Sep ०१, २०१९ १६:२७ Asia/Kolkata

ख़ुशी और सुकून ऐसी चीज़ नहीं है जिसे आप अपनी संपत्ति बनाकर अपने नियंत्रण में कर लें।

ख़ुशी व सुकून का संबंध उसकी सोच से है। यह एक आत्मिक स्थिति है। यह आपकी मनोस्थिति पर निर्भर है। जब ख़ुशी और सुकून का कोई द्वार हमारे ऊपर बंद होता है तो दूसरा द्वार ख़ुल जाता है लेकिन हम इतना अधिक बंद द्वार को देखने में खोए रहते हैं कि खुले हुए द्वार हमें नज़र नहीं आते।

आज मां-बाप अपने बच्चों की सुख सुविधा के लिए बहुत कोशिश करते हैं। वे ज़िम्मेदारी की इस भावना में कभी कभी सीमा पार कर जाते हैं। अगर मां-बाप ने उस तरह बच्चों के नैतिक व आत्मिक प्रशिक्षण पर ध्यान दिया होता जिस तरह वे बच्चों के ज़ाहरी रूप को बेहतर रखने और उनके शरीर के अंगों को ठीक ठाक रखने पर ध्यान देते हैं, तो आज वे बच्चों के झूठ बोलने, अशिष्ट व्यवहार और उनकी आत्मिक बीमारियों से नहीं कुढ़ रहे होते। जवान नैतिक मूल्यों की दृष्टि से उच्च स्तर पर होते हैं क्योंकि बच्चों पर उनके प्रशिक्षकों के व्यवहार व बातों का सबसे ज़्यादा असर होता है। जैसा कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने अपने बड़े बेटे हज़रत हसन अलैहिस्सलाम से  फ़रमायाः बच्चे का मन ख़ाली ज़मीन की तरह होता है जिसमें जो भी बीज बो दिया जाए वह उसे स्वीकार करके फल देती है। तो मैंने इससे पहले कि तुम्हारा मन दूसरी चीज़ों से प्रभावित होकर कठोर होता और दूसरे विचारों की ओर केन्द्रित होता, प्रशिक्षण के लिए जल्दी की।

इमाम अली अलैहिस्सलाम ने अपनी इस तत्वदर्शी बात के ज़रिए मां-बाप को प्रशिक्षण की अहम ज़िम्मेदारी याद दिलायी है। मां-बाप को चाहिए कि इससे पहले कि उनका बच्चा माहौल से प्रभावित हो, उस पर ध्यान दें और उसकी आत्मिक व भावनात्मक ज़रूरतों को पूरा करें और उसे ईश्वरीय मार्ग की ओर निर्देशित करें। जैसा कि इससे पहले हम इस बात का उल्लेख कर चुके हैं बच्चे का व्यक्तित्व मां-बाप के वास्तविक व्यवहार से प्रभावित होता है और उसका व्यक्तित्व बनाने में मां-बाप के व्यवहार का मुख्य रोल होता है। बच्चे के जीवन के अनेक क्षेत्रों में सफलता और स्वस्थ व्यक्तित्व का विकास परिवार के संपर्क के स्वरूप पर निर्भर होता है। मां-बाप को चाहिए कि वे अपने बच्चे के प्रशिक्षण में उन तत्वों पर ध्यान दें जिससे उसका व्यक्तित्व बनता है और जो चीज़ सिखा है जा रही हैं उसकी ओर से सावधान रहें। इसके अतिरिक्त विभिन्न दौर में अपने बच्चों की मानसिक-शारीरिक विशेषताओं को पहचानें ताकि उसी के अनुसार उनके लिए प्रशिक्षण के कार्यक्रम तय्यार करें।

