Feb ०३, २०१९ १७:०४ Asia/Kolkata

आपको याद होगा कि हमने कुछ कार्यक्रमों में मस्जिदों की वास्तुकला की विशेषताओं का उल्लेख किया और मस्जिद के प्रवेश द्वार के बारे में बताया।

धार्मिक स्थलों में विशेष तौर पर मस्जिदों के प्रवेश द्वार अन्य प्रकार की इमारतों के प्रवेष द्वार की तुलना में बहुत ही शानदार नज़र आते हैं। आम तौर पर मस्जिद का प्रवेश द्वार ऊंचे स्थान पर होता है और इसे विभिन्न प्रकार की कलाओं से सजाया जाता है, जैसे टाइल के काम, शिलालेख वग़ैरा से।

सार्वजनिक स्थलों में प्रवेश द्वार इमारत के भीतर और बाहर के स्थान को जोड़ते और समन्वित करते हैं। इसी वजह से इनकी डीज़ाइन में वास्तुकार बहुत ज़्यादा ध्यान देते हैं, क्योंकि प्रवेश द्वार इमारत की अस्ली विशेषताओं का चित्रण करते हैं।

ईरान में विभिन्न शहरों, क़स्बों और गावों में मस्जिद के प्रवेश द्वार की डीज़ाइन अलग अलग तरह की हैं। यह अंतर हर जगह की भौगोलिक, सामाजिक व आर्थिक स्थिति की वजह से है। जैसा कि हमने यह बताया कि मस्जिदों के प्रवेश द्वार में दरवाज़े से पहले पीश ताक़ और जेलोख़ान होते थे और इसके बाद मस्जिद का मुख्य दरवाज़ा होता था।

ईरानी वास्तुकला में मस्जिद, कारवांसराय और मदरसे के प्रवेश पर बने बड़े द्वार को पीशताक़ कहते हैं जबकि जेलोख़ान प्रवेश द्वार के पास मौजूद ख़ाली जगह को कहते हैं।

पांचवी हिजरी क़मरी के ईरानी शायर व लेखक नासिर ख़ुसरो क़ुबादयानी अपनी यात्राओं और यात्रा वृत्तांत के लिए मशहूर हैं। उन्होंने अपने यात्रा वृत्तांत में उस दौर के अनेक शहरों की वास्तुकला का उल्लेख किया है और मस्जिद की वास्तुकला का बहुत ही अच्छे अंदाज़ में वर्णन किया है। उन्होंने मक्के में मस्जिदुल हराम के प्रवेश द्वार के बारे में लिखा है कि उस समय मस्जिदुल हराम के 18 प्रवेश द्वार थे और इन प्रवेश द्वारों के स्तंभ संगे मरमर के थे और ये द्वार हमेशा खुले रहते थे।

मस्जिदों के दरवाज़े आम तौर पर लकड़ी के और ज़्यादातर आयताकार होते थे। इन दरवाज़ों की अहमियत का अंदाज़ा इन पर विभिन्न कलाओं के बने नमूनों से लगाया जा सकता है।

पुराने ज़माने में भले लोग एक सुंदर दरवाज़े का निर्माण करवाते, उसके किसी कोने पर अपना नाम लिखवाकर उसे मस्जिद को भेंट कर देते थे। मिसाल के तौर पर इस्फ़हान की जामा मस्जिद के मुख्य द्वार पर सुल्स लीपि में पवित्र क़ुरआन की आयतें लिखी हैं और उसके बाद उपहार देने वाले का नाम उस्ताद हुसैन बिन उस्ताद शाह मीरज़ा उकेरा हुआ है।

कुछ दरवाज़ों पर शेर, या धार्मिक बातें लिखी जाती थीं। यह चीज़ आपको पूरे ईरान में नज़र आएगी।

इस बात का उल्लेख ज़रूरी है कि अतीत में दरवाज़ों पर कुन्डी लगी होती थीं। धातु की ये कुन्डियां नाना प्रकार की होती थीं। दरवाज़े के हर पाट पर एक कुन्डी लगी होती थीं। इन्हीं कुन्डियों में हथौड़ी की तरह भी कुन्डी होती थी जिससे विशेष ध्वनी निकलती थी। जब पुरुष प्रवेष करता तो हथौड़ी जैसी कुन्डी इस्तेमाल करता जबकि दूसरे प्रकार की कुन्डी को जो ज़न्जीर की कड़ी की तरह होती थी, महिलाएं इस्तेमाल करती थीं। इस तरह किसी इमारत में मौजूद लोग आने वाले के बारे में पहले से अवगत हो जाते थे कि मर्द है या औरत।

