Jun ३०, २०१९ १४:४५ Asia/Kolkata

प्राचीनकाल से ही इंसान ने अपने कुछ व्यक्तिगत अनुभवों और रुचियों को इस तरह से पेश किया है कि आज उसे प्राचीन धरोहर कहा जाता है।

समय की परिस्थितियों का किसी भी राष्ट्र की कला पर काफ़ी प्रभाव पड़ता है। इसमें धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक कारक प्रभावी होते हैं। अगर कला को हम इस आयाम से देखेंगे तो पता चलेगा कि हर काल में कला की एक ख़ास शैली होती है। वास्तुकला, चित्रकारी, साहित्य और संगीत अपने समय की विशेषताओं के अनुसार होते हैं।

शोधकर्ताओं का मानना है कि ईरान की कला का एक सुनहरा दौर इस्लाम आने के बाद, सफ़वी काल है। इस काल की विशेष झलक हम इस्फ़हान शहर में देख सकते हैं। उस समय राजधानी को क़ज़वीन से इस्फ़हान स्थानांतरित किया गया था, जिसके बाद वह मध्यपूर्व का सबसे सुन्दर शहर बन गया था। इस शहर में बाज़ार, महलों, मस्जिदों और पुलों का निर्माण बहुत ही सुन्दरता से किया गया।

सफ़वियों ने 1502 से लेकर 1736 तक ईरान पर शासन किया। इस दौरान ईरान में इमारतों को टाइलिंग से सजाया गया। क़ैसरिया में शेख़ लुत्फ़ुल्लाह मस्जिद और मैदाने इमाम में मस्जिदे इमाम को टाइलों से सजाया गया। सात संग के नाम से प्रसिद्ध आयताकार ईंटों का काफ़ी बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया गया। दीवारों, गुंबदों, हालों, मेहराबों और मिनारों को सुन्दर टाइलों से सजाया गया। सफ़वी काल में बड़े दरवाज़ों को टाइलों और प्लास्टर ऑफ पेरिस से मोक़रनस किया गया।

शेख़ लुत्फ़ुल्लाह मस्जिद

उस काल में ईरान की सुरक्षा के मद्देनज़र, आली क़ापू, चहल सुतून, हश्त बहिश्त और तालारे अशरफ़ जैसी बड़ी बड़ी इमारतों का निर्माण किया गया। इन इमारतों की दीवारों पर आकर्षक रंग की टाइलें लगाई गईं और सुन्दर चित्रकारी की गई। सफ़वी शासनकाल की दीवारों और छतों पर लकड़ी की नक्क़ाशी की गई। मस्जिदों और धार्मिक स्थलों के अलावा, लकड़ी के काम पर प्रकृति, इंसानों और जानवरों की चित्रकारी की गई।

आली क़ापू महल एक ऐसी इमारत है जो पश्चिम में मैदाने इमाम और शेख़ लुत्फ़ुल्लाह मस्जिद के सामने स्थित है। ईरानी वास्तुकला के दृष्टिगत यह इमारत विश्व स्तर पर प्रसिद्ध है। इसका निर्माण 1644 में शाह अब्बास प्रथम के ज़माने में किया गया था। यह महल समस्त महलों का प्रवेश द्वार था, जिसे नक़्शे जहान चौक में बनाया गया था।

आली क़ापू दो शब्दों आली और क़ापू से मिलकर बना है, जिसका अर्थ ऊंचा दरवाज़ा है। पत्थर से बने इस महल के द्वार से होकर महल में प्रवेश करते हैं और दो तरफ़ बनी सीढ़ियों तक पहुंचते हैं, जिससे ऊपर की मंज़िलों पर पहुंचते थे। आली क़ापू सात मंज़िला इमारत है, जिसकी हर मंज़िल की सजावट विशेष है। ग्राउंड फ़्लोर पर दो हाल हैं, जिनका इस्तेमाल प्रशासनिक एवं न्यायिक कार्यों को लिए किया जाता था। तीसरी मंज़िल पर एक बड़ा सा हाल है, जिसे ऊंचे ऊंचे 18 स्तंभों पर बनाया गया है। इस हाल के बीच में संगे मरमर से बनी एक सुन्दर हौज़ है।

आली क़ापू

इसके अलावा, जिस चीज़ ने आली क़ापू को ईरान की एक महत्वपूर्ण धरोहर बनाया है, वह तत्कालीन प्रसिद्ध कलाकार रज़ा अब्बासी का सबसे आख़िरी मंज़िल पर जिप्सम का काम है। उसका हाल संगीत का कमरा के नाम से मशहूर है। महल के इस भाग में दीवारों में शीशे के बर्तनों और जामों को रखा गया है, जिससे जिप्सम के कलाकारों की कला का पता चलता है। कला की इस शैली के कारण इस भाग में आवाज़ों का रास्ता रुक जाता है।

आली क़ापू की ऊंचाई 48 मीटर है, जिसमें बल खाती सीढ़ियों द्वारा ऊपर की मंज़िलों तक पहुंचा जा सकता है। इतिहास के अनुसार, सफ़वी बादशाह इस हाल में बैठा करते थे और ख़ास त्यौहारों के अवसर पर फ़ौजी परेड और पोलो के खेल का नज़ारा किया करते थे। संगीत

