Jun १६, २०१९ १५:२६ Asia/Kolkata

जिस तरह विद्वान व बुद्धिजीवी क्रान्तियों के वजूद में आने के कारण की समीक्षा करते हैं उसी तरह उन्होंने क्रान्ति की सफलता के बाद की घटनाओं व चरणों के बारे में विचार पेश किए हैं।

इस बारे में एक अहम विचार अमरीकी इतिहासकार क्रेन ब्रिन्टन ने पेश किया है कि जिसके अनुसार, क्रान्तियां जोश व रोमांच के बाद अपनी मूल आकांक्षाओं से धीरे धीरे दूर होकर ठहराव का शिकार हो जाती हैं और वे क्रान्ति से पहले जैसे हालात में पलट जाती हैं। वह अपने दृष्टिकोण को साबित करने के लिए फ़्रांस, रूस, ब्रिटेन और अमरीका की क्रान्ति की समीक्षा करते हैं। सवाल यह पैदा होता है कि ब्रिन्टन का यह विचार ईरान की इस्लामी क्रान्ति के बाद के हालात के बारे में भी चरितार्थ होता है? इस बारे में इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा ख़ामेनई इस्लामी क्रान्ति के दूसरे चरण के घोषणापत्र में बल देते हैं कि क्रान्तिकारी जोश ईरान में अभी भी बाक़ी है और लोग अभी भी क्रान्ति की आकांक्षाओं के प्रति निष्ठावान हैं। वह अपने एक भाषण में इस बारे में कि क्या ईरान की इस्लामी क्रान्ति भी ब्रिन्टन के दृष्टिकोण पर चरितार्थ होती है या नहीं, कहते हैः "दुनिया की पिछले 200 साल की बड़ी क्रान्तियां जिन्हें हम जानते हैं, उन पर यह समीक्षा चरितार्थ होती है लेकिन ईरान की इस्लामी क्रान्ति इससे अपवाद है। ईरान की इस्लामी क्रान्ति में क्रान्ति को पिछली हालत में पलटने से रोकने का एलाज ख़ुद इसी क्रान्ति में रखा गया है। मैंने अनेक बार यह कहा है कि क्रान्ति का साक्षात रूप इस्लामी गणतंत्र और इस्लामी गणतंत्र के संविधान के रूप में मौजूद है। संविधान बनाने वालों ने, जिन्होंने इमाम ख़ुमैनी के दृष्टिकोण और उनके मत से पाठ हासिल किया था, इस संविधान में क्रान्ति के बाक़ी रहने का उपाय पेश किया है और वह है इस्लामी नियम, क़ानून को वैधता दी है इस शर्त के साथ कि इस्लाम के अनुसार हो और वरिष्ठ धार्मिक नेतृत्व का विषय।" दूसरे शब्दों में इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता क्रान्ति और व्यवस्था के इस्लामी रूप और उसके प्रति जनता की प्रतिबद्धता इस बात का कारण बनी कि ईरान की इस्लामी क्रान्ति यथावत तरक़्क़ी करती रहे और गतिशील रहे। 

क्रान्तियों के अंजाम के बारे में एक और दृष्टिकोण के अनुसार, संघर्ष की समाप्ति और सफलता की प्राप्ति के बाद जब प्रशासनिक संस्थाएं क़ायम हो जाती हैं तो क्रान्ति ख़त्म हो जाती है और क्रान्तिकारी आकांक्षाएं यथार्थवाद का स्थान ले लेती हैं। लेकिन इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा ख़ामेनई क्रान्ति के दूसरे चरण के घोषणापत्र में बल देकर कहते हैः "इस्लामी क्रान्ति व्यवस्था बनाने के बाद गतिहीनता का शिकार नहीं हुयी और न होगी क्योंकि क्रान्ति की आकांक्षाओं और राजनैतिक व सामाजिक व्यवस्थाओं के बीच विरोधाभास नहीं है बल्कि क्रान्तिकारी व्यवस्था के दृष्टिकोण का हमेशा साथ देगी।" आयतुल्लाहिल उज़्मा ख़ामेनई व्यवस्था के निर्माण और प्रशासनिक व्यवस्था की स्थापना को ज़रूरी बताते हैं लेकिन इसे क्रान्ति का अंत नहीं मानते। जैसा कि इस समय इस्लामी गणतंत्र व्यवस्था, ईरान का प्रशासनिक ढांचा है लेकिन इस व्यवस्था पर छाया विचार इस्लामी व क्रान्तिकारी मूल्यो पर आधारित है। यह वही व्यवस्था है जिसे इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता क्रान्तिकारी व्यवस्था बताते हैं। यही वजह है कि ईरान की जनता अपनी क्रान्तिकारी आकांक्षाओं को इस्लामी गणतंत्र व्यवस्था के रूप में साक्षात देखती है और उसका समर्थन करती है। आयतुल्लाहिल उज़्मा ख़ामेनई मिसाल के तौर पर ईरान की इस्लामी क्रान्ति की वर्षगांठ पर आयोजित राष्ट्रव्यापी रैलियों के आयोजन की ओर इशारा करते हुए कहते हैः "दुनिया में कहीं भी क्रान्ति की वर्षगांठ का जश्न इस स्तर पर जनता की भागीदारी से नहीं होता। यह केवल हमारी क्रान्ति है कि 11 फ़रवरी को जनता इसका जश्न मनाती है। पूरे देश में दसियों लाख लोग सड़कों पर आकर रैली निकालते हैं, नारा लगाते हैं। यह चीज़ किसी भी क्रान्ति में नहीं रही है।"

