Jun ०१, २०१९ १४:१३ Asia/Kolkata

रमज़ान के पवित्र महीने के अंतिम दिन चल रहे हैं और हम ईश्वरीय दया के असीम समुद्र के तट के निकट पहुंचते जा रहे हैं।

रमज़ान के महीने में रोज़ेदार की सांसें, उपासना के बराबर होती हैं और इसमें की जाने वाली उपासनाएं सबसे अधिक स्वीकृत होती हैं। ईश्वर ने अपने बंदों को आदेश दिया है कि वे दिन में खाने-पीने से दूर रहें, उसका डर पैदा करें और बुराइयों से दूर रहें ताकि अपने अस्तित्व पर ईश्वरीय प्रकाश के प्रभाव को महसूस कर सकें।

रोज़ेदार व्यक्ति पूरे महीने में ईश्वर का विशेष अतिथि होता है और इस व्यापक दस्तरख़ान पर सर्वोत्तम आध्यात्मिक क्षणों का अनुभव करता है। एक महीने का यह अभ्यास, ईश्वर की पहचान हासिल करने और उससे आत्मीयता का बहुत अच्छा अवसर है। पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम रोज़े को ईश्वर की बंदगी के शहर में प्रवेश का दरवाज़ा बताते हुए कहते हैं कि हर चीज़ का एक दरवाज़ा होता है और उपासना का दरवाज़ा, रोज़ा है। रोज़ा, भलाइयां करने के अभ्यास तक पहुंचने का पुल है। अतः हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि वह हमें बंदगी के संसार में प्रवेश का सामर्थ्य प्रदान करे।

रमज़ान के पवित्र महीने के कार्यक्रम इस प्रकार तैयार किए गए हैं कि मनुष्य अपना ध्यान रखने के साथ ही साथ दूसरों पर भी ध्यान दे सके। इस बात का अर्थ, दूसरे इंसानों के मामलों को देखना और उनके दुखों व समस्याओं को कम करना है। रमज़ान के महीने में लोगों को बहुत सी चीज़ों से दूर रहने के लिए कहा गया है ताकि वे अपनी आंतरिक इच्छाओं को नियंत्रित करके सक्षम हो सकें ग़रीबों व दरिद्रों का दुख भी बांट सकें। इस महीने में रोज़ेदार व्यक्ति उन लोगों के दुखों से अवगत होता है जो जीवन की समस्याओं में घिरे हुए हैं और अपनी आजीविका चलाने में सक्षम नहीं हैं।

जो लोग सुबह से लेकर रात तक कष्ट सहन करते हैं ताकि कुछ लेकर और सुखी मन से अपने घर लौट सकें लेकिन वे अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति की क्षमता नहीं रखते। इस तरह के लोगों की समस्याओं को किस तरह समझा जा सकता है? क्या वंचित की कठिन परिस्थितियों को समझने और महसूस करने के लिए रोज़ा रखने और भूख-प्यास सहन करने से अच्छा कोई दूसरा मार्ग है। रमज़ान का महीना लोगों के अध्यात्म व नैतिकता को बढ़ाने के अलावा उनके अंदर भलाई और सद्कर्म की भावना मज़बूत करता है।

इस्लामी शिक्षाओं और धर्मगुरुओं के चरित्र से हमें पता चलता है कि धार्मिक आदेशों व अनिवार्य उपासनाओं के पालन के बाद ईश्वर से सामिप्य का सबसे बड़ा साधन, ईश्वर के बंदों के साथ भलाई है। ईश्वर के प्रिय बंदे भी सदैव लोगों की सेवा करते थे और स्वयं उनकी समस्याएं दूर करने के लिए आगे आते थे। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम से पूछा गया कि सबसे प्रिय व्यक्ति कौन है? उन्होंने उत्तर दिया कि वह जिसका अस्तित्व लोगों के लिए अधिक लाभदायक हो।

