Dec २९, २०१८ १५:२३ Asia/Kolkata

हमने कहा था कि पानी जैसी प्राकृतिक चीज़ का प्रयोग ईरानी वास्तुकला में किस प्रकार किया जाता था।

इसी प्रकार हमने घरों में ईरानी वास्तुकारों द्वारा हौज़ों के निर्माण के संबंध में चर्चा की और आज के कार्यक्रम में हम इस बात की चर्चा करेंगे कि ईरानी वास्तुकार घरों आदि को बागों और बेल- बूटों के चित्रों से सुसज्जित करते थे।

हमने कहा था कि ईरानी वास्तुकार अपनी निर्माण कला में दो शैलियों का प्रयोग करते थे एक यथार्थतवादी और दूसरी आदर्शवादी।

यथार्थवादी शैली में ईरानी वास्तुकार प्राकृतिक चीज़ों के रूपों व चित्रों का प्रयोग करके अपने निर्माण कार्य को सुसज्जित करते थे। यह शैली यानी इमारतों को पेड़, पौधों, फूलों और बेल- बूटों से सुसज्जित करना प्राचीन शैली है और उसका संबंध उस प्राचीन आस्था से है जिसमें वनस्पतियों को अच्छा व पवित्र समझा जाता था और ईरानी वास्तुकार प्राकृतिक चीज़ों की सुन्दरता के पहलुओं की रक्षा के साथ घरों के आंतरिक भागों को उनसे सजाते थे। प्राचीन समाजों की आस्था के अनुसार पेड़ को जीवन का प्रतीक समझा जाता था। इसी प्रकार उन समाजों में कुछ वनस्पतियों का अपना विशेष महत्व होता था। यहां तक इस्लाम जैसे एकेश्वरवादी धर्म की बहुत सी पवित्र इमारतों को भी पेड़, पौधों, वनस्पतियों और फूलों से सुसज्जित किया गया है। मिसाल के तौर पर अंगूर की बेल। बहुत सी इमारतों की दीवार आदि पर अंगूर की तस्वीर बनायी गयी है। पूर्वी क्षेत्रों में अंगूर को जीवन का वृक्ष समझा जाता था। इसी तरह उसे आकाश व अंतरिक्ष का भी प्रतीक समझा जाता था। ईरान की नाईन की जामेअ मस्जिद, क़ीरवान की जामेअ मस्जिद और टयूनीशिया की जामेअ मस्जिद के मेहराब को अंगूर की लताओं से सुस्जित किया गया है। अलबत्ता कुछ अध्ययनकर्ता अंगूर को बुद्धि, या दुनिया और भौतिक संसार का प्रतीक भी मानते थे।

जिन वनस्पतियों की तस्वीरों से घरों आदि को सजाया जाता था उनमें से एक बेल है। ईरानी वास्तुकार घरों के प्रवेश द्वार पर बेल की तस्वीर बनाते थे और उनका मानना था कि बेल ऊर्जादायक वनस्पति है। आम लोगों का मानना था कि बेल, बलाओं और मुसीबतों को दूर भगाती है इसीलिए ईरानी वास्तुकार इसका बहुत प्रयोग करते थे।

ईरान के ऐतिहासिक नगरों में विभिन्न रूपों में बहुत से बाग थे। ईरान के हर क्षेत्र में वहां की क्षेत्रीय परिस्थिति और संस्कृति के दृष्टिगत बाग़ लगाये जाते थे और उनका अपना विशेष महत्व होता था। हर शहर में बाग होते थे और उनमें से कुछ सार्वजनिक होते थे। इन बागों के अंदर चौराहे और बड़े- बड़े रास्ते होते थे और उनके बीच- बीच में पानी पीने के स्थान बने होते थे। इन बाग़ों के चारों ओर तबरीज़ी नाम के पेड़ होते थे जो चमेली और गुलाब की छायादार झोपड़ियों से ढ़के होते थे।

लुरिस्तान में जो गनमेटल प्राप्त हुए हैं उनका संबंध एक हज़ार ईसापूर्व से है और उन पर वृक्षों की जो तस्वीर बनी हैं उन्हें बहते हुए पानी के साथ दिखाया गया है। यह एक शुष्क क्षेत्र में बहुत ही मनोहर व सुन्दर दृश्य है। प्राचीन समय में ईरानियों का मानना था कि पानी के स्रोतों, पेड़, पौधों, वनस्पतियों और फूलों को नुकसान पहुंचाना फरिश्तों के क्रोध का कारण बनता है। हख़ामनशियों के काल में कुरूश ने सार्द नामक स्थान पर बहुत बड़ा बाग लगवाया था और उनके पेड़ों को स्वयं उसने अपने हाथ से लगाया था। यूनानी इतिहासकार गज़नफून ने लिखा है कि कुरूश अपने मेहमानों को इस बाग को दिखाने के लिए ले जाता था और सब लोग इस बाग की सुन्दरता को देखकर हतप्रभ रह जाते थे।

हख़ामनिशी काल के बाग़ आयताकार होते थे और उनके बीच में जो रास्ते होते थे वे एक दूसरे को काटते थे। ये बाग बहुत बड़े- बड़े होते थे। कभी- कभी यह बाग इतने बड़े होते थे कि उनका क्षेत्रफल 25 वर्ग किलोमीटर होता था।

