Dec १६, २०१८ १७:०४ Asia/Kolkata

हमने मस्जिद के महत्व की विस्तार से चर्चा की थी। 

हमने बताया था कि मस्जिद को बनाने और उसे आबाद करने जैसे कामों की इस्लाम में अनुशंसा की गई है।  मस्जिद को बनाने का बहुत पुण्य है।  हर मुसलमान समाज में लोग मस्जिद के बनवाने जैसे काम में बढ़-चढकर भाग लेते हैं।  यह सोच मुसलमानों में आरंभ से थी और आज भी पाई जाती है।  इस्लाम में मस्जिद बनाने या बनवाने को बहुत अधिक महत्व दिया गया है।

मस्जिद के निर्माण के संबन्ध में सूरे तौबा की 18वीं आयत में ईश्वर कहता है कि निश्चित रूप में अल्लाह की मस्जिदों के निर्माण और उसे आबाद करनेवाला वही हो सकता है जो अल्लाह और अंतिम दिन पर ईमान लाया, जिसने नमाज़ क़ायम की और ज़कात दी और अल्लाह के सिवा किसी से न डरा। अतः आशा है कि ऐसे ही लोग, सीधा मार्ग पानेवाले होंगे।  रोचक बात यह है कि इससे पहले वाली आयत में ईश्वर ने अनेकेश्वरवादियों को मस्जिद बनाने से रोकते हुए कहा है कि यह मुशरिकों का काम नहीं कि वे अल्लाह की मस्जिदों को आबाद करें और उसके प्रबंधक हों, जबकि वे स्वयं अपने विरुद्ध कुफ़्र की गवाही दे रहे है। उन लोगों का सारा किया धरा बर्बाद गया और वे आग में सदैव रहेंगे।

जब हम मस्जिद बनाने और उसका प्रबंध करने वालों की विशेषताओं में ग़ौर करते हैं तो यह बात समझ में आती है कि मस्जिद को बनाने वाले नेक इंसान हों अधर्मी न हों।  इस काम के दो आयाम सामने हैं एक व्यक्तिगत और दूसरा सामाजिक।

 

यदि हम मस्जिद और उसमें उपासना के संबन्ध में महापुरूषों के कथनों में ग़ौर करते हैं तो पाते हैं कि यह एसा स्थान है जो लोगों को प्रलय की ओर खींचता है।  यह स्थान मनुष्य को संसार और उसके आकर्षणों से दूर करता है।  मस्जिद के बारे में एक विशेष बात यह है कि इसकी अधिक साज-सज्जा पर ध्यान देना उचित नहीं है।  इस संबन्ध में हज़रत अली अलैहिस्सलाम का कहना है कि एक ऐसा समय आएगा कि जब क़ुरआन और इस्लाम का केवल नाम ही बाक़ी रहेगा।  वह ऐसा काल होगा जब मस्जिदें, विदित रूप में तो बहुत सुन्दर होंगी जबकि वहां से मार्गदर्शन नहीं होता होगा।  इस संबन्ध में इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम कहते हैं कि प्रलय के दिन जो चीज़ें ईश्वर से शिकायत करेंगी उनमें से एक ऐसी मस्जिद है जहां पर लोग नमाज़ पढ़ने नहीं जाते और वक़्त गुज़रने के साथ वह खण्हर हो जाती हैं।  इससे यह निश्कर्ष निकलता है कि मस्जिद में नमाज़ न पढ़ने का अर्थ है उसको क्षति पहुंचाना।  मस्जिद के विकास में अधिक महत्व उसको आबाद करने में है न कि उसे अधिक से अधिक सुसज्जित करने में।  मस्जिद का केवल सुसज्जित होना पर्याप्त नहीं है।

 