बड़ी क्रान्तियों के सामने एक चुनौती यह होती है कि ये क्रान्तियां संघर्ष के समय बड़े बड़े उद्देश्य व आकांक्षाएं पेश करती हैं लेकिन क्रान्ति की सफलता के बाद, मौजूदा हालात और वास्तविकताएं उन आकांक्षाओं को सीमित और कभी ख़त्म कर देती हैं। ऐसे हालात में क्रान्ति के नेताओं के पास क्रान्ति के शानदार किन्तु कठिन मार्ग को जारी रखने या अप्रिय वास्तविकताओं के सामने झुकने व मौजूदा व्यवस्था को स्वीकार कर अपनी आकांक्षाओं को भुलाने में से किसी एक का चयन करना होता है। खेद की बात है कि सभी क्रान्तियों में नेता और उनके पीछे जनता आरंभिक सफलताओं के बाद इस सफलता को अंतिम चरण तक पहुंचाने या क्रान्ति की दूसरी आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए प्रयास स पीछे रह जाती है। लेकिन ईरान की इस्लामी क्रान्ति ने सफलता के 40 साल बाद यह दर्शा दिया है कि वह बहुत सी रुकावटों के बावजूद अभी भी अपनी मूल मानवीय आकांक्षाओं के प्रति कटिबद्ध है और उसे व्यवहारिक बनाने की कोशिश कर रही है क्योंकि ये आकांक्षाएं व लक्ष्य वही इस्लामी शिक्षाएं हैं जो कभी भी पुराने नहीं हो सकते और न ही भुलाए जा सकते हैं। आयतुल्लाहिल उज़्मा ख़ामेनई इस्लामी क्रान्ति की पवित्र आकांक्षाओं को बाक़ी रखने पर बल देते और जनता व सरकार का इसी मार्ग की ओर मार्गदर्शन कर रहे हैं हालांकि यह काम विदेशियों की दुश्मनियों व रुकावटों के मद्देनज़र कठिन नज़र आता है। उन्होंने इस विषय को क्रान्ति के दूसरे चरण के घोषणापत्र में बयान करते हुए कहा हैः "इस बात में शक नहीं कि वास्तविकताओं और आकांक्षाओं के बीच दूरी से  जागरुक चेतनाओं को तकलीफ़ होती है लेकिन यह दूरी तय हो सकती हे और पिछले 40 साल में बहुत से अवसर पर तय हुयी है और इस बात में शक नहीं कि भविष्य में युवा, मोमिन, विद्वान व जोशीली नस्ल अधिक शक्ति के साथ इसे तय करेगी।"  

 

