Jan २६, २०१९ १३:३५ Asia/Kolkata

काफी समय से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अमेरिका की छवि खराब होती जा रही है।

इस विषय पर न केवल अमेरिका के विरोधी और प्रतिस्पर्धी देशों में चर्चा हो रही है बल्कि पश्चिमी देशों के राजनीतिक हल्कों में भी इस विषय पर बहुत अधिक चर्चा हो रही है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अमेरिका की छवि के ख़राब होने या अमेरिकी पतन के  संबंध में कुछ बिन्दुओं पर ध्यान देना ज़रूरी है। पहला यह कि अमेरिकी पतन की प्रक्रिया क्रमशः जारी है जो काफी समय पहले से आरंभ हुई है और आशा है कि भविष्य में भी जारी रहेगी। इस संबंध में दूसरा ध्यान योग्य बिन्दु यह है कि अमेरिकी पतन का अर्थ अमेरिका का कमज़ोर होना है न कि उसका अंत या विघटन है। इस संबंध में तीसरा महत्वपूर्ण बिन्दु यह है कि अमेरिकी पतन को समझने के लिए उसके अतीत पर नज़र डालना ज़रूरी है और यह समझना आवश्यक है कि अतीत में उसका स्थान कहां था जबकि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद और इसी प्रकार शीतयुद्ध के दौरान अमेरिका दो बड़ी शक्तियों में से एक महाशक्ति के रूप में सामने आया परंतु शीतयुद्ध के बाद और विशेषकर 21वीं शताब्दी में विभिन्न कारक इस बात का कारण बने कि अमेरिकी पतन की प्रक्रिया आरंभ हो गयी। अमेरिका की आलोचना करने वालों के अनुसार दुनिया में जो अमेरिकी धाक थी वह अपने अंत की ओर अग्रसर है और यह पतन केवल अमेरिका की सैन्य शक्ति के बारे में नहीं है बल्कि बहुत से विश्लेषकों का मानना है कि अमेरिका की साफ्ट शक्ति भी अपने पतन की ओर अग्रसर है। विश्व के बहुत से देश अमेरिका से विरक्त हैं और विश्व जनमत का विचार हालिया दशकों में अमेरिका के संबंध में बड़ी तेज़ी से बदला है और लोग उसके बारे में नकारात्मक सोच रखते हैं। इस प्रकार कि अब विश्व के बहुत से देश अमेरिका से घृणा करते हैं जबकि दशकों पहले अमेरिका विश्व का एक लोकप्रिय देश था। संगीत

ईरान की इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामनेई कहते हैं” अमेरिका अपने अंत की ओर अग्रसर है यानी दिन- प्रतिदिन उसकी छवि खराब हो रही है। अमेरिकियों को जिस स्थिति का सामना है उसका लंबा इतिहास है। उन्होंने पूरे इतिहास में एसी स्थिति उत्पन्न की जिसका नतीजा यही है और इतनी सरलता से इसका एलाज नहीं हो सकता। यह ईश्वरीय परम्परा है। इनका यही अंजाम होने वाला है कि वे दुनिया की शक्ति के मंच से मिट जायें।

दुनिया की एकमात्र बड़ी शक्ति के रूप में अमेरिका का पतन यानी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसकी छवि और उसकी धाक का खराब होना राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से पहले से भी जारी था परंतु ट्रंप ने पिछले दो साल के सत्ताकाल में जो एकपक्षीय और मनमानी वाली नीतियां अपनाई हैं उसके कारण न केवल अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अमेरिका का विरोध बढ़ा है बल्कि अपने घटकों के मध्य भी अमेरिका के अलग- थलग होने का कारण बना है। वियतनाम युद्ध, पूर्व सोवियत संघ का विघटन, शीत युद्ध की समाप्ति और 11 सितंबर जैसी घटनाओं ने इस प्रक्रिया में गति प्रदान कर दी। वियतनाम युद्ध अमेरिका की केवल बड़ी सैनिक पराजय नहीं थी बल्कि उसने अमेरिका की अर्थ व्यवस्था को भारी नुकसान पहुंचाया। क्योंकि अमेरिका ने पूरी आर्थिक, सैनिक और राजनीतिक शक्ति के साथ वियतनाम पर हमला किया था। दूसरी ओर यद्यपि पूर्व सोवियत संघ का विघटन विदित में अमेरिका के हित में समाप्त हुआ था परंतु इस महत्वपूर्ण घटना के बाद अब विश्व में अपना वर्चस्व फैलाने के लिए अमेरिका के पास कोई औचित्य नहीं रचा। वास्तव में पूर्व सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिका को, जो स्वयं को पूरी दुनिया का थानेदार दिखाने के प्रयास में था, गम्भीर ख़तरे का सामना हुआ।

