Jun २४, २०१९ १४:५३ Asia/Kolkata

वास्तुकला के महान नमूने उन्हें बनाने वालों की क्षमता व दक्षता का मुंह बोलता प्रमाण होते हैं।

खदानों से पत्थर निकालना, डिज़ाइनिंग, श्रमबल के बीच समन्वय और सजावट के लिए मंहगे तत्वों की उपलब्धता उन गतिविधियों में से हैं जो बड़ी इमारतों के निर्माण के लिए की जाती हैं। अतीत में इन गतिविधियों के लिए अत्यधिक आर्थिक संभावनाओं और शक्ति की ज़रूरत होती थी जो प्रायः कुछ ही राजाओं और धनवान लोगों के पास होती थी।

ईरान के इतिहास में, जहां सरकारी मामले प्रायः शासक परिवार के हाथ में हुआ करते थे, शक्ति प्रदर्शन के असंख्य नमूने दिखाई देते हैं। इसका सबसे स्पष्ट उदाहरण कई शताब्दी ईसा पूर्व हख़ामनेशी वंश के काल का है जिसने ईरान में एक बड़े साम्राज्य की स्थापना की थी। उस काल के अधिकतर राजा या तो युद्ध और दूसरे क्षेत्रों पर हमले में व्यस्त रहते थे या फिर बड़े बड़े महल बनवा रहे होते थे। दारयूश प्रथम उस काल के शासकों में से एक था जिसने वैभवशाली महलों का निर्माण करवा कर अपनी सत्ता की महानता, अपने काल के लोगों और शासकों को दिखाने का प्रयास किया। उसने वर्तमान शीराज़ नगर के निकट पार्स के केंद्र में रहमत पर्वत के आंचल में तख़्ते जमशेद का महल बनवाया। इस इमारत की वास्तुकला इस प्रकार की थी कि उससे दारयूश की शक्ति और वैभव का प्रदर्शन होता था। निश्चित रूप से इस महल की वास्तुकला उस काल में ईरानियों के निर्माण कौशल, उनकी कला और उनकी सृजनात्मकता का पता देती है।

प्राचीन फ़ार्स के शिलालेखों के अनुसार तख़्ते जमशेद का निर्माण वर्ष 512 ईसा पूर्व में हुआ। महलों का यह समूह एक ऊंची ज़मीन पर 457 मीटर लंबाई और 300 मीटर के चौड़ाई में किया गया। उस ऊंची ज़मीन का ढांचा गहरे ग्रे रंग का है। पत्थरों को बड़ी बारीकी से तराश कर एक दूसरे के ऊपर रखा गया है। इन पत्थरों के बीच किसी प्रकार का मसाला नहीं है बल्कि सीसे या लोहे के ब्रेकेट्स के माध्यम से उन्हें आपस में जोड़ा गया है। फ़्रान्स के पुरातनविद रोमन गेर्शमेन का कहना है कि तख़्ते जमशेद में सुरक्षा के लिए कोई ऊंची दीवार नहीं थी लेकिन उसके पूर्वी छोर पर एक ऊंची दीवार थी जो बाढ़ रोकने के लिए बनाई गई थी।

हख़ामनेशी काल के वास्तुकार अत्यंत होशियार व बुद्धिमान थे क्योंकि उनकी बनाई गई इमारतों में उन नियमों व सिद्धांतों का पालन किया गया है जो बाद में ईरानी वास्तुकला के सिद्धांतों के रूप में प्रचलित हुए। इन इमारतों और इनकी दीवारों पर जो डिज़ाइन बनाए गए हैं उनमें कुछ मानवीय विशेषताएं, कुछ पशु और कुछ फूल भी दिखाई देते हैं। उदाहरण स्वरूप सद दरवाज़े या शत द्वार महल के प्रवेश द्वार पर मनुष्य, गाय और मछली के संयुक्त शरीरों का उकेरा गया एक चित्र मौजूद है और महल के उत्तरी भाग में एक पत्थर पर परों वाले एक मनुष्य का चित्र बनाया गया है। तख़्ते जमशेद के स्तंभों का निचला भाग काले पत्थर का बना हुआ है जबकि महल की ज़मीन ज्योमितीय आकारों के पत्थरों से बनाया गया है।

