Mar ०२, २०१९ १४:५० Asia/Kolkata

इस्लामी क्रान्ति के घटने के बारे में एक दृष्टिकोण मार्क्सवादी है।

कार्ल मार्क्स की नज़र में क्रान्ति किसी ऐतिहासिक चरण से दूसरे चरण में बदलाव को कहते हैं जो उत्पादन की शैली में बदलाव की वजह से होता है। दूसरे शब्दों में क्रान्ति उस समय घटती है जब सत्ताधारी वर्ग श्रम बम का शोषण इस हद तक करता है कि समाज का विभिन्न वर्ग इस ओर से जागरुक हो जाता और अंततः सत्ताधारी वर्ग के ख़िलाफ़ श्रमिक क्रान्ति लाते हैं। वास्तव में कार्ल मार्क्स क्रान्ति के प्रकट होने का कारण आर्थिक मामलों को मानते हैं।

ओलिवएर रॉय जैसे लेखक की यह कोशिश है कि इस्लामी क्रान्ति की जड़ को मार्क्सवादी विचार में ढूंढे और उसका श्रेय बुद्धिजीवियों को न कि धर्मगुरुओं को दें।

इस्लामी क्रान्ति के बारे में मार्क्सवादी दृष्टिकोण की समीक्षा में यह कहना चाहिए कि अगरचे ईरान की इस्लामी क्रान्ति एक आयामी नहीं थी लेकिन इस बात में शक नहीं कि इसका मुख्य कारण आर्थिक नहीं था। इस्लामी क्रान्ति के संस्थापक स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह इस दृष्टिकोण की समीक्षा में कहते हैः "न मैं और न ही कोई बुद्धिमान यह कहने की कल्पना कर सकता है कि हमने ख़रबूज़ा सस्ता होने के लिए खून दिया। क्या यह कहना बौद्धिक है कि मैं इसलिए शहीद हुआ कि मेरा पेट भर जाए? यह तर्कपूर्ण नहीं है। सभी वर्ग के लोग और औरतें सड़कों पर निकल आयीं। सभी जगह यह आवाज़ उठी कि हम इस्लाम चाहते हैं। हमारे महापुरुषों ने भी इस्लाम के लिए जान दी न कि अर्थव्यवस्था के लिए।"

इस दृष्टिकोण की क्रान्ति के बारे में दूसरे विचारकों ने भी आलोचना की है। इन्हीं विचारकों में मंसूर मोअद्दिल भी हैं। वह मार्क्सवादी दृष्टिकोण की आलोचना में लिखते हैः "आर्थिक मुश्किलों और सामाजिक असंतोष में से किसी से भी 50 के दशक के अंतिम वर्षों के क्रान्तिकारी संकट का औचित्य पेश नहीं होता। क्रान्तिकारी संकट उस समय घटा जब सरकार विरोधी गुटों की गतिविधियां शियों के क्रान्तिकारी विचार से समन्वित हुयीं।"

मीशल फ़ूको भी इस बात की पुष्टि में कहते हैं "अगर ईरान की इस्लामी क्रान्ति, आर्थिक क्रान्ति होती तो ईरान की राष्ट्रीय एयरलाइन या आबादान रिफ़ाइनरी के कर्मचारियों सहित समाज का समृद्ध वर्ग उसमें शामिल न होता।" फ़ूको कहते हैः "उस समय ईरान में आर्थिक मुश्किले इतनी कठोर नहीं थीं कि एक राष्ट्र को लाख लाख लोगों, दसियों लाख लोगों के गुट में सड़कों पर ले आए और वह सीना खोल कर गोलियों का सामना करे।"

मंसूर मोअद्दिल

 