आली क़ापू से थोड़ी दूर पर एक बड़े से बाग़ में हश्त बहिश्त की इमारत है। यह इमारत 1669 में शाह सुलेमान सफ़वी के काल में बनाई गई थी। एक ज़माने में इसे दुनिया की सबसे सुन्दर इमारत कहा जाता था। जिस बाग़ में यह इमारत थी अब उसे एक सार्वजनिक पार्क में बदल दिया गया है। लेकिन उस बाग़ के बीच में ईरानी वास्तुकला की बेहतरीन निशानी हश्त बहिश्त अभी भी बाक़ी है।

हश्त बहिश्त दो मंज़िला इमारत है, जिसमें सुन्दर ताक़ों और डिज़ाइनों ने इसे काफ़ी आकर्षक बना दिया है। उसका केन्द्रीय हाल उत्तर नुमा है और उसके चारों भागों पर एक ही छत है। इस छत पर जिप्सम से बेहतरीन रंगीन डिज़ाइन बने हुए हैं। पहली मंज़िल पर इमारत के चारो कोनों में रंगारंग डिज़ाइन बने हुए हैं। दूसरी मंज़िल पर कई हाल, कमरे और लकड़ी कि खिड़कियां हैं। दूसरी मंज़िल में कई कमरे और गैलरियां हैं, जिनमें से प्रत्येक पर विशेष डिज़ाइन है। कुछ कमरों में पानी का हौज़ और दीवारी अंगीठियां हैं। दीवारों पर आईने का काम है। हश्त बहिश्त महल के कमरों की छत पर उच्च क़िस्म की टाइलें लगी हुई हैं।

इस महल की महत्वपूर्ण विशेषता उसके विभिन्न भागों का एक दूसरे से जुड़ा हुआ होना है। इस विशेषता के कारण, इस इमारत में विविधता के बावजूद एकरूपता पायी जाती है। इसके समस्त भाग, डिज़ाइन, टाइलें और हौज़ आठ अंकों के आधार पर बनाए गए हैं। फ़्रांसीसी पुरातत्वज्ञ आंद्रे गदार ने इस बारे में लिखा है कि हश्त बहिश्त महल में एक ऐसा हाल है कि जो हर दिशा में खुला हुआ है और उसके चारो कोनों में चार इमारतें बनी हुई हैं। यह इमारत आज भी अपनी असली हालत में बाक़ी है। गदार का मानना है कि हश्त बहिश्त यूरोप के सुन्दर महलों से भी अधिक सुन्दर है।

चहल सुतून सफ़वी काल का एक महत्वपूर्ण महल है। इसका क्षेत्रफल क़रीब 67000 वर्ग मीटर है, जिसके केन्द्र में महल स्थित है। इस महल के डिज़ाइन को दो भागों में बांटा गया है। पहला भाग एक चबूतरे पर बना हुआ है, जिसमें 20 स्तंभ हैं, उसके सामने बने हौज़ में उनकी परछाई दिखाई देती है, जिसके कारण इस इमारत को चहल सुतून कहते हैं। इस हाल की छत में आईने का काम हुआ है, जो लकड़ी के रेखायुक्त स्तंभों पर टिकी हुई है। यह सुतून चिनार के पेड़ों के तनों से बने हुए हैं। 

चहल सुतून महल का दूसरा भाग, आयताकार हाल है, जो स्तंभों वाले हाल के पीछे बना हुआ है। इसके ऊपर एक गुंबद बना हुआ है। इस तालार में कि जो सासानी वास्तुकला की तरह है, राजा की बैठकों की तस्वीरें दीवारों पर बनी हुई हैं, जो सफ़वी इतिहास को दर्शाती हैं। महल में मुलम्मे की सजावट उसकी ऐतिहासिक सुन्दरता है। केन्द्रीय हौज़ के चार कोनों में चार पत्थर के शेर हैं, जिससे उस काल की पत्थर की कला का पता चलता है।

ब्रिटिश शोधकर्ता हिलेनब्रांड ने सफ़वी काल के महलों की वास्तुकला के बारे में लिखा है कि सफ़ली काल के महलों में दीवारों की चौड़ाई काफ़ी हद तक कम हो गई थी, वास्तुकार ने बाहरी और भीतरी भाग में बड़ी बड़ी खिड़कियों, ताक़ों और स्तंभों का निर्माण किया। भीतरी दीवारों में अधिक ताक़ हैं और फ़ास्ल सीलिंग एवं मोक़रनस के डिज़ाइन के ताक़ वाले कमरे हैं।

उन्होंने आगे लिखा है, अधिकांश महलों के बाहर प्रकृति के जलवे हैं जो भीतर के वातावरण में जाकर मिल जाते हैं। इसके अलावा, शिकार, भोजन और बाग़ के चित्रों वाली टाइलें हैं। सफ़वी काल की तरह लकड़ी का काम ईरान के इतिहास में किसी और काल में देखने को नहीं मिलता है।                

 

टैग्स