बच्चों का व्यक्तित्व बनाने में जो तत्व मदद करते हैं वे सब बहुत अहम हैं। इन तत्वों में उन तत्वों की अहमियत ज़्यादा है जिनसे बच्चे की आत्मिक व मानसिक ज़रूरतें पूरी होती हैं। बच्चों को निष्ठा व प्रेम से भरे संपर्क की ज़रूरत होती है। अगर यह ज़रूरत पूरी न हो तो बच्चा तन्हाई का आभास करेगा। बच्चा अपनी अहमियत जानना चाहता है।

घर में बच्चे की शारीरिक व मानसिक क्षमता के अनुसार, कुछ काम निर्धारित होने चाहिए ताकि वह यह महसूस करे कि घर के मामलों में न सिर्फ़ यह कि उसकी सार्थक भूमिका है बल्कि है वह अपने रोल को भली भांति अंजाम देने के योग्य है।

बच्चे अपने सामने मौजूद आदर्शों से कौशल सीखते हैं। कौशल अनुसरण के ज़रिए अच्छी तरह सिखाया जाता है और उसके मूल्य को समझा कर उसे स्थायी बनाया जा सकता है। व्यक्तिगत संबंध बनाने, संयम से काम लेने और फ़ैसला लेने की क्षमता बच्चे में पैदा करनी चाहिए।                    

इस्लाम की नज़र में इंसान अपने जन्म से लेकर कुछ चरणों में निरंतर विकास करता है। जैसा कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम का मशहूर कथन हैः तुम्हारी संतान 7 साल की उम्र तक स्वामी की तरह है, सात से चौदह साल तुम्हारे दास की तरह है और 14 से 21 साल तक मंत्री की तरह है। अगर 21 साल की उम्र तक उसमें ऐसी आदतें आ गयीं जिसे तुम पसंद करते हो तो ठीक, वरना उसके बाद उन्हें उन्हीं के हाल पर छोड़ दो। अब ईश्वर के निकट तुम्हारी कोई ज़िम्मेदारी नहीं है।

इस तरह बच्चों के प्रशिक्षण को तीन दौर में विभाजित कर सकते हैं।

पहला चरण उसके स्वामी होने का है जो जन्म से 7 साल की उम्र तक है।

दूसरा चरण आज्ञापालन का है जो 7 से 14 साल तक होता है।

तीसरा चरण 14 साल से 21 साल तक नौजवानी का है जब उससे परामर्श लेना चाहिए।

इनमें से हर एक चरण की विशेष शिक्षा है जिसे बच्चे को सिखाना चाहिए और उससे उसी के अनुसार अपेक्षा रखनी चाहिए।

मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि शुरु के 7 साल बच्चे के साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार की ज़रूरत है जिसका उसके व्यक्तित्व के विकास और आगे की सफलताओं में निर्णायक रोल होता है। इसलिए प्रशिक्षण की विशेष शैली का पालन होना चाहिए। पैग़म्बरे इस्लाम ने मां-बाप से बच्चों के साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार करने और उन्हें प्रेरित करने की अनुशंसा की हैं। बच्चे को जीवन के शुरु के सात साल सबसे ज़्यादा खेल और ख़ुशी की ज़रूरत होती है। मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि बच्चों के खेलने के दौर के पीछे जो राज़ निहित है वह यह कि बच्चा इस दौर में शारीरिक व वैचारिक दृष्टि से विकास करने के साथ साथ मुश्किलों से निपटने के लिए तय्यार होना सीखता है। मां-बाप बच्चे के साथ खेल में भाग लेकर उसे बहुत से नियम, मूल्य और सामाजिक आदर्श सिखा सकते हैं।                     

