दुनिया के विख्यात कलाकार पलायन को कैसा देखते हैं? - 3
The Emigrants (film) द इर्माग्रेन्टस नामक फ़िल्म वास्तव में उन लोगों के जीवन के इर्द गिर्द घूमती है जो बेहतर और अच्छे जीवन की तलाश में अपने देश को छोड़कर विभिन्न देशों की ओर जाते हैं।
परेशान और मजबूर होकर की जाने वाली यह यात्रा, पलायनकर्ता और समाज के लिए सकारात्मक या नकारात्क प्रभाव डालती है। इस्लामी गणतंत्र ईरान में पलायनकर्ता का शब्द बहुत ही जाना पहचाना है, चाहे वह ईरान से जाकर किसी दूसरे देशों में बसने वालों के हवाले से हो या वह पलायनकर्ता जो ईरान आए हैं शरण लेने के लिए। इसी मुद्दे को उजागर करने के लिए ईरानी सिनेमाजगत ने कुछ फ़िल्में बनाई हैं जो ईरान में पलायनकर्ताओं के मुद्दे के अनछुए विषयों को उजागर करती है।
हम अपने जीवन में पलायनकर्ता शब्द का निरंतर प्रयोग करते रहते हैं, हम अपनी बातों में और अपनी चर्चाओं में इस शब्द को बोलते और सुनते रहते हैं और जब रात को समाचार चैनल के सामने बैठकर विश्व की ख़बरे सुनते हैं तो हमेशा ही हम कुछ तस्वीरें देखते हैं किन्तु वास्तविकता यह है कि हमने अपने दोस्तों और मित्रों तथा समाचारों और आलेखों में पलायनकर्ताओं के बारे में जो पढ़ा या सुना है उससे अधिक नहीं जानते, ऐसी कोई फ़िल्म नहीं बनी है या ऐसा कोई लेख नहीं लिखा गया है जिसमें पलायनकर्ताओं के जीवन के समस्त आयामों पर विशेष रूप से ध्यान दिया गया हो।
कला और साहित्य, सामाजिक प्रक्रिया को समझने का महत्वपूर्ण साधन हैं। निसंदेह सिनेमा जगत, शोधकर्ताओं और यहां तक कि आम नागरिकों के लिए महत्वपूर्ण साधन है जो एक समाज और उसमें प्रचलित मुद्दों को अच्छी तरह पहचान करा सकता है।
दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों में अनेक युद्ध हुए जिसके उदाहरण सीरिया, इराक़, अफ़ग़ानिस्तान जैसे अन्य देशों में देखे जा सकते हैं। इन युद्धों के परिणाम देश की तबाही, बर्बादी, बच्चों और महिलाओं के जनसंहार और राष्ट्रीय संपत्ति की तबाही व बर्बादी और उनका अपनी मातृभूमि से खदेड़ दिए जाने के अलावा कुछ और नहीं निकला।
यही कारण है कि यह कहा जा सकता है कि स्वभाविक सी बात है कि ईरानी फ़िल्म निर्माताओं ने भी अपने आसपास घटने वाली इन घटनाओं पर प्रतिक्रिया व्यक्त और पड़ोसी देशों के पलायनकर्ताओं के बारे में फ़िल्म बनाई। सबसे पहले ईरानी सिनेमा जगत के कलाकारों ने ईरान में रहने वाले सबसे बड़े पलायनकर्ता गुट की ओर ध्यान दिया और अफ़ग़ान पलायनकर्ताओं और उनके जीवन के विषय पर फ़िल्म बनाई।
अफ़ग़ानिस्तान की जनता कई दश्कों से गृहयुद्ध का सामना कर रही है और अच्छे जीवन की तलाश में वे एक अन्य भौगोलिक स्थान को जीवन व्यतीत करने के लिए चुनने पर विवश हुई है।
दो स्वतंत्र और स्वाधीन देश के रूप में ईरान और अफ़ग़ानिस्तान के ऐतिहासिक संबंध 1857 की ओर पलटते हैं। यह वही समय था जब ब्रिटेन का भारत पर पूर्ण नियंत्रण था और काज़ारियों पर पेरिस समझौता थोप दिया गया और ईरान के प्रतिनिधि ने समझौते पर हस्ताक्षर कर दिया जिसके आधार पर ईरान ने अफ़ग़ानिस्तान की स्वतंत्रता को आधिकारिक रूप से स्वीकार कर लिया। तब से लेकर आज तक 160 से अधिक साल हो गये हैं और इन वर्षों के दौरान ईरान और अफ़ग़ानिस्तान जैसी दो पड़ोसी देशों की जनता के बीच सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और सामाजिक रूप से गहरे संबंध और भी गहराते गये और मानो दोनों राष्ट्र एक ही हों और दोनों के बीच सीमाएं केवल एक प्रतीकात्मक रूप में ही है।
