Mar ०४, २०१९ १३:३८ Asia/Kolkata
  • हुसैन बिन मंसूर हल्लाज- 7

आज की कड़ी में हम ईरान में तीसरी शताब्दी हिजरी क़मरी के मशहूर सूफ़ी हुसैन बिन मंसूर हल्लाज के बारे में बताने जा रहे हैं जिन्होंने अपने जीवन, अपनी बातों यहां तक कि अपनी मौत से दुनिया में बड़ी हलचल पैदा कर दी और शताब्दियों का समय बीत जाने के बावजूद आज भी ईरानी व पश्चिमी शोधकर्ता उनके बारे में लिख रहे हैं।

ईश्वर की याद में लीन रहने वाली इस हस्ती ने ईरान, भारत, तत्कालीन तुर्किस्तान, चीन और माचीन के शहरों में बड़ी संख्या में लोगों को प्रभावित किया।

प्राचीन फ़ारसी में मौजूदा चीन के सिन कियांग राज्य के अलावा क्षेत्रों को माचीन कहते थे।

हमने कहा कि पश्चिम एशिया के विशेषज्ञों सहित दूसरे विशेषज्ञों ने हुसैन बिन मंसूर हल्लाज को पहचनवाने के लिए काफी प्रयास किया परंतु उसके बावजूद अभी भी उनकी वास्तविक शख़्सियत बहुत से आयाम से स्पष्ट नहीं है।

हल्लाज का अस्ली नाम हुसैन और उनके पिता का नाम मंसूर था। प्राचीन किताबों व स्रोतों में हल्लाज की पैदाइश का कोई उल्लेख नहीं मिलता। इस्लामी इनसाइक्लोपीडिया में उनके जन्म का साल 244 हिजरी क़मरी बराबर 858 ईसवी बताया गया है। फ़्रांस के तीन पूर्व विद लुईस मासिन्यून ने अपनी किताब "हल्लाज की मुसीबतें" हेनरी कॉर्बेन ने इस्लामी दर्शनशास्त्र के इतिहास में और रोजे ऑर्नल्ड ने हल्लाज का मत नामक किताब में हल्लाज के जन्म का साल 244 या इसके आस- पास माना है परंतु इनमें से किसी भी किताब में इस दावे की सच्चाई में कोई दस्तावेज़ पेश नहीं किए गये हैं। ऐसा लगता है कि हल्लाज के जन्म का साल अनुमान पर आधारित है जिसके ज़रिए शोधकर्ताओं ने हल्लाज के जीवन की घटनाओं का अनुमान लगाया है। कुछ स्रोतों जैसे जामी की नफ़हातुल उन्स किताब और हल्लाज के बारे में की गयी शायरी में हल्लाज के जन्म का साल 248 हिजरी क़मरी बताया गया है।

                                                                

हल्लाज का जन्म फ़ार्स प्रांत के बैज़ा शहर के उपनगरीय भाग में स्थित तूर नामक गांव में हुआ था। वह बचपन में ही अपने परिवार के साथ इराक़ के वासित नगर पलायन कर गए। हल्लाज शब्द का अर्थ रूई को बीज से अलग करने या रूई धुनने के हैं। शुरु में उनकी यही उपाधि थी और धीरे- धीरे उनका अस्ल नाम उनकी उपाधि के सामने दब गया।

हल्लाज ने ज्ञान अर्जित करने के लिए युवाकाल से ही यात्रा आरंभ की और सहल बिन अब्दुल्लाह तुस्तरी, अम्र बिन उसमान मक्की और प्रख्यात ईरानी परिज्ञानी जुनैद नेहावंदी जैसे अपने समय के बड़े गुरूओं की शिष्यता ग्रहण की और उन सब के निकट एक होनहार शिष्य के रूप में विशेष स्थान प्राप्त किया। उनके बारे में कहा गया है कि वह जहां भी जाते थे बहुत अधिक लोग उनके अनुयाई हो जाते थे और ये चीज़ बगदाद के धर्मशास्त्रियों और शासकों के भय का कारण बनी और अंततः बग़दाद के तत्कालीन शासकों और धर्मशास्त्रियों ने हल्लाज पर विभिन्न आरोप लगाकर उन्हें जेल में डाल दिया और आठ वर्षों तक उन पर मुकद्दमा चलाने के बाद उन्हें मौत की सज़ा सुनाई।

जिस दिन उन्हें फांसी दी जानी थी उस दिन सुबह सवेरे उन्हें उस स्थान पर ले जाया गया जहां उनको फांसी दी जानी थी। जब उन्हें ले जाया गया तो उनके दोनों हाथ बंधे हुए थे और उनकी गर्दन में भारी तौक़ डाली गयी थी। उनके व्यवहार और चेहरे पर कहीं से भी भय के चिन्ह नहीं दिखाई दे रहे थे। वह हंसते थे और जो लोग उनका तमाशा देखने आये थे उनसे हल्लाज बहुत ही मित्रतापूर्ण अंदाज में बात करते थे।

