Jan ०८, २०१९ १६:०८ Asia/Kolkata

इस कार्यक्रम श्रंख्ला में हमने इस बात का उल्लेख किया कि इस्लामी संस्कृति में मस्जिद को हमेशा एक पवित्र स्थल के रूप में देखा गया है।

यह पवित्र स्थल ईश्वरीय बंदों के लिए उससे निकट होने का स्थान होने के साथ साथ ऐसी जगह भी है जहां राजनीति और क्रान्ति की दृष्टि से बहुत अहम फ़ैसले लिए गए यहां तक कि इस पवित्र स्थल में सैन्य मामलों में विचार विमर्श की सभा भी आयोजित हुयी। इसी तरह मस्जिद मुसलमानों की बीच एकता को प्रदर्शित करने वाला स्थल भी है। यह एकता हर समाज के बाक़ी रहने की मूल ज़रूरतों में है। मस्जिद में औरत मर्द, बच्चे बूढ़े सहित अनेक तरह के लोग और विभिन्न विचारों के लोग इकट्ठा होते हैं। एक मन व एक दिशा के साथ कांधे से कांधा मिलाए नमाज़ के लिए पंक्ति में खड़े होते हैं।

जिस मस्जिद से मुसलमानों के बीच एकता अधिक मज़बूत हो और समाज के विभिन्न वर्ग के लोग हाज़िर हों, वह मस्जिद ईश्वर की इच्छा के अधिक निकट है। एक मस्जिद में विभिन्न मतों व संप्रदाय के लोगों का इकट्ठा होना यह दर्शाता है कि उनके बीच आस्था व मत की दृष्टि से अंतर भी उनके बीच फूट पैदा नहीं कर सका। मस्जिद की एक ज़िम्मेदारी इस्लामी समाज में एकता को मज़बूत करना है और मस्जिद में नमाज़ पढ़ने वालों को भी चाहिए कि एक दूसरे से दोस्ती के साथ आपस में एक दूसरे के प्रति द्वेष मन से निकाल दें और इस्लामी समाज के खुले व छिपे दुश्मन के सामने अपनी एकता को दर्शाएं। यही वजह है कि ईश्वर ने अपने पैग़म्बर को उस मस्जिद में हाज़िर होकर नमाज़ पढ़ने से मना कर दिया जिससे इस्लामी समाज की एकता को नुक़सान पहुंचे। इसलिए पैग़म्बरे इस्लाम ने जब उन्हें यह पता चला कि ज़ेरार नामक मस्जिद को इस्लामी एकता को ख़त्म करने के लिए बनाया गया है, तो उसे गिराने का आदेश दिया।

 

आज भी जो लोग इस्लामी जगत के दुश्मनों से मुक़ाबला करने का इरादा रखते हैं, विभिन्न इस्लामी मतों के बीच एकता क़ायम करना उनकी एक शैली है और वे लोग शिया सुन्नी सहित मुसलमानों के बीच एकता के बारे में सोचते हैं। इस विचार की स्पष्ट मिसाल आयतुल्लाह इमाम मूसा सद्र के व्यक्तित्व में दिखाई देती है। इस महान धर्मगुरु का 1978 में अपहरण हुआ और उसके बाद से आज तक उनके बारे में कोई ख़बर न मिली। वह न सिर्फ़ मुसलमानों के बीच एकता बल्कि सभी इब्राहीमी धर्मों के बीच एकता के समर्थक थे। इसलिए वह न सिर्फ़ शिया सुन्नी संप्रदाय की मस्जिदों बल्कि गिरजाघरों में भी जाते और रविवार को प्रवचन भी देते थे। जिन दिनों इमाम मूसा सद्र लेबनान में थे, वे ज़्यादा समय ख़ास तौर पर ईदुल फ़ित्र और ईदुल अज़हा के अवसर पर जो मुसलमानों का संयुक्त त्योहार है, सुन्नी संप्रदाय की मस्जिदों में जाते और मस्जिद के इमाम के पीछे नमाज़ पढ़ते थे ताकि दर्शाएं कि वे शिया सुन्नी के बीच मतभेद नहीं मानते बल्कि मुसलमान धर्मशास्त्र में मतभेद के बावजूद इस्लामी जगत के बड़े मुद्दों के संबंध में एक ज़बान हो सकते हैं।

