May २२, २०१९ १६:२० Asia/Kolkata

इराक़ के बासी शासन ने 21 सितंबर 1980 को ईरान की सीमाओं पर अतिक्रमण करते हुए ईरान के ख़िलाफ़ खुल्लम खुल्ला जंग छेड़ी थी।

इराक़ द्वारा थोपी गयी जंग विशेष लक्ष्य के साथ शुरु हुयी। इस लक्ष्य में ईरान को बांटना और नवस्थापित इस्लामी गणतंत्र व्यवस्था को ख़त्म करना था।

इस दृष्टि से इस बुरे लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ख़ुर्रमशहर की रणनैतिक दृष्टि से अहम बंदरगाह का अतिग्रहण अतिक्रमणकारी इराक़ और उसके समर्थकों के लिए पुल के समान था। लेकिन ख़ुर्रमहशर की आज़ादी ने अतिक्रमणकारी बासी शासन के सभी समीकरण उलट दिए।

ईरान के ख़िलाफ़ इराक़ द्वारा थोपी गयी जंग में ख़ुर्रमशहर की आज़ादी किस तरह अमर शौर्यगाथा बन गयी, इसके बारे में जानना आपके लिए बहुत रोचक होगा।

ख़ुर्रमशहर की जनता ने अतिक्रमणकारी सेना की ओर से नाकाबंदी और भीषण हमलों का 35 दिन तक प्रतिरोध किया लेकिन कुछ ग़द्दार तत्वों की ग़द्दारी की वजह से अंत में दुश्मन के अतिग्रहण में चला गया। सद्दाम शासन और उसके समर्थकों के लिए ख़ुर्रमशहर का अतिग्रहण जंग में जीत की कुंजी थी। सद्दाम ने बड़ा बोल बोलते हुए कहा था कि अगर ईरान ख़ुर्रमशहर को आज़ाद करवा ले तो हम बसरा की कुंजी ईरान के हवाले कर देंगे।

ख़ुर्रमशहर का अतिग्रहण 20 महीने जारी रहा लेकिन अंत में इस्लामी क्रान्ति के संस्थापक स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी के ख़ुर्रमशहर की नाकाबंदी को तोड़ने के आदेश के बाद, ख़ुर्रमशहर की आज़ादी का अभियान शुरु हुआ।

24 मई 1982 को यह बंदरगाही ऐतिहासिक शहर एक आश्चर्यजनक अभियान के ज़रिए दुश्मन के चंगुल से आज़ाद हुआ। इस शहर की आज़ादी ईरान के इतिहास में अमर शौर्यगाथा बन गयी।

ख़ुर्रमशहर की आज़ादी से जंग की रणनीति बदल गयी और इसके परिणाम में सद्दाम शासन और उसके समर्थकों के सभी जंगी आकलन उलट पलट गए जिन्होंने अंतिम सफलता तक पहुंचने के लिए ख़ुर्रमशहर के अतिग्रहण को आधार बनाया था।

ख़ुर्रमशहर की आज़ादी से ईरान के ख़िलाफ़ इराक़ जंग के आकलन में नया समीकरण आ गया।

ख़ुर्रमशहर की आज़ादी का अभियान पारंपरिक सैन्य अभियान नहीं था बल्कि यह सफलता प्रतिरोध, वीरता, आत्मसम्मान, ईश्वर पर आस्था और भविष्य के प्रति आशा की भावना के साथ सबसे कठिन हालात में दृढ़ संकल्प का नतीजा थी।

ख़ुर्रमशहर की आज़ादी का अभियान अतिक्रमणकारी सेना पर सीधे तौर पर पड़ने वाली चोट से कहीं बड़ी चीज़ थी। इस अभियान के सैन्य दृष्टि से बहुत बड़े प्रभाव सामने आए। इस आश्चर्यजनक सफलता से ईरानी राष्ट्र की वास्तविक शक्ति दुश्मन के सामने स्पष्ट हो गयी

अमरीका के तत्कालीन राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बर्जेन्सकी ने कहा थाः अमरीका को ईरान की इस्लामी क्रान्ति से मुक़ाबले के लिए उन देशों को साथ में मिलाना चाहिए जो ईरान के इस्लामी शासन के ख़िलाफ़ अभियान की क्षमता रखते हैं।"