जर्मन पर्यटक एंगलबर्ट कैम्पफ़र ने जिसने सफ़वी शासन काल में ईरान का भ्रमण किया था, अपने यात्रा वृत्तांत में तत्कालीन ईरान की स्थिति का वर्णन किया है। वह मस्जिदों की इमारत के बारे में लिखता है कि मस्जिद की इमारत का बाहरी हिस्सा द्वार के बजाए सुंदर ऐवान दिखता है। ऐवान इमारत के उस छतदार भाग को कहते हैं जो सामने से खुला होता है, उसमें दरवाज़े और खिड़की नहीं होती और उसके सामने प्रांगण होता है। मस्जिद में जैसे ही प्रवेश करते हैं पानी से भरा गोलाकार हौज़ है जिसमें लोग वज़ू करते हैं। वज़ू करने के बाद मस्जिद के मुख्य हॉल के सामने जूते उतार लेते हैं और सम्मानजनक ढंग से मुख्य हॉल में दाख़िल होते हैं ताकि नमाज़ पढ़ें।

अतीत में मस्जिद और स्कूल जैसे बहुत से सार्वजनिक स्थलों के बग़ल में या प्रवेश द्वार पर पत्थर का एक विशाल बर्तन रखा होता था जिसमें ठंडा पानी भरा होता था ताकि आने वाले लोग अपनी प्यास बुझा सकें। ऐतिहासिक स्रोतों में पत्थर के इस बर्तन को संगाब या जाम कहते थे। पत्थर के इन बर्तनों पर बहुत ही सुंदर चित्र बने होते थे। इन बर्तनों पर बने चित्र कला की दृष्टि से बहुत अहमियत रखते हैं। आम तौर पर पत्थर के इस बर्तन पर, भेंट करने वाले का नाम उकेरा होता था और कभी कभी संगाब नामक इस बर्तन कर्बला की महाघटना और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की शहादत का सांकेतिक रूप से उल्लेख होता था। ईरान में यह परंपरा है कि ईरानी जब भी ठंडा पानी पीते हैं तो कर्बला के अमर शहीदों की प्यास को याद करते हैं। अभी भी इस्फ़हान में शाह अब्बास कारवांसराय, चहार बाग़ नामक मदरसे और इमाम मस्जिद के प्रवेश द्वार पर संगाब अर्थात पत्थर के बने सुंदर विशाल बर्तन रखे हुए हैं। हालांकि इनमें पानी नहीं हैं बल्कि इन्हें सजावट के तौर पर रखा गया है।              

ईश्वर की बहुमूल्य नेमतों में एक पानी है जिसे इस्लाम में सफ़ाई और पवित्रता का माध्यम क़रार दिया गया है। इसलिए मस्जिदों के निर्माण में पानी के हौज़ की बहुत अहमियत है। आम तौर पर मस्जिद में हौज़ को मस्जिद के प्रांगण में बनाया जाता है। मस्जिद के प्रांगण के बीचो बीच हौज़ के अलावा महिलाओं और पुरुषों के लिए अलग अलग भूमिगत वज़ूख़ाने बनाए जाते हैं।

अतीत में वज़ूख़ाने या मस्जिद में बने हौज़ में पानी की सप्लाई भूमिगत नहरों से होती थी जिसे फ़ारसी में क़नात कहते हैं। तेहरान स्थित शहीद मुतह्हरी मदरसा और मस्जिद, क़ाजारी शासन काल की ऐतिहासिक इमारत है जिसमें ईरान की पारंपरिक वास्तुकला की बहुत ज़्यादा झलक नज़र आती है। इस मस्जिद में स्थित हौज़ में पानी की आपूर्ति भूमिगत नहर से होती थी।

शीराज़ स्थित अतीक़ जामा मस्जिद ईरान में स्थित मस्जिदों में अपनी वास्तुकला की दृष्टि से विशेष अहमियत रखती है। इस मस्जिद की मूल इमारत 281 हिजरी क़मरी बराबर 894 ईसवी में बनी थी। इतिहास की किताबों में है कि इस मस्जिद की दालानों में पानी से भरे संगाब रखे होते थे।

मोरक्को के आठवीं हिजरी क़मरी के मशहूर पर्यटक इब्ने बतूता ने शीराज़ की अतीक़ जामा मस्जिद को देखा था और अपने यात्रा वृत्तांत में लिखा है कि यह मस्जिद संग मरमर की बनी है। वह लिखते हैं कि मस्जिद के प्रांगण में 3 हौज़ हैं। दो हौज़ बारह कोणीय हैं जबकि एक हौज़ अष्टकोणीय है। इस मस्जिद की विशेष वास्तुकला के मद्देनज़र सुंदर पेन्टिंग लगायी गयी है। कुछ पेन्टिंग में मस्जिद के हौज़, मस्जिद के आंगन में पानी की व्यवस्था, यहां तक कि वज़ू करने वालों के बहुत से चित्र बनाए गए हैं। इस मस्जिद की सुंदर पेन्टिंग मशहूर ईरानी चित्रकार कमालुद्दीन बहज़ाद की कला के नमूने हैं।

 

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