क्रान्तियों व आंदोलनों के सामने एक मुश्किल  क्रान्ति के बाद चमरपंथी व्यवहार और रक्तपात है। एक ओर विरोधियों का जनसंहार और शक्ति की प्राप्ति के लिए क्रान्ति के नेताओं के बीच प्रतिस्पर्धा कि जिसकी वजह से रक्तपात होता हैं, इन क्रान्तियों का भयावह रूप है। लेकिन इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह के युक्तिपूर्ण नेतृत्व में ईरान की इस्लामी क्रान्ति में ऐसी अतार्किक हिंसा नहीं घटी क्योंकि इस क्रान्ति की भावना इस्लामी शिक्षाओं से प्रेरित है जो इंसान को सत्ता के हाथ में होते हुए हमेशा मेहरबानी व परित्याग की अनुशंसा करती है। इसी आधार पर इस्लामी क्रान्ति के दूसरे चरण के घोषणापत्र में हम पढ़ते हैः "ईरानी राष्ट्र की इस्लामी क्रान्ति शक्तिशाली होने के साथ साथ मेहरबान और परित्याग के बावजूद पीड़ित रही है। ऐसे भटकाव का शिकार नहीं हुयी जो आंदोलनों के लिए क्लंक का टीका बनते हैं। किसी भी संग्राम में यहां तक कि अमरीका या सद्दाम के ख़िलाफ़ पहले गोली नहीं चलाई और सभी अवसर पर दुश्मन के हमले के बाद अपनी रक्षा की है, यह अलग बात है कि बहुत ठोस जवाबी वार किया है। यह क्रान्ति अपने आरंभ से लेकर आज तक न तो रक्तपिपासु व निर्दयी रही और न ही रक्षात्मक व असमंजस की मुद्रा में।"

एक और अहम बिन्दु जिस पर इस्लाम में बहुत अधिक बल दिया गया है वह एक दूसरे की सार्थक आलोचना है कि भलाई का आदेश देने और बुराई से रोकने का सिद्धांत इसी पर टिका है। आलोचना और नसीहत सिर्फ़ लोगों तक सीमित नहीं है बल्कि इस्लाम की नज़र में जनता, व्यवस्था की समीक्षा कर सकती है। अत्याचारी सरकारें जनता, दलों और गुटों को इस बात का अधिकार नहीं देतीं कि उनकी आलोचना करें लेकिन आज़ाद राजनैतिक व्यवस्थाओं में जनता के इस अधिकार को मान्यता दी गयी है जैसा कि इस्लामी गणतंत्र व्यवस्था में जो धार्मिक प्रजातंत्र पर आधारित व्यवस्था है, अधिकारियों व विभिन्न संस्थाओं के क्रियाकलापों की समीक्षा होती है।

आयतुल्लाहिल उज़्मा ख़ामेनई क्रान्ति के दूसरे चरण के घोषणापत्र में साफ़ शब्दों में कहते हैं कि इस्लामी क्रान्ति में भी ग़लतियां हुयी हैं। आप का कहना हैः "इस्लामी क्रान्ति अपनी ग़लतियों में सुधार के लिए तय्यार है लेकिन दृष्टिकोण बदलने वाली है। आलोचनाओं को सार्थकि रूप में देखती है और उसे ईश्वर की कृपा समझती है और अर्थहीन बात करने वालों के लिए चेतावनी समझती है लेकिन किसी भी बहाने उन मूल्यों को छोड़ने वाली नहीं है जो ईश्वर की कृपा से जनता की धार्मिक आस्था से जुड़े हुए हैं।"

आयतुल्लाहिल उज़्मा ख़ामेनई का यह बयान इस बात को दर्शाता है कि ईरान की इस्लामी क्रान्ति, चार दशक पहले क्रान्ति की सफलता से पहले के हालात में ठहरी नहीं है बल्कि निरंतर आंतरिक व वैश्विक बदलाव के साथ पूरी ताक़त से आगे बढ़ रही है लेकिन इस दौरान कुछ अधिकारियों से जिनके कांधे पर क्रान्ति के उद्देश्य की रक्षा और उसकी प्राप्ति की ज़िम्मेदारी है, कभी ग़लतियां भी हुयी हैं। इसलिए इस्लामी क्रान्ति जो जनक्रान्ति है, सार्थक आलोचनाओं का स्वागत करती और उसे ईश्वरीय अनुकंपा समझती है। लेकिन इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता इस बात पर हमेशा बल देते हैं कि आलोचनाएं सिर्फ़ उस समय तक स्वीकार्य हैं जब वे क्रान्ति के मूल्यों व सिद्धांतों को नुक़सान न पहुंचाएं। दूसरे शब्दों में यह महाक्रान्ति कभी ही अपनी पहचान व ईश्वरीय आकांक्षाओं को कि जिसके प्रति जनता निष्ठा रखती है, दूसरों की इच्छा की बलि नहीं चढ़ने देगी क्योंकि ऐसा करने पर क्रान्ति का सिर्फ़ नाम बचेगा।