Jul २९, २०१९ १५:४७ Asia/Kolkata

हमने क्रांति के दूसरे क़दम नामक बयान में इस महत्वपूर्ण बंदु की ओर संकेत किया गया था कि अच्छे भविष्य के लिए हमें पूर्व की तुलना में ईरान के महा आन्दोलन से अधिक से अधिक लाभ उठाना चाहिए।

इस घोषणापत्र में वर्चस्ववाद के विरुद्ध संघर्ष को इस्लामी क्रांति की एक स्पष्ट विशेषता बताया गया है।  वर्चस्ववाद के विरुद्ध संघर्ष पिछले चार दशकों से जारी है जो लगातार विस्तृत होता जा रहा है।  इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता ने वर्चस्ववादी शक्तियों से इस्लामी क्रांति के टकराव के बारे में कहा है कि पूर्व सोवियत संघ के विघटन के बाद इस्लामी गणतंत्र ईरान और पश्चिम के बीच गंभीर टकराव आरंभ हुआ जिसका नेतृत्व अमरीका कर रहा था।  वर्चस्ववादियों के वर्चस्व के विरुद्ध संघर्ष वास्तव में इस्लामी संस्कृति में निहित है।  इस्लाम में वर्चस्व जमाने और वर्चस्व के सामने नतमतस्तक हो जाने दोनों की ही निंदा की गई है।  वर्चस्व का अर्थ होता है स्वयं को बड़ा समझना और घमण्ड के नशे में दूसरों पर अपने वर्चस्व को थोपना।

इस शब्द को परिभाषित करते हुए इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामेनेई कहते हैं कि वर्चस्ववाद का अर्थ होता है धन-दौलत, हथियारों तथा अन्य संभावनाओं के बल पर दूसरों के आंतरिक मामलों में टांग अड़ाना।  इसी के साथ वे वर्चस्ववाद के विरुद्ध संघर्ष के बारे में कहते हैं कि किसी एक राष्ट्र का किसी सरकार या देश की ओर से थोपी जान वाली चीज़ो के विरोध को ही वर्चस्ववाद के विरुद्ध संघर्ष कहा जाता है।

वरिष्ठ नेता घमण्ड, अहंकार, उद्दंडता, सच को स्वीकार न करना, अत्याचार करना और अपराध करने जैसी बातों को वर्चस्ववाद की विशेषता कहते हैं।  वे कहते हैं कि इस्लामी गणतंत्र ईरान, आरंभ से ही वर्चस्ववाद का विरोध करता आया है।  वरिष्ठ नेता कहते हैं कि वर्चस्ववादी, किसी भी स्थिति में इस्लामी गणतंत्र ईरान जैसी व्यवस्था को स्वीकार नहीं करेंगे।  इसका मुख्य कारण यह है कि ईरान की इस्लामी लोकतांत्रिक व्यवस्था, मूल रूप में वर्चस्ववाद की खुली विरोधी है।  ईरान में इस्लामी व्यवस्था वर्चस्व के विरोध के कारण ही अस्तित्व में आई है।  यह व्यवस्था इसी आधार पर विकसित हुई, सशक्त हुई और फिर उसने वर्चस्व को खुलकर चुनौती दी।

जब वर्चस्ववाद की बात निकली है तो यह बताते चलें कि हो सकता कि किसी व्यक्ति, गुट, समूह या सरकार के भीतर अहंकार और घमण्ड पाया जाता हो किंतु इसका प्रभाव दूसरे राष्ट्रों या देशों पर बहुत व्यापक नहीं होता लेकिन अमरीकी सरकार का मामला यह है कि वह अपनी राजनैतिक, सैन्य एवं आर्थिक शक्ति के कारण स्वयं को पूरे संसार का मालिक समझ बैठी है।  यह सोच पूरे संसार के लिए गंभीर ख़तरे की घंटी है।  यही कारण है कि इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामेनेई ने अमरीका को संसार में वर्चस्ववाद का सबसे बड़ा प्रतीक बताया है।  वे कहते हैं कि अमरीका, पूर्ण रूप से वर्चस्ववाद का प्रतीक है।  अमरीकी पूरी दुनिया के बारे में यहीं सोच रखते हैं कि वे सबके ऊपर हैं अर्थात विशिष्ट हैं।

ईरान की जनता ने इस्लामी शिक्षाओं के आधार पर शाह के विरुद्ध संघर्ष आरंभ किया और इस्लामी क्रांति की सफलता के बाद हर प्रकार के वर्चस्ववादी विशेषकर अमरीका का विरोध किया।  जिस काल में ईरान में शाह के विरुद्ध संघर्ष शुरू हुआ उस समय वाशिग्टन, पहलवी शासन का सबसे बड़ा समर्थक था।  पहलवी शासन के माध्यम से ईरान में पैदा किये गए अपने प्रभाव का दुरुपयोग करते हुए अमरीका ने ईरान के संसाधनों का ख़ूब दोहन किया।  यही कारण है कि ईरान की इस्लामी क्रांति के काल में अमरीका ने शाह की तानाशाही सरकार का खुलकर समर्थन किया।  इस्लामी क्रांति की सफलता जहां पहलवी शासन के पतन का कारण बनी वहीं यह अमरीका के लिए भी बहुत बड़ी पराजय थी।

इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता ने क्रांति के दूसरे क़दम नामक घोषणापत्र में इस महत्वपूर्ण वास्तविकता का उल्लेख करते हुए कहा कि ईरान की जनता ने पहले तो अमरीकी पिछलग्गू शाह को देश से निकाल बाहर किया और फिर उसके बाद से आज तक ईरानी राष्ट्र वर्चस्ववाद के हर प्रतीक के विरुद्ध संघर्षरत है।  अमरीका के लिए जो बात अधिक ख़तरनाक सिद्ध हुई वह ईरान द्वारा हर सतह पर वर्चस्ववाद के विरुद्ध संघर्ष एवं संसार के सभी अत्याचारग्रस्त लोगों की सहायता करना है।  इस बात को ईरान के संविधान में इस प्रकार से पेश किया गया है कि इस्लामी गणतंत्र ईरान, अन्य राष्ट्रों के आंतरिक मामलों में हर प्रकार के हस्तक्षेप से बचते हुए, वर्चस्ववादियों के मुक़ाबले में, संसार के हर क्षेत्र में अत्याचार ग्रस्तों का समर्थन करेगा।  वर्चस्ववाद विरोधी विचारधारा को स्वरूप देने में स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।  क्रांति के दूसरे घोषणापत्र में शत्रुओं के षडयंत्रों की पहचान के बारे में आया है कि इस्लामी क्रांति ने देश की जनता की राजनीति सोच को परिपक्वता दी।  वर्तमान समय में पश्चिम विशेषकर अमरीका के अपराध, फ़िलिस्तीन समस्या, फ़िलिस्तीनियों के इतिहास को बदलना, युद्ध भड़काने के प्रयास और राष्ट्रों के आंतिरक मामलों में बड़ी शक्तियों के हस्तक्षेप जैसी बातें अब एसी हो चुकी हैं जो ईरान में युवा ही नहीं बल्कि किशोरों के लिए भी बहुत ही सपष्ट हैं।

ईरान से अमरीका के क्रोध का एक और कारण यह है कि न केवल इस्लामी देशों बल्कि बहुत से ग़ैर इस्लामी देशों ने भी ईरान की वर्चस्ववाद विरोधी नीति का स्वागत किया है।  इस विषय की ओर संकेत करते हुए इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता कहते हैं कि विश्व के वर्चस्ववादियों विशेषकर अमरीका के मुक़ाबले में प्रतिरोध और संघर्ष दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है।  पिछले चालीस वर्षों के दौरान इस्लामी क्रांति की सुरक्षा करते हुए किसी के सामने न झुकने की सोच अब ईरान की पहचान बन गई है।  वास्तव में ईरान की इस्लामी क्रांति वर्चस्ववादियों के मुक़ाबले में संघर्ष की प्रेरणा बन चुकी है।  विशेष बात यह है कि वर्चस्ववादी शक्तियों की ओर से लगातार दबाव डालने के बावजूद प्रतिरोध की यह सोच लगातार विस्तृत होती जा रही है।  यही कारण है कि फ़िलिस्तीन, लेबनान, अफ़ग़ानिस्तान, यमन, इराक़, सीरिया और बहरैन में लोग इससे प्रेरणा लेते हुए संघर्ष कर रहे हैं।  वरिष्ठ नेता का कहना है कि शत्रु के मुक़ाबले में कड़ा प्रतिरोध, उसके पीछे हटने का कारण बनेगा।  यही कड़ा प्रतिरोध अब शत्रु को घुटने टिकाने पर विवश करेगा। 

वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामेनेई ने वर्चस्ववादियों के मुक़ाबले में संघर्ष के बारे में कहा कि इसका अर्थ होता है सही रास्ते का चयन।  संघर्ष को आरंभ में बाधाओं और समस्याओं का सामना होता है।  हालांकि हर रास्ते की कुछ कठिनाइयां होती हैं किंतु जब कोई कड़े प्रतिरोध का चयन करता है तो फिर वह निर्भीक होकर आगे बढ़ता जाता है।   उदाहरण स्वरूप अवैध ज़ायोनी शासन के मुक़ाबले में हिज़बुल्लाह का प्रतिरोध ही सन 2000 में लेबनान से उसकी लज्जाजनक वापसी का कारण बना था।  इसी के साथ सन 2006 में फिर हिज़बुल्लाह से उसे पराजय का मुंह देखना पड़ा।  इसी प्रकार फ़िलिस्तीन के कुछ गुटों के नेताओं तथा अवैध ज़ायोनी शासन के बीच सांठगांठ की विफलता के बाद फ़िलिस्तीन के हमास और इस्लामी जेहाद आन्दोलनों ने कड़ा विरोध किया और कई मोर्चों पर सफलाएं अर्जित कीं।  उन्होंने सन 2005 में ग़ज्ज़ा की पट्टी को ज़ायोनियों के नियंत्रण से वापस निकाल लिया।

यमन में प्रतिरोधकर्ताओं ने सऊदी और अन्य वर्चस्ववादियों के मुक़ाबले में कड़ा प्रतिरोध करके उन्हें नाको चने चबवा दिये।  उन्होंने शत्रु को बहुत घातक चोट पहुंचाई।  सीरिया और इराक़ में कड़े प्रतिरोध ने इस देश की जनता को प्रमुख उपलब्धियां हासिल करवाईं।  उनका यही प्रतिरोध आतंकवादी गुट दाइश की पराजय का कारण बना।  बहरैन की जनता भी सन 2011 से अपने देश की तानाशाही सरकार के विरुद्ध संघर्ष जारी रखे हुए हैं।  हालांकि उनका हर प्रकार से दमन किया जा रहा है किंतु बहरैन वासियों के संघर्ष में कोई कमी नहीं आई है।  इन बातों के संदर्भ में वरिष्ठ नेता कहते हैं कि पिछले 40 वर्षों की तुलना में वर्तमान समय में प्रतिरोध अधिक संगठित और प्रभावी है।  यह कड़ा प्रतिरोध केवल क्षेत्र से विशेष नहीं है बल्कि संसार के अन्य क्षेत्रों में मौजूद है जो केवल वर्चस्ववाद के मुक़ाबले में है और आगे भी जारी रहेगा।