स्नेह, लोगों की सेवा और उन्हें लाभ पहुंचाने की जड़ मनुष्य के अस्तित्व में है और मानवीय प्रवृत्ति के अनुसार है। इसके अलावा मनुष्य का सामाजिक जीवन भी इस बात की मांग करता है कि वह हमेशा दूसरों से संपर्क में रहे और उनके साथ लेन-देन करता रहे। लोगों के साथ भलाई उस पेड़ की तरह है जिसकी अनेक शाखाएं होती हैं। माता-पिता के साथ भलाई उन्हीं में से एक है। इसी तरह अपने परिजनों, अनाथों और दरिद्रों के साथ भलाई उन बातों में है जिन पर क़ुरआने मजीद में बहुत अधिक बल दिया गया है। सूरए नह्ल की आयत क्रमांक 90 में कहा गया है। ईश्वर तुम्हें न्याय, भलाई और निकटवर्तियों के साथ जुड़े रहने का आदेश देता है और व्यभिचार, बुराई व अत्याचार से रोकता है।

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम कहते हैं कि ज़मीन पर ईश्वर के कुछ ऐसे बंदे हैं जो लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति की कोशि करते हैं। वे लोग प्रलय में सुरक्षित हैं। भलाई का अर्थ है बिना किसी बदले की आशा के अच्छा काम करना। क़ुरआने मजीद की आयतें, ईश्वर की दया व कृपा का पात्र बनने का एक मार्ग भले कर्मों को बताती हैं क्योंकि भला कर्म ईश्वर की दया को जोश में ले आता है और ईश्वर भले कर्म करने वालों को पसंद करता है। भलाई के मनुष्य के जीवन पर अत्यंत सकारात्मक प्रभाव पड़ते हैं और उसे अनेक समस्याओं व कठिनाइयों से मुक्ति दिलाते हैं। इसी प्रकार से भला काम, लोगों के मध्य मित्रता व सदभावना को भी बढ़ावा देता है। जो समाज यह चाहता है कि सांसारिक कल्याण और वास्तविक शांति का पात्र बने तो उसे चाहिए कि अपने सदस्यों के मध्य कृपा व मित्रता की भावना को मज़बूत बनाए। इस के लिए रमज़ान के पवित्र महीने में प्राप्त अनमोल अवसरों से लाभ उठाना चाहिए और विशेष कर वंचितों और निर्धनों की अपनी क्षमता भर मदद करना चाहिए।

एक दिन मदीना के रहने वाला सअलबा नामक एक व्यक्ति पैगम्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के पास गया और उसने कहाः हे पैगम्बरे इस्लाम! ईश्वर से प्रार्थना करें कि वह मुझे ढेर सारा धन दे दे। पैगम्बरे इस्लाम ने कहा कि हे सअलबा! जाओ संतोष से काम लो और जो कुछ इस समय तुम्हारी रोज़ी है उस पर ईश्वर का आभार प्रकट करो क्योंकि तुम अधिक धन का आभार नहीं प्रकट कर पाओगे। सअलबा चला गया और कुछ दिन बाद फिर पैग़म्बरे इस्लाम के पास गया और दोबारा अपनी वही इच्छा दोहराई। पैग़म्बरे इस्लाम ने इस बार भी उसके लिए प्रार्थना करने से इन्कार कर दिया। कुछ दिनों के बाद सअलबा तीसरी बार पैग़म्बरे इस्लाम की सेवा में पहुंचा और अपनी पहले वाली इच्छा दोहराते हुए कहने लगाः हे ईश्वर के दूत! आप ईश्वर से प्रार्थना करें कि वह मुझे बहुत अधिक धन दे दे, अगर ईश्वर मुझे ढेर सारा धन देता है तो मैं उसमें से ईश्वर का अधिकार अदा करूंगा और निर्धनों और ज़रूरत रखने वाले रिश्तेदारों की मदद करूंगा। पैगम्बरे इस्लाम ने जब सअलबा का इतना आग्रह देखा तो उसकी बात मान ली और उसके लिए दुआ कर दी।

पैग़म्बरे इस्लाम की दुआ के बाद, कुछ भेड़ों के स्वामी सअलबा की संपत्ति में अपार वृद्धि होने लगी। उसके पास भेड़ों की संख्या इतनी बढ़ गयी कि उसके लिए मदीना नगर में रहना कठिन हो गया। वह अपनी भेड़ों के लेकर मदीना नगर से बाहर चला गया और चूंकि वह स्वंय ही अपनी भेड़ें चराता था इस लिए नमाज़ के समय, पैगम्बरे इस्लाम के पास मस्जिद में आना उसके लिए कठिन हो गया इस लिए वह अकेले ही नमाज़ पढ़ने लगा। पैग़म्बरे इस्लाम की दुआ की वजह से उसकी भेड़ों की संख्या में दिन प्रतिदिन वृद्धि होती जा रही थी जिसकी वजह से सअलबा, मदीना नगर से और दूर चला गया। फिर इस संसारिक मोह माया में वह इतना फंसा कि उसके लिए हफ्ते में एक बार भी मदीना नगर जाना और नमाज़े जमाअत में भाग लेना संभव नहीं रह गया।