ख़ुर्रमशहर की आज़ादी के लिए ईरानी राष्ट्र के सपूतों ने जिस शौर्य का प्रदर्शन किया उसने पवित्र रक्षा काल के महाकाव्य को अमर बना दिया। यह ऐतिहासिक घटना बहुत ही संवेदनशील समय में घटी। यह वह समय था जब ईरान के दुश्मन अपना लक्ष्य साधने के लिए जहां तक मुमकिन था सैन्य धमकी और पाबंदी को हथकंडे के तौर पर इस्तेमाल कर रहे थे।

इस बारे में फ़्रांसीसी अख़बार लिब्रेशन ने लिखा थाः ""ईरानियों के हाथों ख़ुर्रमशहर के आज़ाद होते ही तुरंत अमरीका, योरोप और फ़ार्स की खाड़ी के कुछ देशों ने इस जंग को ख़त्म करने के अनेक उपाय अपनाए ताकि इस तरह सद्दाम का पतन रोक सकें।

अमरीका ने फ़ार्स की खाड़ी में जहाज़ों की सुरक्षा के ख़तरे में पड़ने और तेल की आपूर्ति की रक्षा के बहाने क्षेत्र में अपनी सैन्य उपस्थिति का औचित्य पेश किया इस तरह उसने अपने सबसे बड़े जंगी बेड़े को फ़ार्स की खाड़ी रवाना किया।

इस बड़ी घटना से पता चलता है कि ख़ुर्रमशहर की आज़ादी एक अमर शौर्यगाथा है जो दुश्मन से निपटने में सैन्य रचनात्मकता व शक्ति का संपूर्ण आदर्श है। अतिक्रमणकारी को मार भगाने के लिए रक्षात्मक, सुरक्षात्मक और रणनीतिक संचालन की उत्कष्ट मिसाल और इतिहास रचने वाली घटना है।  

लेकिन सद्दाम की हक़ीक़त यह थी कि वह अमरीका के लिए एक हथकंडे के समान था जिसे वह क्षेत्र में अपने लक्ष्य साधने के लिए इस्तेमाल कर रहा था। यही वजह है कि जब सद्दाम के इस्तेमाल की उपयोगिता ख़त्म हो गयी तो सद्दाम इराक़ पर अमरीकी हमले की बलि चढ़ा। ईरान जंग के अंत के बाद सद्दाम ने तत्कालीन अमरीकी सरकार के इशारे पर कुवैत पर हमला किया। कुवैत पर हमले से अमरीका को फ़ार्स की खाड़ी में सैन्य हस्तक्षेप करने का एक बार फिर बहाना मिला। अमरीका ने 21 मार्च 2003 को आतंकवाद से संघर्ष के बहाने सामूहिक विनाश के हथियारों को ख़त्म करने, विश्व शांति की स्थापना, प्रजातंत्र व आज़ादी दिलाने जैसे नारों के साथ इराक़ पर चढ़ाई की और उसे अपने अतिग्रहण में ले लिया।

तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज डबल्यू बुश ने इस जंग का औचित्य पेश करते हुए कहा थाः "एक छोटा देश विषय नहीं है बल्कि हमारा लक्ष्य एक नई वैश्विक व्यवस्था की स्थापना है। ऐसी व्यवस्था जिसमें विभिन्न देश एक आंदोलन के तहत इकट्ठा हों ताकि पूरी दुनिया के इंसानों की शांति, सुरक्षा, आज़ादी और क़ानून का प्रभुत्व क़ायम होने की इच्छा पूरी हो।

तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति के सलाहकार ने भी कहा थाः "इराक़ जंग में हमारी जीत और इस देश पर नियंत्रण से हमे एशिया और योरोप दो महाद्वीपों में अमरीका का आर्थिक प्रभुत्व उपहार में मिलेगा।"

अमरीकी अख़बार वॉशिंग्टन पोस्ट ने लिखा थाः "अलक़ाएदा और सद्दाम के बीच किसी तरह का कोई संपर्क नहीं था, वाइट हाउस ने यह विषय उठायाथा ताकि जंग के लिए अमरीकी जनता का समर्थन मिल सके।"

