अल्लाह के ख़ास बन्दे- 46
आपको अवश्य याद होगा कि पिछले हमने बताया था कि बनी उमय्या से बनी अब्बास तक सत्ता कैसे हस्थानांतरित हुई थी।
हमने यह भी कहा था कि बनी अब्बास के एक गुट ने यह नारा देकर युद्ध किया था कि हमपे आले मोहम्मद की ख़ुशी और सत्ता उनके हवाले करने के लिए आंदोलन किया है परंतु इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने न तो इस आंदोलन में भाग लिया और न ही उसमें कुछ भूमिका निभाई। इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने इस आंदोलन में भाग नहीं लिया क्योंकि उन्हें गहरी राजनीतिक एवं धार्मिक जानकारी के कारण पूरा विश्वास था कि इस युद्ध से बनी अब्बास का लक्ष्य सत्ता प्राप्ति के अलावा कुछ और नहीं है और इसी वजह से इमाम ने किसी भी तरह इस युद्ध व आंदोलन में भाग नहीं लिया। इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने बनी अब्बास के युद्ध में जो भाग नहीं लिया तो कुछ ने प्रश्न किया कि आख़िर इमाम ने क्यों उस अवसर से लाभ नहीं उठाया और क्यों उस युद्ध में भाग नहीं लिया? इस प्रश्न के उत्तर के लिए कुछ बिन्दुओं को बयान करना ज़रूरी है।
शायद इमाम के इस कार्य का एक महत्वपूर्ण कारण यह था कि पैग़म्बरे इस्लाम के स्वर्गवास के बाद लोगों ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम को छोड़कर दूसरों को ख़लीफ़ा मान लिया जबकि पैग़म्बरे इस्लाम महान ईश्वर के आदेश से अपने जीवन के अंतिम हज में और एक लाख 20 हज़ार हाजियों की उपस्थिति में मैदाने गदीर में इस बात की घोषणा कर चुके थे कि मेरे बाद अली ही मेरे उत्ताराधिकारी हैं। लोगों ने ग़दीर के मैदान में पैग़म्बरे इस्लाम की मौजूदगी में हज़रत अली अलैहिस्सलाम की ख़िलाफ़त के प्रति जो बैअत की थी उसे तोड़ दिया और लोग सक़ीफ़ा की बुनियाद रखने वालों से जा मिले थे। यही नहीं लोगों ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम से सामान्य संबंध भी तोड़ लिये थे । यहां तक हज़रत अली अलैहिस्सलाम 25 वर्षों तक मौन धारण किये रहे परंतु जब लोगों ने बहुत अधक आग्रह किया और उनसे ख़िलाफ़त स्वीकार करने के लिए कहा तब उन्होंने ख़िलाफ़त स्वीकार की। हज़रत अली अलैहिस्सलाम की ख़िलाफ़त लगभग 5 वर्षों तक थी। इस दौरान जमल, सिफ़्फ़ीन और नहरवान नामक तीन युद्ध उन पर थोप दिये गये यहां तक उन्हें शहीद कर दिया गया।
इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने बनी अब्बास के युद्ध में जो भाग नहीं लिया उसका एक अन्य कारण इमाम हसन अलैहिस्सलाम के जीवन का कटु अनुभव था। कूफ़ा के लोगों ने आरंभ में मोआविया से युद्ध करने की तत्परता की घोषणा की थी परंतु थोड़े ही समय में वे अपनी तत्परता से पीछे हट गये। उन लोगों का कहना था कि वे मोआविया की सरकार का अंत करके ख़िलाफ़त को समय के इमाम के हवाले कर देंगे परंतु वे लोग न केवल अपने वचन के प्रति वचनबद्ध नहीं रहे बल्कि इमाम के ख़िलाफ़ एकजुट हो गये और ओमवी सरकार को और मज़बूती प्रदान कर दी। इन्हीं कटु अनुभवों को दृष्टि में रखते हुए इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने बनी अब्बास द्वारा किये गये युद्ध में भाग नहीं लिया। इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने अपने एक अनुयाई के साथ जो वार्ता की थी उसे इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है।
