Jan २६, २०१९ १३:५८ Asia/Kolkata

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वाशिंग्टन का जो प्रभाव कम होता जा रहा है उससे अमेरिकी विदेश नीति की विफलता स्पष्ट होती जा रही है।

इसकी वजह अमेरिका की एकपक्षीय व मनमानी पर आधारित नीति है। यह नीति विशेषकर अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश के शासनकाल से आरंभ हुई जो अब तक जारी है और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अमेरिकी पकड़ कमज़ोर और उसकी छवि खराब होती जा रही है। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश ने आतंकवाद से मुकाबले के बहाने अफगानिस्तान और इराक पर जो हमला किया था उसे अमेरिका की मनमानी एवं एकपक्षीय नीति के परिप्रेक्ष्य में  देखा जा सकता है।

20 जनवरी 2017 को डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के नये राष्ट्रपति बन गये। उनके राष्ट्रपति बनने से अमेरिका की एकपक्षीय नीतियों में दोबारा गति आ गयी। ट्रंप ने नारा लगाया कि “पहले अमेरिका” यानी अमेरिका और अमेरिकियों के हित सर्वोपरि हैं। साथ ही उनका मानना है कि वाशिंग्टन की एकपक्षीय नीति अमेरिका के मज़बूत होने और अपने प्रतिस्पर्धियों पर हावी होने का कारण बनेगी।

यूरोपीय आयोग के प्रमुख जान क्लाड यूंकर के कथनानुसार ट्रंप का जो यह दृष्टिकोण है कि पहले अमेरिका तो उनका यह दृष्टिकोण ट्रंप के अलग- थलग होने का कारण बना है। साथ ही ट्रंप ने अपनी नीतियों में अप्रचलित शैलियों का सहारा लिया है। फ्रांसीसी शोधकर्ता मेरी सेसिल वेरहस का कहना है कि ट्रंप बहुपक्षीय विश्व व्यवस्था को खत्म करना चाहते हैं और उनकी नीति का आधार ज़ोर ज़बरदस्ती है और यह उनकी व्यक्तिगत विशेषता है।

इसी प्रकार ट्रंप ने जो यह नीति अपनाई है कि पहले अमेरिकी तो उनकी यह नीति इस बात का कारण बनी है कि कभी उनके दृष्टिकोण विश्व समुदाय यहां तक कि उनके यूरोपीय घटकों के भी खिलाफ होते हैं।

अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के पूर्व सदस्य राबर्ट मिक फारलेन कहते हैं” ट्रंप की एकपक्षीय नीतियों ने अमेरिका को अलग- थलग कर दिया है।

ट्रंप एकपक्षीय नीतियों पर चलकर और पूरी तरह तानाशाही रवइया अपनाकर विश्व के विभिन्न देशों यहां तक कि वाशिंग्टन के यूरोपीय घटकों पर अपने दृष्टिकोणों को थोपने की चेष्टा में हैं। ट्रंप ने यह कहकर बारमबार यूरोप की निंदा की है कि नैटो में उसकी भागीदारी कम है। साथ ही ट्रंप पेरिस जलवायु परिवर्तन से एकपक्षीय रूप से निकल गये जिसके कारण यूरोपीय  देशों के नेता अमेरिका से नाराज़ हो गये और उन्होंने ट्रंप की आलोचना की।

साथ ही 8 मई 2018 को ट्रंप ने घोषणा की थी कि अमेरिका ईरान के साथ होने वाले परमाणु समझौते से निकल गया है। उनका यह फैसला विश्व समुदाय और यूरोपीय देशों की इच्छा के खिलाफ था क्योंकि यूरोपीय देशों ने परमाणु समझौते की सुरक्षा पर बल दिया था।

फ्रांस के वित्तमंत्री ब्रुने ले मेयर कहते हैं” यह किसी प्रकार स्वीकार नहीं है कि अमेरिका विश्व में थानेदार की भूमिका निभाये।“