एक सासानी बादशाह के काल में एक बाग का निर्माण किया गया जो अपने समय में अद्वितीय था और ज्यामितिथ दृष्टि से वह बेजोड़ था। सासानी काल के महलों के बाग तख्ते सुलैमान और काखे फीरोज़ाबाद की भांति एक झील या सोते की जगह में लगाये गये थे। उस समय के ईरानी वास्तुकार अपनी रचनात्मकता का प्रयोग इस प्रकार करते थे कि वह प्राकृतिक स्थान के वाली रहने और उसकी मज़बूती का भी कारण बनती थी।

ईरान में इस्लामी सभ्यता का बोल- बाला हो जाने के बाद और इस्लाम की आरंभिक शताब्दियों में ईरानी बाग लगाये जाने में सासानी काल की शैली का अनुसरण किया जाता था परंतु बहुत से अध्ययनकर्ताओं का मानना है कि सफवी काल ईरान में बाग लगाये जाने का सबसे बेतरीन काल था। उस काल में जो बाग होते थे वास्तव में शहर के स्वरूप और उनके ताने- बाने के निर्धारण में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका होती थी और पूरे नगर की बनावट उनके स्वरूप से प्रभावित होती था। उस काल में जो बाग लगाये गये उनका आरंभ ईरान के क़ज़वीन नगर से हुआ और उसके बाद सफवी शासकों की राजधानी इस्फहान नगर में बाग लगाये जाने और इमारतों के निर्माण में ईरानी वास्तुकारों ने अपनी कला का प्रदर्शन किया और हश्त बहिश्त, चेहल सुतून और बाग़े फैज़ उन बागों में से हैं जिन्हें सफवी काल में लगाया गया था।

 

ईरानी वास्तुकला में प्राचीन काल से वनस्पतियों के लाभ और उनकी सुन्दरता का बहुत ध्यान रखा जाता है। इसी प्रकार इस बात को भी दृष्टि में रखा जाता है कि कौन सी वनस्पति कहां लगाई जाये। विनाशकारी प्राकृतिक एवं गैर प्राकृतिक आपदाओं के मुकाबले में बाग की सुरक्षा में वनस्पतियां महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। वनस्पतियों को बागों और घरों में अलग- अलग लक्ष्यों के लिए लगाया जाता था। जैसे कहीं छाया देने के लक्ष्य से तो कहीं कुछ उगाने या प्राप्त करने के लक्ष्य से।

चूंकि ईरानी वास्तुकला की एक मूल विशेषता उसका लाभप्रद होना है इसलिए अधिकतर उन वनस्पतियों एवं पेड़ों को लगाया जाता है जो फल और छाया दें। अंगूर, अंजीर, सेब, नाशपाती, आड़ू और आखरोट वे महत्वपूर्ण पेड़ हैं जिन्हें ईरानी अपने घरों और बागों में लगाते हैं।  

पूर्वी देशों में बाग लगाने की जो शैली है वह ईरान में बाग लगाये जाने की शैली है। मुगल शासक बाबर ने भारत के आगरा में जो बाग लगवाया था उसमें ईरानी शैली का प्रयोग किया गया था। बाबर ने जो बाग लगवाया था उसमें से कुछ बाग आज भी मौजूद हैं और उसके एक उत्तराधिकारी जहांगीर ने भी इसी शैली में कश्मीर में कई बाग़ लगवाये थे।

द हिस्ट्री आफ सिवीलाइज़ेशन नामक किताब का लेखक वेल डोरेन्ट अपनी किताब में लिखता है कि दूसरे राष्ट्रों ने बाग लगाने में ईरानी शैली का अनुसरण किया है। अरबों, मुसलमानों, भारतीयों और मध्य युगीन शताब्दी के यूरोपवासियों ने भी बाग लगाने में ईरानी शैली को आदर्श बनाया है। वह आगे लिखता हैः मध्य युगीन शताब्दी में यूरोपीय नगरों में सार्वजनिक बाग़ और हरे- भरे स्थानों का कोई महत्व व स्थाना नहीं था जबकि ईरान के अधिकांश शहरों में बाग होते थे और उन्हें वहां रहने वालों के लिए शरणस्थली समझा जाता था। वेल डोरेन्ट कहता है”  सुन्दरता, हरियाली, पुष्पों और प्रफुल्ला की दृष्टि से ये बाग अपने समय में अद्वितीय थे।

निः संदेह पेड़- पौधों और वनस्पतियों के प्रति ईरानियों में जो प्रेम व लगाव है उसे उनकी कला रचनाओं में देखा जा सकता है। उनके इस लगाव को अधिकतर क़ालीनों और शायराना पोस्टरों में भलीभांति देखा जा सकता है।

“चहार बाग़ ईरानी” नाम का जो क़ालीन है उसका संबंध 17वीं शताब्दी के अंतिम वर्षों से है। इस क़ालीन की चौड़ाई 130 सेन्टीमीटर जबकि लंबाई 262 सेंटीमीटर है। यह दुनिया के प्रसिद्ध और दुर्लब क़ालीनों में से एक है। इस क़ालीन को इस प्रकार बुना गया है कि उसके बीच में पानी के दो हौज़ों की तस्वीर है और क़ालीन के 10 हिस्से हैं जिन पर पेड़, पौधों, पुष्पों और पक्षियों की तस्वीर बनी है। यह क़ालीन लाल रंग का है और उसका किनारा खाकी रंग का है और उस पर भी पेड़, पौधों, पक्षियों और जानवरों की तस्वीरें बनी हैं।

ईरान में विभिन्न कालों से संबंधित जो बर्तन, प्लेट और कपड़े मिले हैं उन पर भी पुष्पों और बाग़ों की तस्वीरें बनी हैं और जिन पेड़ों की तस्वीर दिखाई गयी है उनके बीच से बहते हुए पानी की नालियों को दिखाया गया है।

 

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