा में वृद्धि करता है।
“जातिवाद के मुकाबले में डट जाओ” गुट के एक सदस्य साबी डालू ने कहा कि पेरिस हमलों के बाद हम इस्लामोफोबिया में वृद्धि के साक्षी थे परंतु संचार माध्यमों ने इस घटना से संबंधित ख़बरों को इस प्रकार से कवरेज दिया जिससे इस प्रक्रिया में और भी वृद्धि हो गयी।
कुछ लोगों का मानना है कि ब्रिटेन की सरकार आतंकवाद से मुकाबले के लिए जो प्रस्ताव पारित करती है और इसी प्रकार इस देश के संचार माध्यम ख़बरों को जिस प्रकार से कवरेज देते हैं इस्लामोफोबिया सबसे अधिक इन्हीं चीज़ों से प्रभावित है। इसी संबंध में इस्लामी मानवाधिकार आयोग के एक सदस्य आरज़ू मीर अली कहते हैं आज हम ब्रिटेन में सार्वजनिक वातावरण के अधिक से अधिक विषम होने के साक्षी हैं। ब्रिटेन में ऐसे संचार माध्यम हैं जो मुसलमानों के बारे में अपनी रिपोर्टों में इन हालत को हवा देते हैं। हमारे पास ऐसी सरकार और राजनेता हैं जो मुसलमानों का चेहरा बिगाड़ कर पेश कर रहे हैं और पुलिस जैसा कानूनी तंत्र है जो मुसलमान विरोधी कानूनों को लागू करता है।
रिपोर्टें इस बात की सूचक हैं कि पश्चिमी संचार माध्यम ख़बरों के कवरेज देने की अपनी शैली से मुसलमानों की छवि को बिगाड़ कर पेश कर रहे हैं। इसी प्रकार ब्रिटिश सरकार की नीतियां वास्तव में आतंकवाद से मुकाबले के स्थान पर इस देश के इस्लामी समाज को अलग -थलग करने के प्रयास में है ताकि इस माध्यम से वह पश्चिम विशेषकर ब्रिटेन में इस्लाम को फैलने से रोक सके। वर्ष 2013 में प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार प्रतिवर्ष पांच हज़ार ब्रितानी मुसलमान हो रहे हैं जिनमें से आधे गोरे हैं और उनमें 75 प्रतिशत महिलाएं हैं। ब्रिटेन में रहने वाले मुसलमानों की जनसंख्या वर्ष 2001 में 16 लाख थी जबकि वर्ष 2010 में यह संख्या 29 लाख हो गयी। ब्रिटेन में अधिकांश लोग जो मुसलमान होते हैं इस्लाम की ओर रुझान का मुख्य कारण अपने देश में आध्यात्मिक संकट और नैतिक पतन को मानते हैं और इस्लाम को शरण स्थल के रूप में पाते हैं।
महान व सर्वसमर्थ ईश्वर पवित्र कुरआन में कहता है” वे ईश्वरीय प्रकाश को अपने मुंह से बुझा देना चाहते हैं परंतु ईश्वर एसा नहीं करने देगा यहां तक कि अपने प्रकाश को पूरा करे यद्यपि काफिरों को यह बात पसंद नहीं है।