Feb १८, २०१९ १७:३० Asia/Kolkata

डाक्टर यान रिचर्ड फ्रांस के प्रसिद्ध इस्लाम वेत्ता, विशेषज्ञ और सोरबन विश्व विद्यालय में ईरानी मामलों की संस्था के प्रोफ़ेसर और प्रबंधक हैं।

उन्होंने दर्शनशास्त्र में एमए किया और साहित्य में उन्होंने बीए की डिग्री प्राप्त की। डाक्टर यान रिचर्ड ने इस्लामी शोध और राजनैतिक शास्त्र के विषय पर दो बार डाक्ट्रेट की डिग्री प्राप्त की। यान रिचर्ड ने फ़ारसी भाषा में डिप्लोमा हासिल किया जो उन्होंने पेरिस में पूर्वी सभ्यता और राष्ट्रीय भाषा केन्द्र से प्राप्त किया। सोरबन विश्व विद्यालय के प्रोफ़ेसर डाक्टर यान रिचर्ड, न्यू सोरबन विश्वविद्यालय में ईरान के मामलों के शोध के प्रोफ़ेसर, न्यू सोरबन विश्वविद्यालय में ईरानी संस्था के प्रबंधक भी हैं जबकि वह ईरान में फ़्रांस के बारे में ईरानी संघ के प्रबंधक और ईरान- फ़्रांस संस्था और अवशेष के निदेशक भी रहे हैं। उन्होंने अब तक फ़ारसी साहित्य और भाषा, ईरान के समकालीन इतिहास, ईरान में धर्म, ईरान के वर्तमान समाज और ईरान में शीया मुसलमानों के बारे में बहुत से शोध किए हैं। डाक्टर यान रिचर्ड ने इसी प्रकार बीसवीं सदी में ईरान नामक पुस्तक लिखी है जिसमें उन्होंने जान पेयर डिगार्ड और बर्नार्ड ओरकार्ड जैसे बुद्धिजीवियों का सहयोग प्राप्त किया। इसी प्रकार उन्होंने बर्नार्ड ओरकार्ड के साथ मिलकर ज्वालामुखी के नीचे तेहरान नामक पुस्तक लिखी जबकि उन्होंने शीया इस्लामः ईमान और आडियालोजी और आज के ईरान की प्रशंसा के लिए सौ शब्द नामक पुस्तक भी लिखी है। फ़्रांस के यह विश्लेषक, ईरान की इस्लामी क्रांति पर सांस्कृतिक रूप से अपना दृष्टिकोण पेश करते हैं और ईरान की इस्लामी क्रांति से प्रभावित होकर मूल दृष्टिकोणों की आलोचना करते हैं जबकि देखा जाए तो उन्होंने ईरान की इस्लामी क्रांति सहित क्रांति के पैदा होने में संस्कृति पर विशेष रूप से ध्यान नहीं दिया।

यान रिचर्ड और उनकी पुस्तक बीसवीं सदी में ईरान नामक पुस्तक में नज़र डालने से पता चलता है कि फ़्रांस के इस्लामी मामलों के विश्लेषक यान रिचर्ड का मानना है कि शाह की सरकार 1960 के दशक के बाद पश्चिमी संस्कृति में डूब गयी और इस चीज़ ने ईरान के अधिकतर सामाजिक वर्ग विशेषकर व्यापारियों और धर्मगुरुओं को चिंतित कर दिया। फ़्रांसीसी विश्लेषक कहते हैं कि मुहम्मद रज़ा पहलवी पूरी तरह से पश्चिमी संस्कृति में डूब चुका था और इस विषय के कारण उसने ईरानियों की धार्मिक पहचान की अनदेखी करते हुए ईरानी समाज में धर्म को जड़ से उखाड़ फेंकने पर काम शुरु कर दिया किन्तु उसकी यही कार्यवाही, उसकी सरकार के पतन की मुख्य वजह बनी।

