Dec २९, २०१८ १६:३२ Asia/Kolkata

हमने ईरानी वास्तुकला की कुछ विशेषताओं के बारे में आपको बताया था। हमने यह भी बताया था कि ईरानी वास्तुकला में प्रकृति और प्रकाश को विशेष महत्व दिया जाता है।

आज की चर्चा में हम इस बारे में बात करेंगे कि ईरान निर्माण कार्य में कच्चे माल और निर्माण पदार्थ के क्षेत्र में किस प्रकार आत्म निर्भर है। आपको यह सुनना रुचिकर लगेगा कि ईरानी इमारतों के निर्माण में किस प्रकार के मसालों का प्रयोग किया जाता है और यह मसाले किन चीज़ों से बनते हैं? दूसरा बिंदु यह कि ईरान की अलग अलग जलवायु से यह मसाले अनुकूलता रखते हैं या नहीं? तो ईरानी वास्तुकला के इन आयामों से अवगत होने के लिए हमारे साथ रहिए।

 

पूरे इतिहास में इंसान हमेशा ही इस कोशिश में रहा कि अपने रहने के लिए सुरक्षित आवास बनाए और उस आवास को आस पास की प्रकृति से इस तरह समन्वित कर दे कि वहां आराम से जीवन गुज़ार सके। यह भी तथ्य है कि भौगोलिक परिस्थितियों और जलवायु का आवास के प्रारूप पर गहरा असर होता है। उदहारण स्वरूप पेर्सपोलिस के इलाक़े में देखा जाए तो वहां दीवारें बहुत मोटी हैं और उन दीवारों पर ख़ूबसूरत पत्थर चिपकाए गए हैं।

ईरानी इमारतों के निर्माण में जो मसाले प्रयोग हुए हैं उनमें बड़ी विविधता है। इंटों का प्रयोग बहुत महत्वपूर्ण है। इस्लाम से पहले तथा बाद के काल में ईरानी वास्तुकला में इसका बड़ी ख़ूबसूरती से प्रयोग किया जाता रहा है। यह ईंटें ऐसी हैं कि अतीत में इन पर शाही फ़रमान लिखे जाते थे इसी प्रकार क़ानून और घोषणाएं लिखने के लिए भी इन ईंटों को प्रयोग किया जाता था। ईंटें बनाने के लिए सूमरी और बाबिल के इलाक़े के मानव जातियां बाढ़ का पानी उतर जाने के बाद गीली मिट्टी को नदी के किनारों से एकत्रित करती थीं और उनके ईंट तैयार करती थीं। ईंटों को आग में पकाने की प्रक्रिया संभावित रूप से आग की खोज होने के तत्काल बाद से शुरू हो गई। ईरान में ईंटों को आग में पकाने की प्रक्रिया ख़ूज़िस्तान और मेसोपोटामिया के इलाक़ों से शुरू हुई। उस काल की ईंटों के अवशेष काशान और शूश में मिले हैं। यह ईंटें चार हज़ार साल ईसा पूर्व की बताई जाती हैं। ईंटों के प्रयोग की कला ईरान से मिस्र, रोम, चीन और हिंदुस्तान पहुंची। चौथी शताब्दी ईस्वी में यूरोपीयों ने भी ईंट का प्रयोग किया।

ईरान की प्रचानी वास्तुकला में ईंटों के प्रयोग के बड़े शानदार नमूने हैं जो ईंटों के उत्पादन में ईरानियों की उस काल की प्रगति को ज़ाहिर करते हैं। इन अवशेषों में ज़ीगूरात चोग़ाज़ंबील, मदायन के महल और फिरोज़ाबाद महल का नाम लिया जा सकता है।

ईरान में चार प्रकार की जलवायु पाई जाती है। आर्द्र गर्म, शुष्क गर्म, संतुलित आर्द्र, ठंडी आर्द्र। यही कारण है कि अलग अलग इलाक़ों में आवास निर्माण की अलग अलग शैलियां विकसित हुईं। ईरानी वास्तुकला में स्थानीय जलवायु के अनुकूल मसालों का प्रयोग प्राथमिकता में होता था। दूसरी ओर इन मसालों के प्रयोग के कारण ऊर्जा की खपत बहुत कम हो जाती थी और इससे पर्यावरण को भी मदद मिलती थी।