इब्राहीम अलजन्नाती की किताब "अलमसाजिद व अहकामोहा" में मिलता है कि मस्जिदें, घमण्ड के लिए कोई महल नहीं हैं बल्कि वे उपासना स्थल हैं।  यह वह स्थल हैं जहां पर पूरी निष्ठा के साथ ईश्वर की उपासना की जानी चाहिए।  मस्जिद का वैभव यह है कि वहां पर नमाज़ पढ़कर ईश्वर की याद को ताज़ रखा जाए, लोगों को भलाई करने और बुराई से बचने का आह्वान किया जाए और साथ ही लोगों का सही मार्गदर्शन किया जाए।  ऐसा न हो कि मस्जिद तो बहुत ख़ुबसूरत हो, उसकी मीनारें ऊंची-ऊंची हो, दरवाज़े बहुत आकर्षक हों और वहां पर मंहगे क़ालीन बिछे हों किंतु वहां पर नमाज़ पढ़ने वाले न दिखाई दें।

वास्तविक नमाज़ी को मस्जिद की ज़ाहेरी ख़ूबसूरती कभी भी आकर्षित नहीं कर सकती बल्कि मस्जिद का आध्यात्मिक वातावरण उसे अपनी ओर खींचता है।  इससे पता चलता है कि मस्जिद का विदित वैभव कोई विशेष महत्व नहीं रखता।  यही कारण है कि इस्लाम के उदय काल में बनाई जाने वाली मस्जिदें , देखने में तो बहुत ही सादी थी किंतु उसका आध्यात्मिक महत्व आज भी बाक़ी है।  हालांकि इस बात को भूलना नहीं चाहिए कि मस्जिद का साधारण होना अपनी जगह पर लेकिन आवश्यकता की वस्तुएं उसमें होनी चाहिए।

 

मलेशिया की राजधानी क्वालालंपूर की जामा मस्जिद, वहां की सबसे पुरानी मस्जिद है।  क्वालालंपूर की जामा मस्जिद का निर्माण सन 1907 में किया गया था।  23 सितंबर सन 1909 में मलेशिया के राजा सेलानगोर ने इसका आधिकारिक उद्घाटन किया था।  बाद में उन्हीं के कहने पर उसी साल इस मस्जिद में पहली जुमे की नमाज़ पढ़ी गई।  मस्जिदे क्वालालंपूर के वास्तुकार "आर्थर बेनीसन हाबूक" थे।  वे अपने काल के मश्हूर वास्तुकार थे।  उन्होंने यह मस्जिद, भारत में ईलख़ानी वास्तुकला में बनी मस्जिद के आधार पर बनाई थी।  इस मस्जिद के प्रवेश द्वार और उसके कोनों पर छोटी-छोटी छतरियां दिखाई देती हैं।  यह वह चीज़ है जिसे उत्तरी भारत की मस्जिदों में देखा जा सकता है।

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इस मस्जिद की दो मीनारे हैं जो लाल और सफेद रंग की हैं।  इन मीनारों की ऊंचाई 26 दश्मलव आठ मीटर है।  इन मीनारों की सुन्दरता के कारण यह मस्जिद, मलेशिया की अन्य मस्जिदों से भिन्न है।  मस्जिद को इस प्रकार से बनाया गया है कि नमाज़ पढ़ने वाले हाल के पास तीन गुंबद बने हुए हैं।  इनमें से केन्द्रीय गुंबद 21 दश्मलव तीन मीटर ऊंचा है जो मस्जिद का सबसे ऊंचा गुंबद है।  सन 1990 में यह गुंबद गिर गया था जिसे बाद में बनाया गया।  स्थानीय लोग इस जामा मस्जिद के नाम से जानते हैं।  यहां पर जुमे की नमाज़ पढ़ने वालों की संख्या इतनी अधिक होती है लोग मस्जिद के बाहर की सड़को तक आ जाते हैं।

 