ईरान पर इराक़ द्वारा थोपे गये युद्ध और ईरान में क्रांति के बाद सिनेमा के पहले साल में क़दम रखने के साथ ही सोवियत संघ ने अफ़ग़ानिस्तान पर नियंत्रण कर लिया। इस अतिग्रहण के कारण लाखों की संख्या में अफ़ग़ान पलायनकर्ताओं ने ईरान का रुख़ किया और उस समय क्योंकि ईरान भी थोपे गये युद्ध का सामना कर रहा था, उसने खुले दिल से अपने अफ़ग़ान भाईयों का स्वागत किया। वर्ष 2016 में जनगणना विभाग की ओर से जारी रिपोर्ट के अनुसार लगभग 16 लाख लोग जो लगभग ईरान की पूरी जनसंख्या का दो प्रतिशत हैं, अफ़ग़ान नागरिक हैं और यह अनुमान लगाया जा रहा है कि ग़ैर क़ानूनी पलायनकर्ताओं में वृद्धि होने से ईरान में तीस लाख से अधिक अफ़ग़ान पलायनकर्ता जीवन व्यतीत कर रहे हैं।
ईरानी सिनेमाजगत ने अफ़ग़ान जनता की जो एक छवि पेश की वह अधिकतर पलायनकर्ताओं के जीवन और उनके सामने कठिनाइयों की ओर केन्द्रित रही हैं। नकाम प्रेम, असंभव विवाह और मातृभूमि के लिए परेशान होना और उसकी याद आना।
अफ़ग़ान पलायनकर्ताओं के विषय पर ईरान में पहली फ़िल्म 1988 में बनी। The Cyclist दा साइकलिस्ट नामक फ़िल्म, पाकिस्तान में एक अफ़ग़ान पलायनकर्ता के अथक प्रयासों की कहानी है जो अपनी बीमार पत्नी के उपचार के लिए बहुत प्रयास करता है। इस फ़िल्म को दर्शकों ने बहुत सराहा और व्यापक स्तर पर इसका स्वागत किया गया जिसके बाद फ़िल्म निर्माता, अफ़ग़ानिस्तान के विषय पर दूसरी फ़िल्म बनाने में लग गया।
कुछ अफ़ग़ान पलायनकर्ता बचपन ही में या युवावस्था में अपना देश छोड़कर ईरान आने पर विवश हो गये। यह लोग ईरान से बहुत प्रेम करते हैं और उन्होंने अपना जीवन यहीं शुरु कर दिया और कभी कभी ग़ैर क़ानूनी रूप से ईरान में रहने की वजह से उनका विवाह रजिस्टर्ड नहीं हो पाता।
ईरान और अफ़ग़ानी प्रेम के कई नमूने ईरानी सिनेमा में मिलते हैं। इस बीच वर्षों से ईरान के प्रसिद्ध फ़िल्म निर्माता और निर्देशक मजीद मजीदी ने दो फ़िल्म "चिल्ड्रेन आफ़ हीवेन" और "दा कलर आफ़ पैराडाइज़" बनाकर पूरी दुनिया के सिनेमा जगत में हंगामा मचा दिया। उन्होंने "रेन" नामक फ़िल्म बनाई। इस फ़िल्म की कहानी एक ग़रीब मज़दूर व राजगीर की एक पलायनकर्ता अफ़गान लड़की से प्रेम के इर्द गिर्द घूमती है। इस फ़िल्म ने प्रेम जैसे एक वैश्विक विषय को पलायनकर्ताओं के दुखों और उनके साथ होने वाली परेशानियों से मिलाकर एक सुन्दर कहानी पेश की।
मजीद मजीदी ने रेन फ़िल्म में एक सामान्य विषय को उठाया जो आम तौर पर अफ़ग़ान करते हैं। ईरान में अधिकतर अफ़ग़ान बिल्डिंग बनाने के लिए मज़दूर और मिस्त्री का काम करते हैं और इसी के साथ उन्होंने पलायनकर्ताओं के साथ सहृदयता प्रकट करते हुए कहानी में दर्शको के लिए प्रेम का तड़का भी लगा दिया।

यहां पर यह बताना आवश्यक है कि अफ़ग़ान पलायनकर्ताओं के बारे में बनने वाली यह केवल एक प्रेम कथा पर आधारि फ़िल्म नहीं थी, इसी प्रकार एक अफ़ग़ानी और एक ईरानी की प्रेम कहानी पर आधारित जुमा नामक फ़िल्म है जिसके निर्माता और निर्देशक हुसैन यकतापनाह हैं। इस फ़िल्म में दिखाया गया है कि जुमा नामक एक अफ़ग़ान पलायनकर्ता एक ईरानी लड़की से दिल की बाज़ी हार जाता है और जब वह विवाह करने का इरादा करता है तो उसे लड़की के परिवार की ओर से ज़बरदस्त विरोध का सामना करना पड़ता है।