ईरानी वास्तुकला के विशेषज्ञ डाक्टर मुहम्मद करीम ने अपनी किताब में ईरानी वास्तुकला की शैली का परिचय कराते हुए लिखते हैं कि आत्म निर्भरता ईरानी वास्तुकला का महत्वपूर्ण सिद्धांत है। इस अर्थ में कि ईरानी वास्तकार कोशिश करते थे कि ज़रूरत के मसाले क़रीबी स्थानों से हासिल करें किसी अन्य देश से मसाला लाने की ज़रूरत न पड़े। यही कारण था कि निर्माण कार्य बहुत गति से आगे बढ़ता था और इमारत अपने आसपास के वातावरण और प्रकृति से समन्वित रहती थी। यही कारण था कि जब भी इमारत की मरम्मत की ज़रूरत पड़ती थी तो ज़रूरत का मसाला आसानी से मिल जाता था। ईरानी वास्तुकार हज़ारों साल से इसी विचार के समर्थक थे कि इमारत का मसाला स्थानीय होना चाहिए।

इसके बाद वह पेर्सपोलीस का उदहारण देते हैं और लिखते हैं कि पेर्सपोलीस इमारत के निर्माण में बेहतरीन पत्थर क़रीब की खदानों से निकाले जाते थे और इन पत्थरों को लकड़ी की गाड़ियों में रखकर पेर्सपोलीस लाया जाता था। इसी प्रकार इसफ़हान और यज़्द की जामा मस्जिदें, गुंबदे तावूस और तबरीज़ दुर्ग इस्लामी काल के निर्माण अवशेष हैं जिनमें ईंटों को असली मसाले के रूप में प्रयोग किया गया है।

ईरान के इतिहास की अति रोचक इमारतों के निर्माण में ईंटों की भूमिका महत्वपूर्ण इसलिए रही कि उनमें बड़ा समन्वय पाया जाता है। ईंटों आयताकार और लाल रंग की होती हैं। लाल रंग के अलावा, पीले रंग की ईंटें भी हैं। इन्हें इमारत के अलग अलग भागों में प्रयोग किया जाता था। ईंटों को भट्टे में पकाकर मज़बूत बना दिया जाता था। प्राचीन ईंटों का आकार बड़ा होता था बाद के दौर में इसका आकार लगभग आधा हो गया।

लकड़ी के सांचों के माध्यम से ईंटों को तैयार करके सुखाया जाता है और फिर भट्टियों में उन्हें चुन दिया जाता था। निर्धारित समय तक उसमें आग जलती रहती थी जिससे ईंटें पूरी तरह पक जाती थीं। इस समय आधुनिक भट्टियां बन गईं हैं जिनमें अलग अलग रंगों और अलग अलग मज़बूती की ईंटें तैयार होती हैं। अच्छी ईंट की पहचान यह है कि जब दूसरी ईंट से टकराए तो उससे घंटी की आवाज़ निकले। उसकी सतह समतल हो उस पर गड्ढे आदि न हों।

ईंट का आकार ऐसा होता है कि वह एक दूसरे के साथ अच्छी तरह फ़िट हो जाती है और दो दीवारों के जोड़ को भी बहुत अच्छी तरह ईंटों की मदद से तैयार कर लिया जाता है। गुंबद के निर्माण, मेहराब के निर्माण तथा इसी प्रकार की दूसरी चीज़ों के निर्माण में ईंटों का प्रयोग बहुत आसान होता था। चूंकि ईंटों की मदद से इमारत का बाहरी और भीतरी रूप बहुत सुंदर हो जाता था इसलिए इसका इस्तेमाल बहुत बढ़ा। ईरानी इमारतों में लगी ईंटें आग लग जाने की स्थिति में सुरक्षित रहती हैं। यदि 22 सेंटीमीटर मोटी दीवार है तो वह छह घंटे तक आग का मुक़ाबला कर सकती है।