वर्ष 1990 में सद्दाम ने कुवैत पर जो हमला किया था वह इस बात का बेहतरीन बहाना था कि अमेरिका दुनिया में अपनी सैन्य शक्ति का औचित्य दर्शाये परंतु अमेरिका और अमेरिका से बाहर आम जनमत की नज़र में यह प्रक्रिया जारी न रह सकी।  

दूसरी ओर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अमेरिका की जो छवि थी 11 सितंबर की घटना ने उसे भारी क्षति पहुंचाई। अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जार्ड डब्ल्यू बुश ने आतंकवाद से मुकाबले के बहाने हमला करके अफगानिस्तान और इराक का अतिग्रहण कर लिया और विश्व के दूसरे क्षेत्रों में अपनी सैनिक उपस्थिति को मज़बूत करना आरंभ किया। इस प्रकार पूरी दुनिया में अमेरिका से घृणा में वृद्धि होने लगी। उधर इसी बीच भारत और चीन जैसी नई आर्थिक शक्तियां उभरने लगीं और जो व्यापारिक प्रतिस्पर्धा थी उससे ट्रंप के सत्ताकाल में अमेरिका के लिए और चुनौतियां खड़ी हो गयीं और स्वयं अमेरिका के भीतर इस देश को विभिन्न और अत्याधिक समस्याओं का सामना हुआ। दूसरे शब्दों में अमेरिका के अंदर होने वाले परिवर्तनों की प्रक्रिया इस बात की सूचक है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दिन -प्रतिदिन अमेरिका की छवि ख़राब और उसकी धाक कम होती जा रही है। अमेरिकी पत्रिका “बोस्टन ग्लोब” ने इस संबंध में लिखा कि 20वीं शताब्दी में हमारी शक्ति में निरतंर वृद्धि होती रही और हमें दुनिया के दिशा- निर्देशन की आदत हो गयी परंतु भविष्य में हम दुनिया का दिशा- निर्देशन नहीं करेंगे।

अमेरिकी पतन का एक पहलु राजनीति है यानी राजनीतिक दृष्टि से भी अमेरिका का पतन हो रहा है। गत एक शताब्दी के दौरान अमेरिका के भीतर एसे गुटों में वृद्धि हो गयी है जिनका प्रभाव अमेरिका में बढ़ा है और इन गुटों ने अपने दलगत और व्यक्तिगत हितों को अमेरिका के राष्ट्रीय हितों पर प्राथमिकता दी है। वर्तमान समय में इस प्रकार के गुटों व धड़ों की कमी नहीं है जो अपने हितों को अमेरिका के राष्ट्रीय हितों पर प्राथमिकता दे रहे हैं और अमेरिका के सामूहिक हितों की अनदेखी कर रहे हैं। यही नहीं कुछ अवसरों पर राष्ट्रीय हितों के खिलाफ भी काम करते हैं। उदाहरण स्वरूप अमेरिका में जो युद्धोन्मादी धड़ा है उसने अमेरिकी अर्थ व्यवस्था और बजट को तबाही के मुहाने तक पहुंचा दिया है। इसका एक अन्य नमूना यह है कि मध्यपूर्व के संबंध में जो अमेरिकी नीति है वह ज़ायोनी लाबी विशेषकर अमेरिका की सार्वजनिक और इस्राईली संबंधों की समिति "आइपेक" के अनुसार है। अमेरिका के अंतरराष्ट्रीय मामलों के हारवर्ड विश्वविद्यालय के विशेषज्ञ व प्रोफेसर स्टीफेन वाल्ट और शिकागो विश्वविद्यालय के विशेषज्ञ व प्रोफेसर जॉन मेयर शाइमर कहते हैं कि इस समय अमेरिका में आइपेक की पकड़ बहुत मज़बूत है इस प्रकार से कि अमेरिका की विदेश नीति का आधार इस्राईली समर्थन होता है और अपेक्षा इस बात की है कि अमेरिका के भीतर प्रतिस्पर्धी गुटों व धड़ों में दूरी अधिक हो जाने के बाद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रभाव डालने की जो अमेरिकी क्षमता है उसमें कमी आयेगी। दूसरी ओर हालिया वर्षों में अमेरिका के अंदर सामाजिक दूरी के अधिक हो जाने के बाद यह मतभेद सामान्य सतह से अधिक हो गये हैं और अब वह अमेरिकी धड़ों के मध्य आइडियालोजी के युद्ध में परिवर्तित हो गयी हैं। इस स्थिति से अमेरिकी समाज में मौजूद एकता व एकजुटता ख़तरे में पड़ गयी है और इसी कारण अमेरिकी समाज पूंजीवादी व्यवस्था और पलायन की नीति जैसी विभिन्न प्रकार की समस्याओं व विषयों को लेकर दो ध्रुवीय हो गया है! अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के सत्ता काल में बहुत से सरकारी विभाग बंद चल रहे हैं। दूसरे शब्दों में अमेरिकी शटडाउन को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है और इस चीज़ से अमेरिकी अर्थ व्यवस्था पर विनाशकारी प्रभाव पड़ रहा है।