केवल अमेरिका के यूरोपीय घटक नहीं हैं जो ट्रंप के क्रिया- कलापों से अप्रसन्न हैं बल्कि सैनिक क्षेत्र में रूस और आर्थिक व व्यापारिक क्षेत्र में चीन है जो विभिन्न मामलों में ट्रंम की नीतियों की आलोचना कर चुके हैं। रूस के राष्ट्रपति व्लादीमीर पुतीन ने बल देकर कहा है कि अमेरिका की अगुवाई में एक ध्रुवीय विश्व व्यवस्था मास्को को स्वीकार नहीं है और रूस इस प्रकार की व्यवस्था को कभी भी स्वीकार नहीं करेगा। ट्रंप जो पेरिस जलवायु और परमाणु समझौते से निकल गये हैं और अपने दृष्टिगत जो व्यापारिक टैरिफ लगा दिया है उस पर विश्व समुदाय अमेरिका से नाराज़ है। दूसरे शब्दों में विश्व समुदाय ट्रंप के खिलाफ होता जा रहा है और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अमेरिका दिन-              प्रतिदिन अलग- थलग पड़ता जा रहा है। साथ ही एकपक्षीय और ग़ैर कानूनी कार्यवाहियों के कारण अमेरिका की साफ्ट शक्ति और अंतरराष्ट्रीय सतह पर अमेरिका की जो लोकप्रियता थी वह भी बहुत तेज़ी से कम होती जा रही है।

आर्थिक और व्यापारिक दृष्टि से भी अमेरिका की छवि बहुत ख़राब होती जा रही है। अमेरिका का जो आर्थिक पतन है उसके विभिन्न प्रतीक हैं यानी विभिन्न रूपों में उसे देखा जा सकता है। अमेरिका के बजट घाटे में असाधारण वृद्धि हो गयी है, व्यापारिक क्षेत्र में भी अमेरिका को दूसरी शक्तियों विशेषकर चीन के मुकाबले में बड़ी विफलता मिली है और अमेरिका पर जो ऋण है वह लगभग 22 ट्रिलियन डालर है और इसी तरह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर डालर में जो व्यापारिक लेन- देन होता है और डालर में विदेशी मुद्रा भंडार होता है उसमें भी अमेरिकी डालर की भूमिका दिन- प्रतिदिन कम होती जा रही है।

ट्रंप के सत्ताकाल में आर्थिक व व्यापारिक युद्ध भी ज़ोर पकड़ गया है और यह युद्ध भी ट्रंप की नीतियों एवं उनके क्रिया- कलापों का परिणाम है। जिन चीज़ों का आयात अमेरिका में होता है उस पर ट्रंप ने 25 प्रतिशत टैरिफ लगा दिया है जबकि इस्पात और अलमुनियम पर  10 प्रतिशत टैरिफ लगा दिया है। उनके इस कदम पर अमेरिका के व्यापारिक भागीदारों ने कड़ी आपत्ति जताई है और उन्होंने भी इसके जवाब में अमेरिका से आयात होने वाली कुछ वस्तुओं पर टैरिफ लगा दिया है।

इस कार्य का अर्थ एक व्यापारिक युद्ध का आरंभ हो जाना है और इस समय वह विस्तृत रूप धारण करता जा रहा है और विशेषकर अमेरिका और चीन के बीच टकराव का कारण बना है। यूरोप का मानना है कि व्यापारिक युद्ध में किसी की जीत नहीं होगी। इस समय अमेरिका और यूरोप के बीच व्यापारिक तनाव बढ़ता जा रहा है और ट्रंप ने यूरोपीय संघ को अमेरिका का व्यापारिक शत्रु तक कह डाला।

जर्मनी के वित्तमंत्री पीटर आल्ट मेयर ट्रंप सरकार की व्यापारिक नीतियों से उत्पन्न ख़तरनाक परिणामों के संदर्भ में कहते हैं” ट्रंप सरकार की ओर से चीन, तुर्की और दूसरे देशों के खिलाफ जो टैरिफ लगाये गये हैं उससे विश्व की अर्थ व्यवस्था पर ध्यान योग्य प्रभाव पड़ेंगे।