मलेशिया की एक अन्य सुन्दर मस्जिद का नाम है "पूर्राजाया"।  सन 1997 में इसका उद्घाटन किया गया था जिसके दो वर्षों के बाद इसमें नमाज़ आरंभ हुई।  इस मस्जिद में पन्द्रह हज़ार लोगों की क्षमता है।  यह मस्जिद, मलेशिया की आधुनिकतम मस्जिदों में से एक है।  पर्यटक इसको सूरती मस्जिद के नाम से जानते हैं।  इसको ईरान की वास्तुकला से प्रेरित होकर एक कृत्रिम नहर के पास पुत्राजाया नगर में बनाया गया है।  यह मस्जिद, ईरान के इस्फ़हान नगर में स्थित "पुले ख़ाजू" नामक पुल जैसे एक पुल के निकट बनी हुई है।  मस्जिद का तीन चौथाई भाग पानी की ओर फैला हुआ है।  यही कारण है कि अगर कोई दूर से इस मस्जिद को देखे तो एसा लगता है कि वह पानी के भीतर बनी हुई है।

 

इस मस्जिद की वास्तुकला इस्लामी है।  पूतरा मस्जिद के निर्माण में ईरान में सफ़वी शासनकाल की मस्जिदों को आदर्श बनाया गया है।  अगर मस्जिद के निर्माण में हम थोड़ा ध्यान दें तो पाएंगे कि इसको बनाने में संसार की अन्य मस्जिदों की वास्तुकला को दृष्टिगत रखा गया है।  उदाहरण स्वरूप पूतरा मस्जिद का मूल ढांचा तो ईरानी मस्जिदों की भांति है जबकि इसकी मीनारें, बग़दाद की शेख उमर मस्जिद जैसी हैं।  उसके नीचे की दीवार मोरक्कों की मलिक हसन मस्जिद जैसी दिखाई देती हैं।  मस्जदि की दीवारों और खिड़कियों पर जिन रंगों का प्रयोग किया गया है वह जर्मनी की पूतरा मस्जिद जैसे हैं।  मस्जिद को अधिक सुन्दर बनाने के उद्देश्य से इसपर इस्लामी सुलेखन का प्रयोग किया गया है।

 

मस्जिद के हाल में 12 स्तंभ हैं जो बहुत ही सुन्दर दिखाई देते हैं।  इसके 76 मीटर ऊंजे गुंबद को लाल और गुलाबी रंगों के टाइलों से सजाया गया है।  इस बड़े गुंबद के किनारे-किनारे छोटे-छोटे गुंबद भी बने हुए हैं  पुत्रा मस्जिद में एक मुख्य हाल है जिसमें कुछ कमरे बने हुए हैं जिनको धार्मिक शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्र प्रयोग करते हैं।  इस मस्जिद की एक विशेषता यह है कि इसके निर्माण के समय मस्जिद के भीतर आवाज़ के लिए जो तकनीक अपनाई गई उसके कारण मेहराब में एक लाउड स्पीकर लगाने से आवाज़ पूरे मस्जिद में गूंजती है।  पुत्राजाया मस्जिद की एक अन्य विशेषता उसकी ऊंजी मीनार है।  इस मीनार की ऊंचाई 116 मीटर है।  यह सितारे के आकार की बनी हुई है जो देखने में बहुत ही आकर्षक दिखाई देती है।  इस मस्जिद को देखने के लिए दूर-दूर से लोग यहां पर आते हैं।  शुक्रवार के अतिरिक्त अन्य दिनों में पर्यटकों के लिए मस्जिद खुली रहती है।

 

मलेशिया की एक अन्य मस्जिद का नाम "मस्जिदे क्रिस्टल" है।  इसको शीशे से बनाने का काम सन 2006 में शुरू हुआ था।  सात फ़रवरी सन 2008 को इसका औपचारिक रूप में उद्घाटन किया गया।  यह दक्षिण पूर्व एशिया की दूसरी शीशे की सबसे बड़ी मस्जिद है।  शीशे की सबसे बड़ी मस्जिद इन्डोनेशिया के जकार्ता नगर में है।  मलेशिया की क्रिस्टल मस्जिद में 25 हज़ार नमाज़ियों की जगह है।  इसको मलेशिया का महत्वपूर्ण पर्यटक स्थल भी माना जाता है।  यह कृत्रिम झील के निकट बनाई गई है।

 

 

 

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