हैरान नामक फ़िल्म की निर्माता और निर्देशक शालीज़ा आरिफ़पूर हैं, यह वह लड़की है जिसका नाम माही है और वह एक अफ़ग़ानी लड़के के प्रेम में गिरफ़्तार हो जाती है। हैरान नामक फ़िल्म है जिसमें प्रेम को पलायन के विषय से जोड़कर दिखाया गया है। इसी प्रकार लैला मजनू नामक फ़िल्म भी है जिसके निर्माता निर्देशक मुहम्मद हुसैन लतीफ़ी है। इस फ़िल्म में एक अफ़ग़ान महिला को एक ईरानी के यहां काम करते हुए देखा जा सकता है।
उसके बाद आतंकवाद से संघर्ष के बहाने अफ़ग़ानिस्तान पर अमरीका का हमला, ईरानी फ़िल्म निर्माताओं के ध्यान का केन्द्र बन गया। दा लास्ट क्वीन आफ़ दा अर्थ नामक फ़िल्म के निर्देशक मुहम्मद रज़ा अरब हैं। यह फ़िल्म भी अफ़ग़ानिस्तान पर अमरीका के हमले के विषय पर बनाई गयी है। इस फ़िल्म में इस अतिग्रहण के भविष्य की भविष्यवाणी की गयी है। यह फ़िल्म 2006 में बनी है और इससे पहले कि यह फ़िल्म ईरान में दिखाई जाए इसने दुनिया के सिनेमा जगत में धूम मचा दी और लगभग अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म फ़ेस्टेवल में इसका प्रिमियम हुआ।
एक अन्य फ़िल्म का नाम बुच्चर एंगल है जिसके निर्माता निर्देशक सुहैल सलीमी है। इस फ़िल्म में अमरीकी सैनिकों द्वारा अफ़ग़ानिस्तान के अतिग्रहण और अफ़ग़ानिस्तान में पश्चिमी गैंग द्वारा शरीर के अंगों के व्यापार की कहानी है।
दूसरी ओर ईरान के कुछ फ़िल्म निर्माता और निर्देशकों ने अफ़ग़ानिस्तान के इतिहास पर नज़र डालने का प्रयास किया। 2010 में निर्देशक वहीद मूसवियान की फ़िल्म गुलचेहरे, अफ़ग़ानिस्तान के वर्तमान इतिहास की कहानी सुनाती है। गुलचेहरे नामक फ़िल्म, काबुल के प्रचीन सिनेमा जगत के प्रसिद्ध कलाकार अशरफ़ ख़ान के इर्द गिर्द घूमती है। इस कलाकार ने अफ़ग़ानिस्तान में नजीबुल्लाह की कम्युनिस्ट सरकार के गिरने और अफ़ग़ानिस्तान पर मुजाहेदीन के नियंत्रण के बाद अपने सिनेमा स्टूडियो का पुनर्निमाण किया जिसका नाम गुलचेहरे था।
अब्दुल क़ादिर अफ़ग़ानिस्तान का एक कट्टर नेता है जो यह कहता है कि वह कभी भी समाज के युवावर्ग में भ्रष्ट फ़िल्म दुनिया को पनपने की अनुमति नहीं देगा, अंत में एक ईरानी विशेषज्ञ के सहयोग से सिनेमा स्टूडियो के उद्घाटन का समय आ गया कि अचानक धमाका हुआ और स्टूडियो तबाह हो गया। तालेबान विद्रोहियों ने कहा कि जिसने भी इस स्टूडियो के निर्माण में सहयोग किया उसे कड़ा से कड़ा दंड दिया जाएगा, यही कारण है कि बहुत सी फ़िल्में, डार्क रूप में रखी हुई थीं और जब अफ़ग़ानिस्तान के नेश्नल फ़िल्म स्टूडियो को आग लगाई गयी तो इस सांस्कृतिक धरोहर को कोई नुक़सान नहीं हो सका।

बहरहाल यह कहा जा सकता है कि ईरानी फ़िल्म निर्माता व निर्देशकों ने अफ़ग़ान पलायनकर्ताओं के जीवन के विभिन्न पहलूओं पर प्रकाश डाला और उनके जीवन की कठिनाइयों और ख़ुशियों को सिनेमा के पर्दे पर पेश किया, अलबत्ता यह स्वभाविक सी बात हे कि सिनेमा जगत और कलाकारों के पास इतनी क्षमता नहीं है कि वह पलायन कत एक शब्द में बयान कर सकें। (AK)