जब पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लाम को सअलबा की स्थिति का ज्ञान हुआ तो उन्होंने तीन बार कहाः धिक्कार हो सअलबा पर। कुछ समय बाद ईश्वर ने पैग़म्बरे इस्लाम के पास ज़कात की आयत भेजी और उन्हें आदेश दिया कि वे धनवानों से ज़कात लें और दरिद्रों को दें। उन्होंने सअलबा समेत मदीने के धनवान लोगों के पास अपने प्रतिनिधि भेजे। जब सअलबा ने पैग़म्बर का पत्र देखा तो कहा कि यह बात मुझ पर लागू नहीं होती, यह तो जिज़या टैक्स है जिसे ग़ैर मुस्लिमों को अदा करना चाहिए। तुम लोग दूसरों के पास जाओ, मैं इस बारे में विचार करूंगा।

पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के प्रतिनिधि पुनः सअलबा के पास गए और उसने फिर ज़कात देने से इन्कार कर दिया और कहा कि यह बात उस पर लागू नहीं होती। वे लोग लौट गए और उन्होंने पूरी घटना उन्हें बताई। उन्होंने कहा कि धिक्कार हो सअलबा पर। उसी समय सूरए तौबा की 75वीं और 76वीं आयतें नाज़िल हुई जिनमें ईश्वर ने कहा हैः और उनमें से कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्होंने ईश्वर से प्रतिज्ञा की थी कि यदि तू अपनी कृपा से हमें प्रदान कर देगा तो निश्चित रूप से हम दान दक्षिणा करेंगे और भले लोगों में से हो जाएंगे। (9:75) तो जब ईश्वर ने अपनी कृपा से उन्हें प्रदान कर दिया तो उन्होंने उसमें कन्जूसी की और (प्रतिज्ञा को) पीठ दिखा कर मुंह फेर लिया।

सअलबा को किसी ने जा कर बताया कि ईश्वर ने ज़कात देने के संबंध में तुम्हारी अवज्ञा के बारे में कुछ आयतें भेजी हैं। यह सुन कर वह बहुत दुखी हुआ और मदीने में पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के पास पहुंचा। उसने पछतावा प्रकट किया और ज़कात देने के लिए अपनी तैयारी की बात कही लेकिन पैग़म्बर ने कहा कि हे सअलबा! ईश्वर ने मुझे तुम्हारी ज़कात लेने से मना किया है। सअलबा उठा और अपने सिर पर मिट्टी डालते हुए रोने लगा लेकिन पैग़म्बर ने कहाः तूने ईश्वर के आदेश के पालन से इन्कार कर दिया था।

इतिहास में आया है कि ईरानी विद्वान बुज़ुर्गमेहर रोम के एक दार्शनिक और भारत के एक चिकित्सक के साथ कहीं बैठा हुआ था। वे लोग इस विषय पर बात कर रहे थे कि दुनिया की सबसे कष्टदायक चीज़ क्या है? रोम के दार्शिनक ने कहा कि मेरे विचार में ग़रीबी व दरिद्रता के साथ कमज़ोरी व बुढ़ापा सबसे अधिक कष्टदायक है। भारतीय चिकित्सक ने कहा कि मेरे विचार में रोगी शरीर व दुखी आत्मा से अधिक कष्टदायक कोई चीज़ नहीं है। इन बातों को सुनने के बाद बुज़ुर्गमेहर ने कहा। मेरे विचार में मनुष्य के लिए इस बात से कठिन कोई चीज़ नहीं है कि उसकी मौत निकट हो और उसका दामन सद्कर्मों से ख़ाली हो। उसकी बात सुन कर रोमी दार्शनिक और भारतीय चिकित्सक ने उसकी काफ़ी सराहना की। (HN)

 

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