क्रान्ति के बारे में एक और मशहूर विचारक जेम्ज़ डेविस हैं, जिनका दृष्टिकोण "अपेक्षाकृत वंचित्ता" या "जे कर्व" के नाम से मशहूर है। डेविस का मानना है कि निर्धनता या "परम वंचित्ता" विद्रोह या क्रान्ति के शुरु होने का तत्व नहीं बन सकती क्योंकि परम निर्धनता में लोग अपनी ज़रूरत की चीज़ों को पूरा करने की कोशिश करते हैं। जब लोग बहुत ही बुरी स्थिति में रह रहे हों तो उनकी ओर से विद्रोह बहुत मुश्किल है। जो चीज़ अहम है वह "अपेक्षाकृत वंचित्ता" है। यह परम वंचित्ता नहीं है जो विद्रोह का कारण बने बल्कि अपेक्षाकृत वंचित्ता से होता है। जब किसी समाज में समृद्धता का एक दौर अपेक्षाकृत लंबा होता है तो उसमें यह अपेक्षा पैदा होती है कि ज़रूरतों की हमेशा आपूर्ति हो और बेहतर जीवन के लिए मज़बूत विश्वास जन्म लेता है। अब अगर विकास व स्थिर समृद्धता के लंबे दौर के बाद पतन शुरु हो और वस्तुओं व सेवाओं में कमी आ जाए, तो अनिश्चित्ता की स्थिति वजूद में आती है और लोगों को यह विश्वास होने लगता है कि वे अपनी ज़रूरतों की आपूर्ति नहीं कर पाएंगे और फिर लोगों की अपेक्षाओं और जो कुछ वास्तव में वे हासिल करते हैं उनके बीच व्यापक खायी पैदा होती है। अलबत्ता लोगों की अपेक्षा और वास्तविकता के बीच हमेशा खायी होती है लेकिन ऐसे हालात में लोगों की अपेक्षाएं बढ़ती रहती हैं और अचानक आर्थिक हालात में ख़राबी लोगों के लिए असहनीय हो जाती है जिसके कारण उत्पन्न निराशा व्यापक विरोध व क्रान्ति लाती है। अगर यह खायी बहुत ज़्यादा होकर असहनीय हो जाए तो सामूहिक रूप से आक्रमकता पैदा होती है जो क्रान्तियों व आंदोलनों में नज़र आती है।

ईरान की इस्लामी क्रान्ति ने जेम्ज़ डेविस के दृष्टिकोण में त्रुटि को स्पष्ट कर दिया और यह साबित कर दिया कि हर क्रान्ति की अपेक्षाकृत वंचित्ता और आर्थिक समस्याओं के आधार पर समीक्षा नहीं की जा सकती। ईरानी समाजशास्त्री फ़रामर्ज़ रफ़ीपूर अपनी किताब "विकास और टकराव" में डेविस के दृष्टिकोण के बारे में लिखते हैः "ईरान में हमने देखा कि 45 से 55 के वर्षों में छात्रों की संख्या तेज़ी से बढ़ी थी। लोगों की आय भी बढ़ी थी जिसके पीछे सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि कारण थी और इस वृद्धि के पीछे तेल का उचित क़ीमत पर बिकना था। सकल घरेलू उत्पाद में यह वृद्धि 1356 तक लगातार रही कि इसी साल क़ुम शहर में क्रान्ति की पहली चिंगारी भड़की जो दूसरे शहरों तक पहुंची। इसलिए श्रीमान डेविस का "जे कर्व" ईरान के केन्द्रीय बैंक के आंकड़ों के आधार पर ईरान की क्रान्ति के बारे में निरर्थक है हालांकि कुछ समीक्षक ईरान की इस्लामी क्रान्ति की समीक्षा में डेविस के "जे कर्व" को आधार बनाते हैं।

जेम्ज़ डेविस

 

मोहम्मद हुसैन पनाही ने भी एक शोध में दर्शाया है कि ईरान में इस्लामी क्रान्ति को वजूद में लाने में सांस्कृतिक तत्वों का अधिक रोल रहा है जबकि आर्थिक तत्वों की इस संदर्भ में अधिक अहमियत नहीं थी। वह इस बारे में कहते हैः "इस्लामी क्रान्ति के लक्ष्य व मूल्यों के बारे में 659 नारे दिए गए और इनमें से 261 नारे राजनैतिक लक्ष्य के बारे में थे और वे नारे क्रान्तिकारियों व जनता के दृष्टिगत राजनैतिक व्यवस्था के स्वरूप को दर्शाते थे, लेकिन सांस्कृतिक मूल्यों व लक्ष्यों के बारे में नारे अधिक थे। ये कुल नारों का 54 फ़ीसद थे। संस्कृति के बारे में क्रान्तिकारियों के नारों की मात्रा यह दर्शाती है कि लोग समाज व शासन की सांस्कृतिक स्थिति से अप्रसन्न थे। कुल नारों में आर्थिक मूल्यों से संबंधित नारों की संख्या 39 थी जो कुल नारों का 6 फ़ीसद होती है जिससे पता चलता है कि जनता और क्रान्तिकारियों की नज़र में आर्थिक आयाम की अहमियत कम थी।"