आम लोगों की उपस्थिति का महल, विशेष महल, निजी इमारतें, पासारगाद बाग़ और आपादाना बाग़, तख़्ते जमशेद के महलों में शामिल हैं जिनमें हर एक यद्यपि एक विशेष लक्ष्य से बनाया गया है लेकिन सभी की आंतरिक डिज़ाइनिंग में कुछ समानताएं हैं। पत्थर के ऊंचे स्तंभों वाला एक केंद्रीय हॉल, चार मुख्य दिशाओं में चार कोर्टयार्ड, और पत्थर का फ़र्श इन सभी इमारतों में देखा जा सकता है। अलबत्ता इनमें से हर इमारत के स्तंभों का ऊपरी भाग भिन्न है जिससे यह पता चलता है कि वास्तुकारों का ध्यान आंतरिक सजावट पर भी कम नहीं था।

तख़्ते जमशेद के निर्माण के संबंध में दारयूश प्रथम का लिखा हुआ एक शिलालेख बाक़ी बचा है जो इस वैभवशाली महल की वास्तुकला की बहुत से बातों को प्रतिबिंबित करता है। शिलालेख में महल के निर्माण की कई बातों का उल्लेख गया है। इस शिलालेख के कुछ भागों पर ध्यान दीजिए। "मैंने इस महल का निर्माण करवाया है। आरंभ में ज़मीन खोदी गई यहां तक कि कड़ी मिट्टी या पत्थर प्रकट हो गया। फिर बड़ी मात्रा में छोटे पत्थर उसमें रखे गए और उन पर महल बनाया गया। ज़मीन खोदना और ईंट बनाना बाबिल के लोगों का काम था। लकड़ियां, लेबनान नामक एक पहाड़ से लाई गईं, कुछ लकड़ियां किरमान से भी आईं। नीला पत्थर और अक़ीक़, सोग़्द से लाया गया, फ़ीरोज़ा, ख़ारज़्म से उपलब्ध हुआ। आबनूस, मिस्र से लाया गया। हाथी के दांत यद्यपि भारत से आए लेकिन उन पर कुछ काम किया गया ताकि उन्हें स्तंभ के रूप में ढाला जा सके। दीवारों की सजावट, माद और पार्स के लोगों का काम था।

ऊंची ज़मीन और महलों तक पहुंचने की शैली इस प्राचीन इमारत के सबसे रोचक भागों में से एक है। सीढ़ियां इतनी ज़बरदस्त बनाई गई हैं कि उनकी चौड़ाई छः दशमलव दो मीटर है। इस प्रकार से कि आरंभ में सीढ़ियां दो अलग अलग भागों में बंट जाती हैं और कुछ फ़ासला तैय करने के बाद वे पुनः जुड़ जाती हैं। ये सीढ़ियां अनेक पत्थरों से नहीं बनाई गई हैं बल्कि एक बहुत बड़े पत्थर से बनाई गई हैं और बनाने वालों की दक्षता की सूचक हैं।

कुछ लोगों का मानना है कि ये सीढ़ियां एक ऐसी ढलान के साथ जो घुड़सवारी के लिए उचित है, मुख्य फ़र्श तक पहुंचती हैं और घुड़सवारों के दृष्टिगत इनकी ऊंचाई कम रखी गई है। महलों की सीढ़ियों के साथ वाली दीवारों पर हर देश के विशेष उपहारों के साथ मेहमानों के चित्र देखे जा सकते हैं। एक दूसरे भाग में खाने व पीने के बर्तन और भुने हुए बकरे लिए सेवकों के चित्र पत्थरों पर उकेरे गए हैं। ईरानी नववर्ष का मुख्य आयोजन इन्हीं महलों में होता था और इसके चित्र भी महल की दीवारों और शिलालेखों पर मौजूद हैं।

