Dec ३०, २०१८ १७:२५ Asia/Kolkata

हमने मस्जिद की अहमियत की ओर इशारा किया और यह बताया कि मस्जिद एक जनकेन्द्रित स्थान के रूप में ईमान को मज़बूत करने के बेहतरीन स्थान के साथ ही सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक और सांसकृतिक गतिविधियों के विस्तार के लिए सबसे अहम केन्द्र है।

इसी तरह मस्जिद आत्मिक स्वास्थ्य की दृष्टि से भी बहुत अहम जगह है। शोध दर्शाते हैं कि मस्जिद में जाने से इंसान तन्हाई की भावना और दुख से मुक्ति पाता है। इसी तरह जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण, दुआ की स्वीकारोक्ति, विश्वास की भावना व ईश्वर पर भरोसा, सामूहिक रूप से दुआ के ज़रिए ईश्वर की कृपा का पात्र बनना, एक मुसलमान का दूसरे मुसलमान से संपर्क के ज़रिए मित्रता व भलाई की भावना का मज़बूत होना, मस्जिद में उपस्थित होने के अन्य सार्थक नजीते हैं। वास्तव में मस्जिद में लोगों के बीच हाज़िर होने से उनके साथ आत्मिक व भावनात्मक लगाव पैदा होता है, जिससे इंसान मन में शांति व प्रसन्नता का आभास करता है।

 

आत्मिक स्वास्थ्य, सुकून, चिंता रहित जीवन इंसान की मूल ज़रूरतें हैं। मनोवैज्ञानिक, लोगों के मानसिक स्वास्थ्य के लिए इस बात की कोशिश में हैं कि उन ग़लत विचारों, भावनाओं और व्यवहार को पहचानें जो बीमारियों व दुखों का कारण बनते हैं। वे इन तत्वों को बदल कर अच्छे जीवन के नियम प्रतिपादित करना चाहते हैं। पवित्र क़ुरआन में सुकून की प्राप्ति के हल को एक जुमले में पेश करते हुए ईश्वर की याद को सुकून का स्रोत बताया है। जैसा कि पवित्र क़ुरआन के रअद नामक सूरे की आयत नंबर 28 में ईश्वर कह रहा हैः ईश्वर की याद से मन को सुकून मिलता है और इसे मोमिन को ईश्वर की ओर से मिलने वाली कृपा गिनवाया है। जैसा कि फ़त्ह नामक सूरे की आयत नंबर 4 में ईश्वर कह रहा हैः उसी ने मोमिन के मन को सुकून दिया ताकि उनका ईमान बढ़े। चूंकि सुकून की प्राप्ति का सबसे अच्छा स्रोत ईश्वर की याद है और वही सुकून देता है, इसलिए जो स्थान इंसान को सबसे ज़्यादा सुकून पहुंचाते हैं, उनमें से एक मस्जिद है।

 

मस्जिद उस जगह को कहते हैं जहां ईश्वर की उपासना होती और उसका सजदा किया जाता है। इसलिए मस्जिद ईश्वर की निकटता की प्राप्ति और मन से उद्दंडता को ख़त्म करने का स्थान है। इंसान को चाहिए कि मस्जिद जाए ताकि ईश्वर का सामिप्य हासिल करे, ईश्वर के अलावा सबसे उम्मीद लगाना छोड़ दे और अपने मन को बुराइयों से पाक करे। इस पवित्र स्थान में नमाज़ी की कोशिश होती है कि वह इसके आध्यात्मिक माहौल से ख़ुद को समन्वित करे और मन के भीतर और बाहर की दुनिया के बीच टकराव को हल करे। रवायत में मस्जिद में मौजूद नमाज़ियों के लिए बहुत पुण्य बताए गए हैं। मस्जिद में हाज़िर रहने से इंसान के मन में उम्मीद की भावना जागृत होती है और उससे निराशा दूर होती है। इस तरह की रवायतों में इस लोक में मिलने वाले पारितोषिक के साथ परलोक के लिए भी शुभसूचना दी गयी है जैसे परलोक में सुकून, स्वर्ग में घर, ईश्वर का अपने घर का दर्शन करने वाले को सम्मानित करना, प्रलय के दिन चेहरे का प्रकाशमय होना, पापों की क्षमा, मौत के बाद और प्रलय से पहले बर्ज़ख़ नामक स्थान पर फ़रिश्तों के साथ उठना बैठना, फ़रिश्तों का मस्जिद के नमाज़ी के लिए ईश्वर से उसके पापों की क्षमा के लिए दुआ करना इत्यादि।