               

ईरान में इस्लामी क्रान्ति के आरंभिक वर्षों में जब क्रान्ति की धूम हर ओर थी, ज़ाहेदान जैसे शहर में जहां शिया और सुन्नी दोनों रहते हैं, एक हफ़्ता जुमे की नमाज़ शिया सुन्नी ज़ाहेदान की जामा मस्जिद में शिया इमाम स्वर्गीय आयतुल्लाह कफ़्अमी की इमामत में नमाज़ पढ़ते और अगले शुक्रवार को सब लोग जुमे की नमाज़ सुन्नी संप्रदाय की मस्जिद में सुन्नी इमाम मौलवी अब्दुल अज़ीज़ के पीछे पढ़ते और कोई भी व्यक्ति धर्मशास्त्र की दृष्टि से मतभेद को अहमियत नहीं देता था। इस संदर्भ में इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम की एक रवायत है जिसमें उन्होंने मुसलमानों के बीच एकता की रक्षा के लिए अपने सभी अनुयाइयों से फ़रमायाः "जो भी सुन्नी भाइयों की सामूहिक रूप से नमाज़ में भाग ले और पहली पंक्ति में खड़ा हो, उस व्यक्ति की तरह है जो अपनी तलवार निकाल कर ईश्वर के मार्ग में लड़े।" इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम के इस कथन का उद्देश्य स्पष्ट है क्योंकि मुसलमानों के बीच एकता व समरस्ता का प्रदर्शन पैग़म्बरे इस्लाम की आकांक्षा है और इसका मूल्य ईश्वरीय धर्म के दुश्मनों से लड़ने से कम नहीं है।

 

मशहद शहर में जो इस्लामी गणतंत्र ईरान का धार्मिक शहर है, सुन्नी संप्रदाय की सामूहिक रूप से चार मस्जिदों में नमाज़ पढ़ी जाती है जिसमें सबसे बड़ी मस्जिद अलफ़ारूक़ है जो वहदत मुहल्ले में स्थित है। इस मोहल्ले में तीन मस्जिदें, जामा मस्जिद अलफ़ारूक़ और अली बिन अबीतालिब मस्जिद सुन्नी संप्रदाय की और अबुल फ़ज़्ली मस्जिद शिया संप्रदाय की है। इस मोहल्ले के लोग विशेष दिनों ख़ास तौर पर इस्लामी एकता सप्ताह के अवसर पर जुमे की नमाज़ एक दूसरे की मस्जिदों में पढ़ते हैं। इस संपर्क की वजह से उन चरमपंथी लोगों की गतिविधियां नाकाम हो जाती हैं जो शिया और सुन्नी संप्रदाय के बीच मतभेद को बढ़ावा देना चाहते हैं। एक मुसलमान का दूसरे मत के मुसलमानों के बीच न जाने से बौद्धिक विचार विमर्श का माहौल बंद हो सकता और मुसलमानों के विभिन्न मतों की आस्था के संबंध में ग़लत धारणा फैल सकती है जिसके नतीजे में विभिन्न मत के लोगों में एक दूसरे के प्रति भ्रान्ति पैदा होगी और वे एक दूसरे को अपना दुश्मन समझने लगेंगे लेकिन जो संपर्क मस्जिद में हाज़िर होने से उनके बीच बनता है, उसकी वजह से एक दूसरे से हाथ मिलाते और आपस में मिल कर भाईचारे का जीवन बिताते हैं।    

              

राजधानी तेहरान में सुन्नी संप्रदाय की 100 से ज़्यादा मस्जिदें हैं। इनमें से कुछ मस्जिदें जैसे सादेक़िया मस्जिद, मस्जिदुन नबी और तेहरान पार्स मस्जिद, बहुत पुरानी मस्जिदें हैं जहां लाखों की संख्या में सुन्नी भाई ईद और शुक्रवार की नमाज़ के लिए हाज़िर होते हैं।

 