डाक्टर यान रिचर्ड ने ईरान के बारे में जो शोध किया और इस्लाम के बारे में उनका जो मानना है, बयान करते हैं कि ईरान में 1970 के दशक में पश्चिमी विचारों के राजनैतिक और आर्थिक वर्चस्व से जुड़ने की वजह से धर्मगुरुओं की ओर से पश्चिम के विरुद्ध उठ खड़े होने और उसका भरपूर विरोध किए जाने का कारण बना और यह धर्मगुरु हमेशा से अपनी ईरानी संस्कृति की ओर पलटने को अपना लक्ष्य क़रार देते थे। इस फ़्रांसीसी इस्लाम वेत्ता का मानना था है कि ईरान की क्रांति में शीया एक उच्च विचार से एक उच्च आस्था में परिवर्तित हो गया और ईरान के बुद्धिजीवियों और धर्मगुरुओं ने इसको पहचान की जंग का नाम देकर इससे भरपूर लाभ उठाया।

जान पेयर डिगार्ड भी ईरान की क्रांति के बारे में दृष्टिकोण पेश करने वालों में से रहे हैं। जान पेयर डिगार्ड फ़्रांस के बड़े बुद्धिजीवियों में गिने जाते थे। उन्होंने इस्लामी क्रांति के बारे में अपना दृष्टिकोण पेश करने के साथ ही शीया धर्म की संस्कृति और उसमें होने वाले परिवर्तनों पर भी विशेष रूप से ध्यान दिया है।

 

जान पेयर डेगार्ड के अनुसार 1978 की शीया क्रांति, एक प्रकार से शीया मुसलमानों की विशेष क्रांति है जिसने क्रांति के इतिहास में स्वर्णिम अध्याय जोड़ दिया। उनका मानना है कि शीया धर्म की प्रवृत्ति में परिवर्तन और उसका अस्तित्व में आना, किसी भी प्रकार से अचानक या घटनास्वरूप नहीं था। उनका मानना था है कि शीया धर्म एक, घटनाक्रम, एक विदित टैक्टिक या एक अस्थाई चलचित्र नहीं है। इसीलिए ईरान की क्रांति को अन्य समाजिक क्रांतियों की भांति समझा नहीं जा सकता और इसको भीतरी व्यवस्था और धार्मिक पहचान की गहराईयों से हटकर समझने का प्रयास करना चाहिए।

इस फ़्रांसीसी विश्लेषक का यह मानना है कि ईरान की अधिकतर जनता के धर्म के रूप में शीया धर्म, हमेशा से विश्व शक्तियों के विरोध का केन्द्र रहा है। डिगार्ड कर्बला की घटना को शीया मत के पैदा होने का कारण बताते हैं और ईरान की इस्लामी क्रांति के अस्तित्व में आने में कर्बला की घटना का प्रभाव मानते हैं। इस संबंध में वह लिखते हैं कि कर्बला की घटना की याद में आयोजित होने वाले वार्षिक कार्यक्रम बहुत ही भव्य रूप से मनाया जाता है, हर साल उसकी याद बहुत ही भव्य रूप से मनाई जाती है और कर्बला की महा घटना को जीवित किया जाता है, इस प्रकार से कर्बला की घटना, ईरानियों के सामाजिक और राजनैतिक जीवन के लिए एक समृद्ध, स्थाई, मज़बूत और पक्का स्रोत बन गयी है।

 

ईरानी लोग कर्बला की घटना को आधार बनाते हुए अपना जीवन जीते हैं। कर्बला और आशूर की घटना, ईरान में शीया पंथ की जीवन शैली के आस्था के आधार में परिवर्तित हो गयी यही कारण है कि कर्बला की घटना को जीवित रखना और ईरान में शहादत, अदालत और वास्तविकता जैसे सेम्बल, एक संयोग, सादा और ऐसे ही छोड़ देने योग्य नहीं है बल्कि जीवन की एक प्रकार की शैली है कि जो छायी हुई है, जारी और इसके प्रभाव क्रांति के दौरान पूरी तरह से दिखाई दिए। ईरान में जब क्रांति के लिए सड़कों पर व्यापक स्तर पर प्रदर्शन हो रहे थे तो 1978 में युवाओं ने सैनिकों की गोलियों के सामने अपने सीने पेश कर दिए और यह चीज़ कर्बला के अलावा कहीं और नहीं मिलती। कर्बला के इन्हीं सेम्बल और नारों के कारण ईरानी जनता ने स्वयं को हुसैनी और शाह को यज़ीदी क़रार दिया था।