अमेरिका के आर्थिक एवं व्यापारिक भागीदारों के अनुसार ट्रंप सरकार ने जो टैरिफ लगाये हैं वह विश्व की अर्थ व्यवस्था में विकास के रुक जाने और अविश्वास उत्पन्न हो जाने का कारण बनी है। इसी प्रकार ट्रंप सरकार ने जो टैरिफ लगाये हैं उससे विशेषकर उपभोक्ताओं को सबसे अधिक नुकसान पहुंचेगा और चीज़ें भी बहुत महंगी हो जायेंगी। ट्रंप सरकार के उल्लंघनों के दृष्टिगत उस पर कोई विश्वास नहीं है और कहा जा सकता है कि व्यापारिक युद्ध की आग भविष्य में फिर भड़केगी। यूरोपीय परिषद के प्रमुख डोनाल्ड टोस्क ने अमेरिका और यूरोप के बीच बड़े पैमाने पर व्यापारिक युद्ध छिड़ने की चेतावनी देते हुए कहा है कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की विनाशकारी नीतियों के दृष्टिगत यूरोपीय संघ को चाहिये कि वह बुरी स्थिति का सामना करने के लिए स्वयं को तैयार रखे।

चीनियों को भी अपेक्षा है कि ट्रंप बीजींग के विरुद्ध अपनी व्यापारिक नीति को और कड़ा बनायेंगे। ट्रंप के क्रिया- कलापों ने दर्शा दिया है कि वह अपने प्रतिस्पर्धी से ध्यान योग्य विशिष्टता लेने के बाद न केवल प्रसन्न व संतुष्ट नहीं हो जाते हैं बल्कि उससे और नई विशिष्टता लेने की जुगत में पड़ जाते हैं। वह इस कार्य को टैरिफ लगाने जैसे विभिन्न तरीकों से अंजाम देते हैं।

अमेरिकी डालर की जो भूमिका थी अंतरराष्ट्रीय लेन- देन में उसकी भी भूमिका कम होती जा रही है। ट्रंप के सत्ताकाल में ज़ोर- ज़बरदस्ती पर आधारित अमेरिकी कार्यवाहियों व नीतियों में गति आ गयी है और अमेरिका बहुत से देशों पर दबाव डालने के लिए प्रतिबंधों का प्रयोग एक हथकंडे के रूप में करता है और अमेरिका के इस कार्य की निंदा बहुत से देशों यहां तक कि उसके यूरोपीय घटकों ने भी की है।

आज 60 प्रतिशत से अधिक विश्व का विदेशी मुद्रा भंडार अमेरिकी डालर में होता है परंतु अमेरिका ने बहुत से देशों के खिलाफ जो व्यापक व्यापारिक युद्ध छेड़ रखा है उससे यह धारण उत्पन्न हो गयी है कि विश्व में अमेरिकी डालर का वर्चस्व अधिक दिनों तक नहीं रहेगा। बहुत से देशों ने अमेरिकी डालर के प्रयोग को छोड़ दिया है और व्यापारिक लेन- देन दूसरी मुद्रा में कर रहे हैं। इस परिवर्तन का भविष्य में अमेरिकी अर्थ व्यवस्था पर ध्यानयोग्य प्रभाव पड़ेगा। इसका एक परिणाम यह होगा कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर  होने वाले व्यापारिक लेन- देन में डालर की भूमिका कम हो जायेगी और यूरो जैसी दूसरी मुद्राओं में व्यापारिक लेन- देन बढ़ जायेगा।

राजनीतिक मामलों के एक विशेषज्ञ विक्टोरिया क्राफर्ड के कथनानुसार विश्व की एकमात्र विदेशी मुद्रा भंडार अमेरिकी डालर है इस बात के दृष्टिगत राष्ट्रसंघ ने देशों का आह्वान किया है कि वे नई मुद्रा में विदेशी भंडार बनाने के लिए प्रयास करें।

अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष आईएमएफ ने विश्व के लिए नई मुद्रा में विदेशी भंडार को आवश्यक बताया है। इस प्रक्रिया का जारी रहना अंतरराष्ट्रीय स्तर पर डालर के प्रयोग में कमी का कारण बनेगा।

सैनिक क्षेत्र में भी अमेरिका की छवि खराब होती जा रही है। यद्यपि अमेरिका सदैव यह दावा करता है कि उसके पास विश्व की सबसे शक्तिशाली सेना है परंतु उसके बावजूद अमेरिकी सैनिकों को बड़ी व गम्भीर चुनौतियों का सामना है और उसकी क्षमता के बारे में भारी संदेह मौजूद हैं।

अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा और सैनिक स्ट्रैटेजी के दस्तावेज़ों में यद्यपि यह कहा गया है कि रूस और चीन के मुकाबले में अमेरिकी सेना को नई प्रतिस्पर्धा का सामना है और अमेरिकी सरकार ने बहुत से देशों के खिलाफ पूर्व आक्रमण की नीति अपनायी है परंतु अमेरिकी युद्धपोत एवं बेड़े हालिया दो दशकों के दौरान सबसे निम्न स्तर पर युद्ध की तत्परता रखते हैं।

यू एस एन आई साइट ने लिखा  है कि वर्ष 2018 में केवल 15 प्रतिशत अमेरिकी युद्धपोतों और बेड़ों में सैनिक कार्यवाहियों में भाग  लिया जबकि वर्ष 2013 में 22 से 25 प्रतिशत तक इन युद्ध पोतों  ने अपनी कार्यवाहियों में भाग लिया और अफगानिस्तान तथा इराक युद्ध के दौरान इन युद्धपोतों की भागीदारी 28 प्रतिशत रही है। रोचक बात यह है कि अमेरिकी नौसेना ने इस तथ्य की पुष्टि की है परंतु उसने दावा किया है कि आवश्यकता की स्थिति में वह हर समय अमेरिकी युद्धपोतों और बेड़ों का प्रयोग करने की तत्परता रखती है।

इन दावों के बावजूद विभिन्न रिपोर्टें इस बात की सूचक हैं कि अमेरिकी नौसेना सैनिक कार्यवाही के लिए तैयार नहीं है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इस देश की सेना की इस स्थिति को स्वीकार करते हुए वचन दिया है कि वह इस संबंध में बड़े पैमाने पर सुधार करेंगे और इसी परिप्रेक्ष्य में उन्होंने 2019 के लिए सैनिक बजट 716 अरब डालर पास किया है परंतु अमेरिकी सेना में मौजूद कमियों को दूर करने के लिए काफी समय की आवश्यकता है।

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपने चुनावी प्रचार के दौरान, जो चुनावी नारा दिया था कि “पहले अमेरिकी” तो उन्होंने सैनिक क्षेत्र में नई नीति अपनाई है। ट्रंप वर्ष 2018 के दिसंबर महीने के अंतिम दिनों में औचक यात्रा पर इराक गये थे वहां उन्होंने कहा था कि अमेरिका अब विश्व का थानेदार नहीं रह सकता।

साथ ही ट्रंप ने घोषणा की है कि जो देश यह चाहते हैं कि अमेरिका उन्हें सुरक्षा प्रदान करे तो उन्हें इसकी कीमत अदा करनी चाहिये।  ट्रंप का यह बयान इस बात का सूचक है कि वह हर मामले को व्यापार की दृष्टि से देखते हैं और राष्ट्रपति के रूप में उनका चयन सूक्ष- बूझ के आधार पर नहीं किया गया था और उसका एक कारण अमेरिका की आंतरिक अक्षमता है। अमेरिका द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पूंजीवादी व्यवस्था की सुरक्षा के साथ विश्व का थानेदार बन बैठा था। साथ ही इस समय अमेरिका पर लगभग 22 ट्रिलियन के क़र्ज़ का भारी बोझ है और एक ट्रिलियन से अधिक उसे बजट घाटे का सामना है।

एक रिपब्लिकन अमेरिकी सिनेटर रान्ड पाल कहते हैं” हम काफी समय से विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में युद्धरत हैं और हमने ट्रिलियनों ख़र्च किया है।“

यह स्थिति इस बात का कारण बनी है कि विश्व में अमेरिका की थानेदार की जो भूमिका है वह दिन-प्रतिदिन क्रमशः कम हो रही है। साथ ही अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने घोषणा की है कि अगर दूसरे देश अमेरिका के सैनिक खर्च को देने के लिए तैयार हैं तो अमेरिका विश्व में थानेदार की भूमिका निभाने के लिए तैयार है।