तेहरान की सादेक़िया मस्जिद के सुन्नी इमाम मामोस्ता अज़ीज़ बाबायी, ईरानी समाज में शिया सुन्नी के बीच एकता की ओर इशारा करते हुए कहते हैः "मैं पश्चिमोत्तरी ईरान के अर्दबील प्रांत के ख़लख़ाल ज़िले के एक गांव से हूं। हमारे गांव में सुन्नी संप्रदाय बहुमत में हैं लेकिन गांव के शिया भाइयों के साथ हम इस्लामी भाईचारे के साथ रहते हैं। लेकिन इस्लाम के दुश्मन शिया-सुन्नी के बीच फूट डालने की कोशिश में लगे रहते हैं।"

 

मामूस्ता अज़ीज़ बाबायी तेहरान की न सिर्फ़ सुन्नी संप्रदाय की मस्जिदों बल्कि शियों की मस्जिदों में भी भाषण दे चुके हैं। वे अब तक 2000 से ज़्यादा बार भाषण दे चुके हैं। वे छह साल क़ुम की यूनिवर्सिटी में रह चुके हैं। वे शियों के संबंध में सुन्नी संप्रदाय के बीच ग़लतफ़हमी के बारे में कहते हैं "अब तक कई बार ऐसा हुआ है कि सऊदी अरब में हंबली मत के धर्मगुरु मुझसे यह सवाल कर चुके हैं कि ईरान में शियों का क़ुरआन अलग होता है और मैंने ऐसे लोगों से बातचीत में हमेशा यह कहा कि ईरान में ईश्वरीय वाणी क़ुरआन की जो प्रति छपती है वैसी ही मक्का और मदीना में भी छपती है। लेकिन इसके बावजूद वे इस बात पर यक़ीन रखते हैं जिससे विभिन्न इस्लामी मतों के ख़िलाफ़ विदेशियों के व्यापक प्रचार का पता चलता है। ऐसे हालात में हमें चाहिए कि हम सही सूचना पहुंचाकर धर्मान्धी व पक्षपाती लोगों के मन से भ्रान्तियों को दूर करें। ईश्वर की कृपा की छत्रछाया में ईरान सरकार के अधिकारियों की कोशिश से देश में सुन्नी संप्रदाय के लोग अच्छी हालत में हैं और इस्लाम के दुश्मनों की कोशिशों के बावजूद सुन्नी संप्रदाय के लोग इस्लामी गणतंत्र ईरान के विकास में अपना योगदान दे रहे हैं।"          

कार्यक्रम के इस भाग में ईरान के सीस्तान व बलोचिस्तान प्रांत की "ख़ाश" नामक मस्जिद के बारे में बताने जा रहे हैं।

सीस्तान व बलोचिस्तान प्रांत में पुरानी जामा मस्जिद "ख़ाश" शिया सुन्नी के बीच एकता की प्रतीक है। स्थानीय बूढ़े व बुज़र्ग लोगों का कहना है कि लंबे समय से शिया और सुन्नी इस मस्जिद में एक साथ नमाज़ पढ़ते आ रहे हैं। "ख़ाश" ज़िले के जुमे के इमाम हुज्जतुल इस्लाम मोहम्मद हुसैन के अनुसार, इस मस्जिद में जो शिया सुन्नी के बीच एकता व समरस्ता की प्रतीक है, पांच वक़्त की नमाज़ पढ़ी जाती है।

 

इस मस्जिद की स्थापना 1928 में हुयी। उस समय 247 वर्गमीटर के क्षेत्रफल पर बुनियाद रखी गयी। मस्जिद की मुख्य इमारत की छत मेहराबी है जो 16 खंबों पर है।

ख़ाश जामा मस्जिद का मीनार कुंडलित बेलनाकार है। इस मीनार की बुनियाद गोलाकार है जिसमें ज्यामितीय डिज़ाइनें बनी हुयी हैं। मीनार पर ला इलाहा इल्लल लाह लिखा हुआ है। इस मिनार को ईंट, गारो, रेत और चूने के मसाले से बनाया गया है।

मस्जिद की इमारत का सौंदर्य इसकी मीनार से झलकता है जिसे बनाने में ईंट बहुत ही सुंदर ढंग से लगायी गयी है। मीनार के सबसे ऊपरी भाग में बने कंगूरे से मीनार की ख़ूबसूरती में चार चांद लग गया है। इसी तरह मीनार के निचले भाग में लगे शिलालेख से भी इसकी शोभा बढ़ गयी है।

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