जिस रास्ते से हल्लाज को ले जाया गया था उसमें लोगों की भारी भीड़ लगी थी। सब पर शोक और दुःख की लहर छाई हुई थी परंतु हल्लाज का खुशी से ठिकाना न था वह मरने नहीं बल्कि अपने प्रेमी के दर्शन के लिए जा रहे थे। जब हल्लाज फांसी के फंदे के निकट पहुंच गये तो उन्होंने उस समय के प्रसिद्ध परिज्ञानी शिब्ली से कहा कि वह अपने मुसल्ले को उनके लिए किबला रुख बिछा दे। जब मुसल्ला बिछा दिया गया तो उन्होंने बहुत ही शांत भाव से दो रकअत नमाज़ पढ़ी और उसके बाद अपनी हत्या करने वालों के लिए दुआ की और उन सबको माफ कर दिया। फिर उसके बाद उन्होंने खुशी से फांसी के फंदे की ओर आगे क़दम बढ़ाया और लोगों की ओर मुंह करके ऊंची आवाज़ में चिल्लाकर कहाः ईश्वर को पा जाने वाले के लिए यही काफी है कि उसने मुझे अपना बना लिया है और अंतिम क्षणों में भी वह केवल महान ईश्वर और उस पवित्र आवाज़ के बारे में सोचते थे जो उनके मुंह से निकली थी और कहा था कि अनल हक़ यानी मैं हक व सत्य हूं।

                         

6 हिजरी कमरी के नीशापुर के प्रसिद्ध ईरानी दार्शनिक फरीदुद्दीन अत्तार ने अपनी किताब "तज़केरतुल औलिया" में इस कटु घटना का वर्णन बड़े ही मार्मिक ढंग से किया है। अत्तार लिखते हैं “हल्लाज ने जब फांसी के फंदे पर लटकने के लिए बनी सीढ़ी पर कदम रखा तो लोगों ने उनसे पूछा क्या हाल है? इसके जवाब में हल्लाज ने कहाः मर्दों की मेराज फांसी है। हाथ उठाया, किबले की तरफ चेहरा किया, प्रार्थना की और उसके बाद फांसी के फंदे को अपने में डाल लिया। उसके बाद अबू हारिस नामक जल्लाद उनके समीप आया और उन्हें इतना मारा कि उनका माथा फट गया और उनकी नाक से खून बहने लगा।

हुसैन बिन मंसूर हल्लाज को एक दिन तक फांसी के फंदे पर लटकाए रखा गया और उन्हें प्रताड़ित किया। शाम को हल्लाज को जेल ले गये और 24 ज़िलहिज्जा 309 हिजरी कमरी को दोबारा वहीं लाये जहां उन्हें फांसी के फंदे पर लटकाया था।

अत्तार नीशापुरी उस समय की घटना का वर्णन अपनी किताब तज़केरतुल औलिया में इस प्रकार करते हैं” हर आदमी हल्लाज पर पत्थर फेंक रहा था। शिब्ली उस समय का प्रसिद्ध रहस्यवादी और परिज्ञानी था उसने हल्लाज पर फूल फेंका। इस पर हल्लाज ने आह भरी, लोगों ने कहा इतना सारा पत्थर फेंका गया क्यों आह नहीं किये? फूल फेंके जाने पर आह कर रहे हो? इसके पीछे क्या रहस्य है? हल्लाज ने कहा इसके पीछे रहस्य है यह है कि जो लोग नहीं जानते हैं और पत्थर फेंकते हैं उनकी कोई ग़लती नहीं है परंतु उससे यह कार्य कठिन लगता है जो जानता है कि पत्थर नहीं फेंकना चाहिये।“