 

मस्जिद ईश्वर की उपासना और गुणगान के लिए बेहतरीन जगह है। मस्जिद का माहौल अध्यात्म से ओत प्रोत होता है इसलिए इसका इंसान की आत्मा पर असर पड़ता है। पैग़म्बरे इसलाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम फ़रमाते हैः जो व्यक्ति मस्जिद को अपना घर क़रार दे, ईश्वर उसकी आत्मिक व मानसिक शांति की गैरंटी लेता है। जैसा कि इस कथन में आया है, मस्जिद से संपर्क बनाने से सबसे पहले व्यक्ति इस दुनिया में शांति का आभास करता है और उसके बाद उसे परलोक में पारितोषिक मिलता है। इसलिए मस्जिद से संपर्क का इंसान के जीवन पर इस तरह असर होना चाहिए कि इससे दूरी उसके लिए बर्दाश्त करना मुमकिन न हो। इस तरह का भी कथन मिलता है कि मस्जिद में एक मोमिन बंदा इस तरह रहता है जिस तरह मछली पानी में रहती है। सबको पता है कि पानी से अगर मछली को निकाल लें तो उसका क्या अंजाम होगा।

 

इसी तरह पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम का एक और स्वर्ण कथन हैः "किसी मस्जिद में कोई गुट पवित्र क़ुरआन की तिलावत व शिक्षा के लिए नहीं बैठता मगर यह कि ईश्वर उस पर अपनी कृपा नाज़िल करता है।"

इन सभी रवायतों से पता चलता है कि मस्जिद में मौजूदगी से इंसान आत्मिक व मानसिक सुकून पाता है।

दैनिक जीवन की कठिनाइयां इंसान पर बहुत अधिक दबाव डालती हैं जिसकी वजह से नाना प्रकार की मानसिक बीमारी से उसके ग्रस्त होने की संभावना बनी रहती हैं। इस तरह के हमलों से निपटने और आत्मिक बीमारियों से बचने के लिए इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने फ़रमायाः "किस चीज़ ने तुम्हें इस बात से रोका है कि जब तुम्हें कोई दुख हो तो वज़ू करो और मस्जिद में जाकर दो रकत नमाज़ पढ़ो जिसमें ईश्वर से दुआ मांगो क्या तुमने ईश्वर का यह कथन नहीं सुना कि नमाज़ और धैर्य के ज़रिए ईश्वर से मदद चाहो।" यह रवायत इंसान को मस्जिद का दामन थामने और ईश्वर से आत्मिक व मानसिक बीमारियों से संघर्ष के लिए मदद मांगने पर बल देती है।

    

मस्जिदे कबूद के बारे में मज़ारे शरीफ़ के निवासियों का मानना है कि वहां हज़रत अली अलैहिस्सलाम दफ़्न हैं। हालांकि ठोस स्रोतों से इराक़ के पवित्र नगर नजफ़ में हज़रत अली अलैहिस्सलाम का मज़ार होने की पुष्टि होती है और जो व्यक्ति मज़ारे शरीफ़ में दफ़्न है वह संभवतः हज़रत अली अलैहिस्सलाम पोतों में से है।

 

बल्ख़ के लोगों के हवाले से पता चलता है कि "तल्ले अली" नाम से मशहूर टीले पर एक छोटा से गुंबद बरामद हुआ जिसमें स्पात की खिड़की और चांदी का ताला था। इस गुंबद के अंदर हिरण की खाल पर कूफ़ी लीपि में एक क़ुरआन, एक बड़ी तलवार और पत्थर था और उस पत्थर पर लिखा थाः "हाज़ा क़ब्रो वलीयिल्लाह अलीयुन असदुल्लाह" इसका अर्थ है यह अल्लाह के वली अली की क़ब्र है। जब उस गांव के लोगों को इस बात का पता चला तो वे बहुत ख़ुश हुए। जब यह ख़बर सल्जूक़ी शासक संजर तक पहुंची जो ख़ुरासान का शासक था, ख़ुद बल्ख़ शहर गया और उसने वहां के लोगों को 50000 दीनार उपहार दिए। शासक संजर संदूक़ या ताबूत को अपने साथ अपने शासन के केन्द्र मर्व ले जाना चाहते थे ताकि वहां वे उसे दफ़्न करें और उस पर मज़ार बनाएं लेकिन बल्ख़ के कुछ बड़े बुज़ुर्ग लोगों ने शासक को समझाया कि वे इस संदूक़ या ताबूत को न ले जाएं, उसे बल्ख़ में ही रहने दें। शासक अपने इरादे से पीछे हट गया और वहां उसने ईंट की एक छोटी सी इमारत बनवा दी। मंगोल शासक चंगेज़ ख़ान के ज़माने में यह इमारत गिरा दी गयी और दुबारा यह क्षेत्र अपने पहले वाले नाम अर्थात "तल्ले अली" के नाम से जाना जाने लगा।