अब सवाल यह है कि कला के इस वैभव और विचित्रता का अंजाम क्या हुआ? निश्चित रूप से हर वह सरकार जो तानाशाही के मार्ग पर चलेगी उसका अंत तबाही व बर्बादी के अतिरिक्त कुछ नहीं होगा। इतिहास का यह क़ानून हख़ामनेशी शासन श्रंखला पर भी लागू हुआ और एक बाहरी गुट ने उस पर वर्चस्व जमा लिया और शाही महलों को अपने हाथ में ले लिया। इतिहास में है कि एक दिन सिंकदर अपनी घुड़सवार सेना के साथ तख़्ते जमशेद के निकट पहुंचा। इसके बाद उसने महल पर हमले का आदेश दिया। बाबिल और शूश से बड़ी संख्या में चौपाए लाए गए ताकि तख़्ते जमशेद के ख़ज़ानों को लाद कर ले जा सकें।

विशेषज्ञों का मानना है कि तख़्ते जमशेद के ख़ज़ाने का एक बड़ा भाग उन उपहारों और भेंटों पर आधारित था जो हर साल पूरी दुनिया से हख़ामनेशी शासकों के लिए लाए जाते थे और उन्हें एक सुरक्षित स्थान पर रखा जाता था। इसके बाद सिकंदर ने अपनी विजय का जश्न मनाया और जश्न के अंत में जलती हुई मशालें पर्दों और क़ालीनों पर डाल दी गईं। उसने अपने इस बुद्धिहीन काम से एक वैभवशाली इमारत में आग लगा दी। तख़्ते जमशेद की इमरात आग के शोलों में जल गई और हज़ारों ऊंट व ख़च्चर उसका ख़ज़ाना यूनान ले गए। इस प्रकार इस कारवां के वापस चले जाने के बाद हख़ामनेशी शासन का भी अंत हो गया। अलबत्ता इस इमारत के अनेक पथरीले स्तंभ अब भी बाक़ी हैं जो उनके वास्तुकारों की कला व दक्षता का प्रदर्शन करते हैं।

जो कुछ हमने बताया वह ढाई हज़ार सरल पहले पत्थर के इस्तेमाल वाली वास्तुकला की शैली के बारे में था। अब यह सवाल सामने आता है कि क्या वास्तुकला की यह शैली उस समय सभी देशों में प्रचलित थी? उस काल में पश्चिम मे बड़े देश रोम व यूनान थे जो अपनी विशेष वास्तुकला के माध्यम से महल बनाया करते थे। उस काल की बची खुची इमारतों या उनके खंडहरों से पता चलता है कि उनकी सभ्यता में भी पत्थर के इस्तेमाल का चलन था लेकिन जो शैली तख़्ते जमशेद में दिखाई देती है वह पत्थर की किसी भी इमारत में नज़र नहीं आती।

उस काल के एशिया के वैभवशाली महल इस समय मौजूद नहीं हैं और उसके बाद के काल में भी वास्तुकला की यह शैली बहुत अधिक दिखाई नहीं देती। चीन की वास्तुकला मुख्य रूप से लकड़ी के स्तंभों पर आधारित है। वहां की इमारतें चौकोर हुआ करती थीं जो ईंटों या लकड़ियों से तैयार होती थीं जिनकी छतें छतरी जैसी होती थीं जिन्हें टाइलों या लकड़ी से छाया जाता था। छत उलटी नौका जैसी लगती थी और उसके आंतरिक भाग को लाल, बैंगनी व सुनहरी रंगों, प्रकृति या ड्रैगन के चित्रों से सजाया जाता था। महलों में भी यही चीज़ें अधिक वैभव के साथ नज़र आती हैं।

जापान में भी वास्तुकला बड़ी हद तक चीन की वास्तुकला से प्रेरित थी। दीवारों के मुख्य मसाले लकड़ियों विशेष कर देवदार, पाइन और स्प्रूस से तैयार होते थे। शहतूत के पेड़ से बनने वाले काग़ज़ को अंदर की दीवारों की सजावट के लिए इस्तेमाल किया जाता था। इस वास्तुकला में घरों में केंद्रीय महत्व चूल्हे को होता था और सभी चीज़ें उसके आस-पास बनाई जाती थीं। ईरान में महलों और घरों की सजावट के लिए स्तंभों के ऊपर जलती हुई मशालों का इस्तेमाल किया जाता था लेकिन जापान में पारदर्शी काग़ज़ से बनी हुई क़ंदीलों और मोम बत्तियों को इमारतों के अंदर रौशनी के लिए प्रयोग किया जाता था। (HN)

 

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