ईरान के निर्माण मसालों में एक अन्य महत्वपूर्ण चीज़ चूना है। चूना एसा पदार्थ है जो इतिहास पूर्व के काल में भी प्रयोग होता रहा है। चूना पकाने की विधि ईरानियों से यूनानियों ने सीखी और वहीं से यूरोप के अन्य भागों में पहुंच गई। चूना वही कैलशियम आक्साइड है जो चूने के पत्थर को तेज़ आग में पकाकर प्राप्त होती है। निर्माण कार्य में चूने का प्रयोग बहुत ज़्यादा है। इसमें रेत और पानी मिलाया जाता है और अलग अलग जलवायु वाले इलाक़ों में पानी और रेत की अलग अलग मात्रा की मदद से चूने के अनेक उत्पाद तैयार किए जाते थे और इन्हें इमारत के विभिन्न भागों में प्रयोग किया जाता था। ईरान में चूने की खदानें मुख्य रूप से इसफ़हान और क़ुम में पायी जाती हैं।

प्लास्टर आफ़ पेरिस या पीओपी को भी हर दौर में निर्माण कार्य में प्रयोग किया जाता रहा है। चूंकि पीओपी बहुत सस्ती होती है और बहुत जल्द सूख जाती है इसलिए इसका बड़ा प्रयोग होता रहा है। पहली सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व के अवशेषों में पीओपी का प्रयोग देखा जा चुका है। हम बाद के कार्यक्रमों में पीओपी से इमारतों की सजावट के बारे में बताएंगे।

पत्थर भी ईरानी निर्माण कला के महत्वपूर्ण पदार्थों में से एक है। इसे ईरान के अलग अलग भागों में अलग अलग रूप में प्रयोग किया जाता रहा है। ईरानी वास्तुकला में पत्थर को इमारत का ढांचा मज़बूत बनाने, फ़र्श पर बिछाने तथा इमारत को सजाने के लिए प्रयोग किया जाता था। इसी तरह इमारत के शिलालेख के लिए भी पत्थर को तराशा जाता था। पेर्सपोलीस की इमारतों विशेष रूप से सौ स्तंभों वाले हाल के निर्माण में जिसका संबंध पांचवीं शताब्दी ईसा पूर्व से है पत्थरों को बड़ी सुंदरता से और सजावट के लिए प्रयोग किया गया है। इनसे बड़े बड़े स्तंभ भी बनाए गए हैं। इमारत के भीतरी हाल में संगमरमर को शीशे की जगह पर प्रयोग किया गया है। इस प्रकार के हाल इस्लामी दौर की मस्जिदों में बनाए जाते थे। हालिया वर्षों में पत्थर को इमारत के बाहरी भाग में, ज़ीनों पर और फ़र्श पर प्रयोग किया जाता  है।

डामर भी इमारतों के निर्माण में पत्थरों और ईंटों को जोड़ने के लिए प्रयोग किया जाता है। ईरान की पुरानी इमारतों में डामर को लकड़ी के स्तंभों पर लेप चढ़ाने के लिए प्रयोग किया जाता था। ईरान तथा मध्यपूर्व के इलाक़े में तेल और गैस के बड़े भंडर होने के कारण इन पदार्थों से तैयार होने वाली वस्तुओं का प्रयोग भी बड़े पैमाने पर होता रहा है। बहुत से विशेषज्ञों का मानना है कि बेबीलोनिया के हैंगिंग गार्डन भी दुनिया के आश्चर्यों में हैं इनका निर्माण भी ईरानी वास्तुकला के अनुरूप किया गया था। यह बाग़ कई मंज़िला थे इन्हें पत्थरों की मदद से ज़ीने के रूप में बनाया गया था और हर सतह पर डामर में डूबी हुई चटाई बिछाई गई थी। यह चटाई इसलिए बिछाई गई कि ऊपर की नमी नीचे वाले भाग में न पहुंचे। इस प्रकार इस ब़ाग़ की सबसे ऊपरी मंज़िल पर भी बड़े बड़े वृक्ष लगाए गए थे।

वेल डोरेंट की किताब सभ्यताओं की तारीख़ सहित इतिहास की अनेक किताबों में बताया गया है कि बेबीलोनिया शहर में एसा रास्ता था जो उपासना गृहों को एक दूसरे से जोड़ता था। इसे पवित्र मार्ग कहा जाता था। इस मार्ग पर डामर डाला जाता था। इस पर चूने के पत्थर के टुकड़े और लाल रंग की ईंटे लगाई जाती थीं।

 

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