अत्तार नीशापुरी अपनी किताब तज़केरतुल औलिया में लिखते हैं” जब हल्लाज का हाथ काट दिया गया तो वह हंसे। लोगों ने कहा क्यों हंस रहे हो? इस पर हल्लाज ने कहा हाथ बधे आदमी का हाथ काटना आसान है। मर्द वह है जो विशेषताओं का हाथ काट दे,,,,,। इसके बाद हल्लाज का पैर काट दिया गया इस पर भी हल्लाज हंसे और कहा मैं इन पैरों से ज़मीन की यात्रा करता था। मेरे पास दूसरा पैर भी है और उससे मैं दोनों ब्रह्मांड की यात्रा करूंगा, अगर काट सकते हो तो दोनों पैरों को काट दो। इसके बाद हल्लाज ने कटे हुए दोनों हाथों को अपने चेहरे पर मल लिया और चेहरे और कोहनी दोनों को खून से रंगीन कर लिया। लोगों ने कहा यह क्यों किया? तो हल्लाज ने कहा मेरे शरीर से बहुत सारा खून बह गया है। मेरा चेहरा पीला हो गया होगा। आप लोग सोचते होंगे कि यह पीलापन भय की वजह से है। मैंने अपने चेहरे पर खून मल लिया है ताकि तुम्हारी नज़रों में सुर्खरू रहूं। लोगों ने कहा कि जब चेहरे पर खून मल लिये तो कोहनी को क्यों रंगीन किये? इस पर हल्लाज ने कहा इससे वुज़ू करता हूं। लोगों ने कहा कौन सा वुज़ू? हल्लाज ने कहा प्रेम में दो रकअत नमाज़ है जिसके लिए वुज़ू सही नहीं होगा किन्तु खून से। उसके बाद हल्लाज की आंखों को भी निकाल लिया गया। यह दृश्य देखकर लोगों में हंगामा मच गया कुछ लोग रो पड़े जबकि कुछ ने पत्थर फेंका। इसके बाद हल्लाज की ज़बान को काटना चाहते थे तो हल्लाज ने कहा थोड़ा धैर्य करो कुछ बात कर लूं। अपना चेहरा आसमान की ओर किया और कहा मेरे पालनहार मुझे यातना देने वालों को वंचित न करना और उन्हें अपनी सम्पत्ति से बेनसीब न कर। तेरा शुक्र है कि तेरी राह में मेरा हाथ-पैर दोनों कट गया है और अगर सिर को शरीर से अलग कर दिया तो फांसी के फंदे से तेरी महानता का दर्शन करूंगा। उसके बाद हल्लाज की नाक और कान काट दिये गये और उन पर पत्थर फेंके गये।  

 

खून में लथ- पथ हुसैन बिन मंसूर हल्लाज का शरीर पूरे दिन धूप में पड़ा रहा। यह वह समय था जब हल्लाज के हाथ, पांव, नाक और कान सब काट लिये गये थे और आंख निकाल ली गयी थी। शाम की नमाज़ के समय उनके अधमरे शरीर से सिर को अलग कर दिया गया। जब हल्लाज का सिर काटा जा रहा था तो उन्होंने एक मुस्कान ली थी और अपनी जान, जान के रचयिता के हवाले कर दी।

हल्लाज के कटे हुए सिर, हाथ, पैर, आंख, नाक और कान आदि को लोगों को देखने के लिए रखा गया था। अत्तार नीशापुरी ने अपनी किताब तज़केरतुल औलिया में लिखा है कि जब हल्लाज की हत्या की जा रही थी तो उनके शरीर से निकलने वाली खून की हर बूंद से अल्लाह शब्द दिखाई देता था। हल्लाज जो अपने पालनहार से प्रेम करते थे उनका प्रेम अभी पूरा नहीं हुआ था। टुकड़े- टुकड़े हुए हल्लाज के शरीर को अगले दिन चटाई में लपेटा गया और उस पर तेल छिड़क कर आग लगा दी गई और उसकी राख को नगर के मीनार से हवा में उड़ा दिया गयी और हवा ने उसे पूरी दुनिया में फैला दिया। अत्तार नीशापुरी ने लिखा है कि एक दरवेश ने हल्लाज से पूछा कि प्रेम क्या है? तो हल्लाज ने कहा था “कि आज देख रहे हो और कल और परसों” उसके बाद उनकी हत्या कर दी गयी और उसके अगले दिन उन्हें जला दिया गया और उसके अगले दिन उनकी राख हवा में उड़ा दी गयी। प्रेम यानी यह।

अत्तार नीशापुरी हुसैन बिन मंसूर हल्लाज के जीवन की अंतिम घड़ी का वर्णन करते हुए लिखते हैं" हुसैन बिन मंसूर हल्लाज ने अपने सेवक से कहा था कि जब मेरी राख दजला नदी में फेंक देंगे तो नदी में उथल- पुथल मच जायेगी जब देखना कि बगदाद के डूबने का ख़तरा पैदा हो गया है तो उस समय मेरे वस्त्र को ले जाना उसे दजला नदी में डाल देना तो उसका पानी शांत हो जायेगा। तीसरे दिन लोगों ने हल्लाज की राख को दजला नदी में फेंक दिया। जैसे ही राख से अनल हक की आवाज़ आई दजला नदी का पानी बढ़ने लगा। हल्लाज का सेवक उनका वस्त्र ले गया और उसने नदी के पानी पर डाल दिया तो वह शांत हो गया और उनकी राख एकत्रित हो गयी जिसे ले जाकर दफ्न कर दिया गया।  

 

हुसैन बिन मंसूर हल्लाज के मरने के बाद ख़लीफा के दरबार में भारी दुःख और मौन का वातावरण छा गया। ख़लीफा की मां बहुत दुःखी हुई। कहा गया है कि जब तक हल्लाज के सिर को खुरासान नहीं भेजा गया ताकि उसे समूचे क्षेत्र में घुमाया जाये उस वक्त तक ख़लीफ़ा की मां ने महल के ख़ज़ाने में उसे सुरक्षित रखा। इसी प्रकार उसने अपने भाई की क़ब्र के पास एक ज़मीन वक्फ की ताकि लोग हुसैन बिन मंसूर हल्लाज की समाधि के दर्शन के लिए जा सकें।