यह श्रंख्लाबद्ध घटनाएं दर्शाती हैं कि थोपी गयी जंग के समय से इन वर्षों के दौरान अमरीका का लक्ष्य क्षेत्र को अशांत करके अपना वर्चस्व क़ायम करना है।

ईरान क्षेत्र का एक ज़िम्मेदार व प्रभावशाली देश है लेकिन वह कभी भी युद्धोन्मादियों व अतिक्रमणकारियों के जाल में नहीं फंसा। जिस समय सद्दाम शासन ने 1991 में कुवैत पर हमला किया तो ईरान के ख़िलाफ़ जंग में सद्दाम की मदद करने वाले देशों की मदद को तेहरान ने भुला कर अपनी सैद्धान्तिक नीति के आधार पर न सिर्फ़ यह कि कुवैत की मदद की बल्कि जंग के बाद पुनर्निर्माण की प्रक्रिया में भी मदद की जिसमें तेल की फ़ील्ड में भीषण आग को बुझाने में मदद शामिल है।

इस बात में शक नहीं कि ईरानी राष्ट्र बहुत सी मुश्किलों से सफलतापूर्वक पार पा चुका है और पवित्र रक्षा के काल में अमर शौर्यगाथा रच कर उसने यह दर्शा दिया कि मुश्किलों के मुक़ाबले में धैर्य के साथ साथ प्रतिरोध का प्रदर्शन करता है और जब भी ज़रूरत पड़ेगी वह अतिक्रमणकारियों व षड्यंत्रकारियों के मुक़ाबले में डट जाएगा। इस समय ईरान पाबंदियों व चुनौतियों के बावजूद, दुश्मनों को मुंहतोड़ जवाब देने की क्षमता रखता है और सैन्य क्षमता की दृष्टि से सभी क्षेत्र में निवारक शक्ति के साथ साथ ज़रूरत आक्रमक रूप भी अख़्तियार कर सकता है।

ईरान की इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा ख़ामेनई ने देश की वायु सेना के अधिकारियों और कमान्डरों से मुलाक़ात में एक बयान में दुश्मनों की जंग की तय्यारियों की ओर इशारा करते हुए कहा कि इस्लामी गणतंत्र ईरान किसी के साथ जंग शुरु करने का इरादा नहीं रखता लेकिन अपनी क्षमता उतनी बढ़ाइये कि दुश्मन न सिर्फ़ यह कि ईरान पर हमला करने की ओर से डरा रहे बल्कि सशस्त्र बल की प्रभावी मौजूदगी, शक्ति व एकता की बर्कत से ईरानी राष्ट्र के सिर से ख़तरे का साया भी टल जाए।

इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता ने अपने बयानों में बारंबार ईरानी राष्ट्र की शक्ति की व्याख्या करते हुए बल दिया है कि इस्लामी व्यवस्था की निवारक शक्ति की नीति का लक्ष्य अंतर्राष्ट्रीय युद्धोन्मादियों के मन से ईरान पर अतिक्रमण की सोच भी ख़त्म करना है। उन्होंने साफ़ तौर पर कहा कि दुश्मन यह जान ले कि अगर ईरान पर अतिक्रमण के बारे में सोचा भी तो उन्हें मुंहतोड़ प्रतिक्रिया का सामना करना पड़ेगा क्योंकि हो सकता है वह शुरुआत कर दें लेकिन अंत उनके हाथ में नहीं होगा।

इस सच्चाई की साक्षात मिसाल ख़ुर्रमशहर की आज़ादी है कि जिसमें जनता ने दुश्मन के ख़िलाफ़ जंग के मोर्चे पर अपनी मौजूदगी से निर्णायक फ़ैसला किया। ख़ुर्रमशहर की आज़ादी ने साबित कर दिया कि ईरानी राष्ट्र अतिक्रमणकारियों को मुंहतोड़ जवाब देगा और राष्ट्रीय सुरक्षा व स्वाधीनता की पूरी शक्ति के साथ रक्षा करेगा चाहे अतिक्रमणकारी साम्राज्यवादी शक्तियां ही क्यों न हों।