वास्तव में ईरान की इस्लामी क्रान्ति से जो बीसवीं शताब्दी की आख़िरी सामाजिक क्रान्ति है, जेम्ज़ डेविस के दृष्टिकोण पर प्रश्न चिन्ह लग गया और  इस क्रान्ति से साबित हो गया कि सभी क्रान्तियों की आर्थिक तत्वों के आधार पर व्याख्या नहीं की जा सकती। चामर्ज़ जॉनसन भी क्रान्तियों के बारे में मशहूर विचारकों में गिने जाते हैं। चामर्ज़ जॉनसन यह मूल सवाल उठाते हैं कि क्यों स्थिर समाजों में अचानक उप्रदव जन्म लेता है और उनकी संरचना बदल जाती है? चामर्ज़ जॉनसन की नज़र में एक सामाजिक व्यवस्था में संतुलन मूल्यों के बीच अनुकूलता के स्तर और उसमें काम के बंटवारे पर निर्भर होता है और चूंकि ये दोनों तत्व सामाजिक व्यवस्था के निर्माण में निर्णायक होते हैं, उनमें बदलाव भी सामाजिक संरचना में बदलाव का कारण बनते हैं। जब व्यवस्था पर दबाव चाहे बाहर से या भीतर से हो, महसूस होने लगे और सामाजिक ढांचे में बदलाव ज़रूरी लगने लगे, उस समय सामाजिक व्यवस्था में बदलाव के अलग अलग रूप प्रकट होते हैं, तब ऐसे हालात में वास्तविक क्रान्ति के जन्म लेने का ख़तरा होता है। चामर्ज़ जॉनसन का मानना है कि जब एक समाज के मूल्य उसकी वास्तविकताओं के अनुकूल होते हैं, समाज क्रान्ति से सुरक्षित होता है।

चामर्ज़ जॉनसन

 

बहुत से विचारकों ने ईरान की इस्लामी क्रान्ति की समीक्षा में चामर्ज़ जॉनसन के दृष्टिकोण से मदद लेने की बहुत कोशिश की है। अलबत्ता यह दृष्टिकोण बड़ी हद तक ईरान की इस्लामी क्रान्ति के संबंध में चरितार्थ होता है लेकिन इस्लामी क्रान्ति के घटने से चामर्ज़ जॉनसन के दृष्टिकोण की सबसे बड़ी आलोचना यह है कि चामर्ज़ जॉनसन ने नेतृत्व के रोल को कोई अहमियत नहीं दी है। यह ऐसी हालत में है कि बहुत से विचारकों का यह मानना है कि इस्लामी क्रान्ति के घटने में इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह के नेतृत्व का रोल बहुत प्रभावी था। इस्लामी क्रान्ति दर्शाती है कि सिर्फ़ हालांत और मूल्यों के बीच असंतुलन के कारण क्रान्ति प्रकट नहीं होती बल्कि क्रान्ति को ऐसे नेता की ज़रूरत होती है जो जनता में लोकप्रिय हो।

चामर्ज़ जॉनसन के दृष्टिकोण में एक त्रुटि यह भी है कि वह क्रान्ति को मूल रूप से एक भटकाव मानते हैं, हालांकि ईरान की इस्लामी क्रान्ति सहित दूसरी क्रान्तियों को भटकाव नहीं कहा जा सकता बल्कि विभिन्न आयामों से मौजूदा हालात को लेकर असंतोष था और वह हालात में जनता की पहचान और उसकी मांगों से विरोधाभास था। दूसरे शब्दों में इस्लामी क्रान्ति ने चामर्ज़ जॉनसन के इस दृष्टिकोण पर सवाल खड़ा कर दिया कि क्रान्ति एक भटकाव है। ईरान की इस्लामी क्रान्ति पहचान,१ धार्मिक रुझान और न्याय की मांग पर आधारित क्रान्ति है जिसमें आर्थिक आयाम भी था।

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