 

वर्ष 859 हिजरी शम्सी में शासक हुसैन बायक़ुरा को एक ऐसा दस्तावेज़ मिला जिस पर यह बात लिखी हुयी थी। जांच से पता चला कि इस तरह का संदूक़ या ताबूत वहां पर मौजूद है। इसके बाद शासक हुसैन बायक़ुरा ने वहां पर गुंबद व रौज़ा बनवा दिया। उन्होंने वहां बसाने के लिए घर बनवाए, बाज़ार क़ायम कीं और बड़ी संख्या में हेरात के बड़े परिवारों को वहां भेजा। इसी तरह उन्होंने बल्ख़ की एक नदी से मज़ार शरीफ़ तक एक नहर खुदवायी जो शाही नहर के नाम से मशहूर हुयी। इन सब कार्यवाहियों के बाद यह शहर बहुत विकसित और मज़ारे शरीफ़ के नाम से मशहूर हुआ।

 

सैकड़ों साल के दौरान मस्जिदे कबूद बहुत से उतार चढ़ाव की साक्षी रही है। बल्ख़ के शासकों के दौर में इस मस्जिद के परिसर में विस्तार हुया और अनेक इमारतें इसके परिसर में बनायी गयीं। इन्हीं शासकों में एक शैबानी शासन श्रंख्ला के ग्यारहवें शासक अब्दुल मोमिन ख़ान उज़्बक ने इस मस्जिद के ऊपर एक गुंबद बनवाया। मोहम्मद ख़ान ने रौज़े के भीतर और इमारतों में साज सज्जा का काम करवाया और उसके आस-पास बाग़ लगवाए।

हज़रत अली के रौज़े की इमारत पर टाइल का काम शासक अलम ख़ान के दौर में हुआ। अफ़ग़ानिस्तान के आख़री बादशाह मोहम्मद ज़ाहिर शाह ने 1319 में रौज़े में दाख़िल होने वाले एवान सहित दूसरे भाग की मरम्मत और सजावट का काम करवाया।

इस मस्जिद का आंगन बहुत बड़ा है। इसके चार दरवाज़ों पर टाइल का काम किया गया है। इस मस्जिद के 4 दरवाज़े हैं और इनमे से हर दरवाज़ा सड़क पर खुलता है।

मस्जिदे कबूद में धार्मिक शिक्षा के लिए स्कूल भी मौजूद है जिसमें सैकड़ों की संख्या में बच्चे धार्मिक शिक्षा हासिल करते हैं। इस मस्जिद में 1365 में एक पुस्तकालय बनवाया गया। इन पुस्तकालय की कुछ किताबें बाख़्तरी, कियानी, सल्जूक़ी, तैमूरी और दूसरे इस्लामी दौर की हैं। इस लाइब्रेरी में ज़्यादातर किताबें हाथ की लिखी हुयी हैं।

 

नौरोज़ के अवसर पर हज़ारों की संख्या में सैलानी मस्जिदे कबूद के दर्शन करने जाते हैं और जश्न मनाते हैं। यह जश्न मीले गुले सुर्ख़ के नाम से मशहूर है। बल्ख़ के मैदानी इलाक़े नौरोज़ के मौक़े पर ट्यूलिप के फूलों से भरे हुए है। मैदान, पहाड़, टीले, खेत, बाग़ यहां तक कि घर की छत, दरवाज़े और दीवारें भी लाल रंग के ट्यूलिप के फूल से सजे होते हैं।

 

 

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