देश के भीतर अमेरिकी पतन का एक अन्य उदाहरण उसके प्रभाव में कमी है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद चार दशकों तक अमेरिका के बेहतर हालत में होने के बावजूद वर्ष 1980 के आरंभ से अमेरिका की जो राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था है उसकी अनुपयोगिता स्पष्ट हो गयी। अमेरिकी बजट और बजट घाटे में भारी असंतुलन उत्पन्न हो गया। अमेरिका के भूतपूर्व राष्ट्रपति रिगन के सत्ताकाल में निजी क्षेत्र बनाये जाने की जो प्रक्रिया चली उससे अमेरिकी अर्थ व्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा। यही नहीं अमेरिका की जो प्रबंधन व्यवस्था है वह भी आय में मौजूद खाई, निर्धनता और अपराध से मुकाबले जैसी समस्या का समाधान न कर सकी। ये समस्याएं वर्ष 2008 में अमेरिका की बड़ी आर्थिक समस्याओं में परिवर्तित हो गयीं। अच्छा प्रबंधन न होने के कारण बहुत से अमेरिकी बैंक और आर्थिक संस्थाएं एक के बाद एक दिवालिया हो गयीं और लाखों अमेरिकी निवेशकों की सम्पत्ति बर्बाद हो गयी। बुश सरकार ने विषम स्थिति को रोकने के लिए अमेरिका के आर्थिक मामलों में हस्तक्षेप किया और उन्हें अमेरिकी बजट घाटे और अमेरिका में टैक्स देने वालों के पैसों के नष्ट होने की समस्या का सामना करना पड़ा। यह अनुपयोगिता अमेरिकी जनमत की अप्रसन्नता में वृद्धि का कारण बनी यहां तक कि वर्ष 2016 में डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के राष्ट्रपति बन गये और वह भी अमेरिकी व्यवस्था में मौजूद अनुपयोगिता को कम न कर सके। अमेरिकी अनुपयोगिता में वृद्धि और राजनीतिक विवादों ने अमेरिकी राजनेताओं और इस देश की संस्थाओं की लोकप्रियता को कम कर दिया। वर्तमान समय में इस देश के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के अलावा अमेरिकी कांग्रेस पर भी लोगों का विश्वास कम हो गया है। अमेरिका में कराये जाने वाले सर्वेक्षण इस बात के सूचक हैं कि ट्रंप सरकार में बंद के कारण दिसंबर वर्ष 2018 में उनकी सरकार की लोकप्रियता 44 प्रतिशत से भी कम हो गयी है।

अमेरिका अपने पतन की ओर अग्रसर है यानी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसकी छवि खराब होती जा रही है उसका एक कारण अमेरिका में मौजूद सामाजिक दराड़ में वृद्धि है। इस समय अमेरिकी समाज पूंजी, रंगभेद और नस्ली भेदभाव जैसी विभिन्न प्रकार की समस्यायों से जूझ रहा है। अमेरिका में होने वाले हालिया कुछ वर्षों के परिवर्तन इस बात के सूचक हैं कि अमेरिकी समाज को अब भी नस्लभेद जैसी समस्या के अभिशाप का सामना है। वाशिंग्टन में राजनीतिक मामलों के विशेषज्ञ विल्मर लिओन कहते हैं कि डोनाल्ड ट्रंप के अमेरिका का राष्ट्रपति बन जाने से एक बार फिर अमेरिका में गोरे लोगों के श्रेष्ठ होने की धारणा ज़ोर पकड़ गयी। दूसरी ओर वर्ष 2008 में अमेरिका में आर्थिक संकट आने के बाद धनी और निर्धन लोगों की आमदनी में असाधारण विषमता उत्पन्न हो गयी और टी पार्टी और वाल स्ट्रीट पर कब्ज़ा जैसे आंदोलन अस्तित्व में आये। इन आंदोलनों ने अमेरिकी समाज में मौजूद दूरी को पहले से अधिक स्पष्ट कर दिया और अमेरिका में गत पचास वर्षों के दौरान राष्ट्रपति के सबसे हंगामेदार चुनाव की भूमि प्रशस्त हो गयी। इस समय अमेरिकी सरकार को पलायन और टैक्स जैसे विभिन्न विषयों में समस्याओं का सामना है और इनमें से हर एक समस्या अमेरिका में एक विवाद बन गयी है।