डेगार्ड ने ईरानी जनता की संस्कृति की ओर संकेत करते हुए क्रांति को इमाम हुसैन और कर्बला की घटना पर निर्भर क़रार दिया। शीया मुसलमानों के अज़ादारी के कार्यक्रम की वजह से सड़कों पर विरोध प्रदर्शन होने लगे और यही वह स्थान थे जहां पर शीया युवा और धर्मगुरु एक साथ एकत्रित होते थे। इमाम ख़ुमैनी का कहना है कि ईरान की इस्लामी क्राति आशूरा की छत्रछाया और महान ईश्वरीय क्रांति है।

एक अन्य विषय जिसकी ओर डेगार्ड ने इस्लामी क्रांति के बारे में पेश किया है, वह ईरान में क्रांति पैदा होने के धार्मिक सेंबल के सामने आने में इमाम ख़ुमैनी के बारे में धर्मगुरुओं की भूमिका है। डेगार्ड के अनुसार इस्लामी क्रांति, शीया अध्यात्मिकता के हालिया एक शताब्दी के वैचारिक प्रयासों और कोशिशों का परिणाम है। देश की आंतरिक क्षमता में अध्यात्मिकता के साथ इतना अधिक विस्तार हुआ और यह परिपूर्णता तक पहुंच गया कि यह चीज़ जनता के जीवन में इतनी रच बस गयी कि इसको अलग नहीं किया जा सकता।

वह इस संबंध में कहते हैं कि 1978 में शीया धर्मगुरुओं ने वह फल चुना जिसका बीज उन्होंने एक शताब्दी के दौरान लोगों के दिलों में डाला था।

 

एंथोनी ब्लैक पश्चिम के एक अन्य बुद्धिजीवी हैं जिन्होंने इस्लामी राजनैतिक विचार का इतिहास, पैग़म्बरे इस्लाम के काल से आज तक नामक पुस्तक लिखी और वे इस पुस्तक में इस्लामी क्रांति की ओर संकेत करते हैं । वह इस्लामी क्रांति के अस्तित्व में आने के तीन कारण बयान करते हैं। एंथनी ब्लैक लिखते हैं कि इमाम ख़ुमैनी के राजनैतिक विचार, किसी व्यक्ति या व्यक्ति की सरकार पर बल के लेहाज़ से सही है और अन्य क्रांतिकारियों से पूर्णरूप से भिन्न थी और शायद समकालीन इतिहास में अद्वितीय थी। उन्होंने विलायत फ़क़ीह की एक शाखा के रूप में इस्लामी सरकार को पेश किया और इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए एक विदेशी पिट्ठु के रूप में शाह की विश्वसनीयता को समाप्त कर दिया था।

1960 के दशक के अंत में और 70 के दशक के आरंभ में आयतुल्लाह इमाम ख़ुमैनी और अन्य लोगों ने यह दृष्टिकोण पेश किया कि जब सरकार पूर्ण रूप से अतिग्रहणकारियों और अत्याचारियों के हाथ में हो, तो न्यायप्रिय धर्मगुरु की ज़िम्मेदारी है कि यदि सरकार पर नियंत्रण प्राप्त करने की संभावना हो तो वह मुसलमनों के बीच न्याय और व्यवस्था स्थापित करें, उस काल में इस प्रकार का दृष्टिकोण पेश करना इसीलिए था क्योंकि वह शाही सरकार को इस्लाम विरोधी सरकार समझते थे। (AK)

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