रवायत में है कि सरीर सैरफ़ी नामक इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम का एक अनुयाई उनकी सेवा में हाज़िर हुआ और इमाम से कहा क्यों आप आंदोलन नहीं करते? उसके जवाब में इमाम ने फ़रमाया किस आधार पर तुम यह बात कह रहे हो? उसने कहा आपके काफ़ी शीया हैं तो इमाम ने फ़रमाया तुम्हारे विचार में वे कितने होंगे? उसने कहा एक लाख तो इमाम ने आश्चर्य से पूछा एक लाख? तो उसने कहा कि जी हां शायद दो लाख फिर इमाम ने आश्चर्य से कहा दो लाख? उसके बाद इमाम ने कुछ नहीं कहा और पैदल चलते हुए मदीना से बाहर निकल गये यहां तक कि भेड़ों के एक झुंड तक पहुंच गये। इमाम ने जब भेड़ों के झुंड को देखा तो एक आह भरी और कहा काश इन भेड़ों की संख्या की बराबर ही हमारे पास वफ़ादार साथी और सच्चे शीया होते तो हम फौरन आंदोलन करते।
इन सबके बावजूद इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम अपने पहले वाले इमामों की भांति अपने समय की अत्याचारी और उस सरकार के रवइये पर चुप नहीं रह सकते थे जिसने पैग़म्बरे इस्लाम क ख़िलाफ़त को हड़प लिया था। अत: सबसे पहले इमाम ने अपने समय की अब्बासी सरकार की बैधता का इंकार किया। इमाम फ़रमाते थे हर वह व्यक्ति जो अत्याचारी नगयायधीश या अत्याचारी शासक के पास जाये और उनसे फ़ैसला करने के लिए कहे तो वह कुरआन की इस आयत में शामिल होगा जिसमें ईश्वर कहता है '' क्या आपने उन लोगों को नहीं देखा जो यह सोचते हैं कि जो कुछ आप पर और आपसे वाले पैग़म्बरों पर नाज़िल हुआ है उस पर वे ईमान लाये हैं वे अत्याचारी सरकारों से फ़सला चाहते हैं जबकि उन्हें आदेश दिया जा चुका था कि वे उन्हें छोड़ दें। पवित्र कुरआन की इसी आयत में महत्वपूर्ण बिन्दु की ओर ध्यान दिया जा सकता है जिसमें महान ईश्वर कहता है यह शैतान है जो उन्हें गुमराह करना और सीधे रास्ते से दूर ले जाना चाहता है।
इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम अपने सच्चे अनुयाइयों से कहते थे कि अत्याचारी और धर्म विरोधी सरकार से लेन- देन और सहकारिता करने से दूरी बरतें। इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम आवश्यकता रखने वाले शीयों की सहायता के लिए ख़ुम्स अर्थात विशेष धार्मिक राशि स्वयं लेते थे। इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम का एक अनुयाई मुअल्ला बिन हुनैश कहता है '' इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम स्वयं ख़ुम्स लेते और ज़रूरत के हिसाब से उसे ख़र्च करते थे। इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम इसी प्रकार मिथ्याचारी अब्बासी शासकों के ख़िलाफ़ हर अवसर से लाभ उठाते थे ताकि उनकी ओर शीयों को जाने से रोक सकें। इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने एक दिन अपने शिष्यों के एक गुट को संबोधित करते हुए कहा कि मैं अत्याचारियों के हित में किसी भी समस्या का न तो समाधान करना चाहता हूं और न तो उनका बोझ उठाना चाहता हूं। ईश्वर की सौगन्ध मैं उनके हित में काग़ज़ पर कलम नहीं चलाना चाहता क्योंकि अत्याचारी और उनके सहायक प्रलय के दिन नरक की आग में होंगे।''
इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम यह दिखाने के लिए कि अत्याचारियों से संघर्ष सबसे अधिक धार्मिक नेताओं व मार्गदर्शकों की ज़िम्मेदारी है फ़रमाते थे कि धर्मशास्त्री पैग़म्बर के उत्तराधिकारी हैं अगर आपने एसे धर्मशास्त्री को देखा जो अत्याचारियों की ओर रुझान रखता है तो उस पर विश्वास न करो और उसे समाज की नज़रों से गिरा दो।
एक दिन एक व्यक्ति इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम की सेवा में हाज़िर हुआ और कहा यहूदी अपने धर्मगुरूओं का अनुसरण करने के कारण ईश्वरीय भर्त्सना व फटकार का पात्र बने और अगर मुसलमान भी यही कार्य करें तो उनमें और मुसलमानों में क्या अंतर है? इमाम ने फ़रमाया यहूदी अपने धर्मगुरूओं को पहचानते थे और जानते थे कि वे झूठे बोल रहे हैं और हराम का खा रहे हैं और घूस ले रहे हैं और ईश्वर के आदेशों को बदल रहे हैं। अगर उनकी किसी से दुश्मनी होती थी तो उस पर अत्याचार करते और उसके अधिकारों की अनदेखी कर देते थे और अगर किसी से दोस्ती होती थी तो उसका बचाव करते थे। इमामा ने इसी तरह अपनी बात को जारी रखा और उसके बाद कहा यहूदी क़ौम पूरी तरह इन बातों व विशेषताओं को जानने के बावजूद अपने धर्मगुरूओं का अंधाअनुसरण करती थी। इसी कारण ईश्वर ने उनकी भर्त्सना की है। इमाम ने इसके बाद फ़रमाया अगर मुसलमान कौम भी इन्हीं विशेषताओं के धर्मगुरूओं का अनुसरण करे तो वह भी ईश्वरीय भर्त्सना का पात्र बनेगी।
इस प्रकार की परिस्थिति में संभव है कि यह कोई सवाल करे कि तक़लीद एक ज़रुरी चीज़ है एसे में इस्लामी समाज का क्या दायित्व बनता है लोगों को क्या करना चाहिये? इस बात में कोई संदेह नहीं है कि हर क्षेत्र के विशेषज्ञ का अनुसरण वह कार्य है जिसे बुद्धि कहती है परंतु सवाल यह है कि क्या अपनी बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए किसी प्रकार की जांच – पड़ताल के बिना हर विशेषज्ञ का अनुसरण करना चाहिये? या जांच पड़ताल के बाद उस पर भरोसा करना और उसका अनुसरण करना चाहिये? इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम अनुसरण न करने योग्य धर्मगुरूओं को नकारने के बाद उन धर्मगुरूओं का उल्लेख करते हैं जिनका अनुसरण करना चाहिये। इमाम इस प्रकार के धर्मगुरूओं के बारे में कहते हैं जो धर्मशास्त्रियों में से अपनी आंतरिक इच्छाओं को नियंत्रित करे और ईश्वरीय सीमाओं का ध्यान रखे और अपनी आंतरिक इच्छाओं के मुक़ाबले में ईश्वरीय आदेशों का पालन करे तो इस स्थिति में लोगों को चाहिये क वे उसका अनुसरण करें। उसके बाद अंत में इमाम ने फ़रमाया किन्तु बहुत थोड़े से धर्मशास्त्री हैं जिनके अंदर ये विशेषताएं पाइ जाती हैं। दूसरे शब्दों में उमवियों और अब्बासियों के मध्य जो लड़ाई हो रही थी अगर इमाम ने उसमें भाग नहीं लिया तो उसका एक महत्वपूर्ण कारण यह था कि इमाम के पास वफ़ादार साथियों व इनुयाइयों की कमी थी परंतु समस्त इमामों की जो संयुक्त जीवन शैली थी वह यह थी कि उन्होंने कभी भी ख़िलाफ़त पर क़ब्ज़ा करने वालों के साथ किसी प्रकार की सांठ- गांठ नहीं की और न ही कभी चुप रहे।
रवायत में है कि मंसूर अब्बासी का शासन काल और इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम की इमामत का काल 10 वर्षों तक एक था। अपने शासनकाल में मंसूर अब्बासी ने इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम के लिए संदेश भेजा कि क्यों आप हमारे दरबार में नहीं आते – जाते ? उसके जवाब में इमाम ने संदेश भेजवाया कि हम न तो अहले दुनिया हैं जो तुझसे लाभ उठायें और न तू परलोक का प्रेमी है कि तेरे साथ रहूं और परलोक के लिए सामान संचित कर लूं। मंसूर अब्बासी का एक निकटवर्ती कहता है। एक दिन एक मच्छर मंसूर अब्बासी के चेहरे पर बैठे गया तो उसने उसे अपने चेहरे से उड़ा दिया परंतु वह दोबारा उसके चेहरे पर आकर बैठ गया। फिर उसने उसे अपने चेहरे से हटा दिया। अंतत: वह बहुत थक गया। इसी बीच इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सीलाम वहां पहुंच गये। उसने इमाम से पूछा ईश्वर ने मच्छर क्यों पैदा किया है? इमाम ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि ताकि ईश्वर मच्छर के ज़रिये अहंकारियों को अपमानित करे। इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने जो स्पष्ट दृष्टिकोण अपना रखा था उसके कारण मंसूर अब्बासी ने दिन प्रतिदिन इमाम के साथ कड़ाई बरती और चूंकि इमाम का जो व्यवहार था वह मंसूर अब्बासी की तानाशाही प्रवृत्ति के ख़िलाफ़ था इसलिए उसने दूसरे अत्याचारी शासकों की भांति शीयों और अलवी सय्यदों की हत्या का आदेश दिया वह अपने जासूसों के माध्यम से इमाम और उनके अनुयाइयों पर पैनी नह़र रखने लगा। इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने भी अपने उद्देश्यों को व्यवहारिक बनाने के लिए नई शैली का आरंभ किया।