दूसरा चरण बच्चे का मां-बाप का आज्ञापालन करने का दौर है। मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि इस दौर में बच्चा शारीरिक व मानसिक दृष्टि से बहुत तेज़ी से विकास करता है और वह सोच विचार तथा प्रयत्न त्रुटि विधि से अपनी मुश्किल हल कर सकता है। बुद्धिजीवियों की नज़र में बच्चे की शिक्षा व प्रशिक्षण के लिए यह दौर सबसे अच्छा होता है। इस दौर में मां-बाप और अभिभावक का बच्चे के साथ ऐसा व्यवहार हो कि वह धीरे धीरे आज्ञापालन करना सीखे। यह चरण वयस्कता से पहले का चरण होता है जिसमें बच्चा वयस्कता के दौर की ज़िम्मेदारियों को अपनाने के लिए ख़ुद को तय्यार करता है। इस दौर में प्रशिक्षण की संस्थाएं जैसे परिवार, स्कूल, सामाजिक व धार्मिक संस्थाएं उसे बहुत सी ज़िम्मेदारियां सिखाने के साथ नौजवानी के दौर के लिए तय्यार करती हैं।

तीसरा दौर 14 से 21 साल का है, जिसके बारे में पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम फ़रमाते हैं कि यह बच्चे के मंत्री होने अर्थात उससे परामर्श लेने का दौर है। इस दौर में बच्चा अपनी पहचान के संकट से जूझ रहा होता है। इसके अलावा इस दौर में बच्चा वयस्कता की प्रक्रिया का सामना करता है जो हर व्यक्ति के जीवन का सबसे संकटमय दौर होता है। इसके साथ इस बिन्दु पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है कि इस दौर में बच्चे में आज़ादी, स्वाधीनता, स्वेच्छा से व्यवसाय चुनने, ज़िम्मेदारी लेने, परिवार का गठन करने, नैतिक व आध्यात्मिक मूल्यों को समझने में अधिक रूचि लेता है और राजनैतिक विचारों, धार्मिक व नैतिक आस्था में अपना रूझान प्रकट करता है इसलिए इस दौर में सबसे ज़्यादा बच्चे के व्यक्तित्व का सम्मान करना चाहिए और जीवन के विभिन्न मामलों में उससे परामर्श लेना चाहिए। इस दौर में बच्चा यह आभास करने लगता है कि अब वह बड़ा हो गया है। वह स्वाधीनता चाहता है। हर उस चीज़ से वह नफ़रत करता है जो उसकी शक्ति को सीमित करती है। इस दौर में नौजवान ज़्यादातर समय कल्पनाओं में खोया रहता है और अपनी आकांक्षाओं के बारे में सोचता रहता और जीवन की वास्तविक ज़रूरतों को पूरा करने की ओर कम ध्यान लगाता है। वह कल्पनाओं की दुनिया में रहता है ताकि इस तरह अपनी इच्छाओं को तृप्त कर सके। इस वजह से वह जीवन की वास्तविकताओं का सामना नहीं कर सकता। इसलिए ज़रूरी है कि उससे परामर्श लेकर उसका स्वाधीन व्यक्तित्व की ओर दिशा निर्देश किया जाए और गुमराही से बचाया जाए।    

      

क्या आप जानते हैं कि एक मिनट क्रोध करने से आपके शरीर की प्रतिरोधक क्षमता 5 घंटे के लिए कमज़ोर हो जाती है और एक मिनट हंसने से 24 घंटे के लिए उसकी मज़बूती बढ़ जाती है।

क्रोध या व्याकुलता के समय कुछ क्षण की हंसी का आप पर करिश्माई असर पड़ता है क्योंकि हंसने से इंसान के विचारों की धारा बदल जाती है। हंसने से इंसान के स्नायु तंत्र में एन्ड्रोफ़िन नामक रसायन पैदा होता है जिससे व्यक्ति में ख़ुशी व आत्म विश्वास की भावना पैदा होती है। हंसते वक़्त इंसान ख़ुद ब ख़ुद अधिक गहरी सांस लेता है और इस तरह अधिक मात्रा में आक्सीजन उसके शरीर में जाती है।

ताज़ा वैज्ञानिक शोध के अनुसार, हंसने से नाना प्रकार की बीमारियों ख़ास तौर पर दिल से जुड़ी बीमारी होने की संभावना कम हो जाती है। हंसते वक़्त दिल सहित सभी अंगों में रक्त का संचार बढ़ जाता है। इसीलिए अनुशंसा की जाती है कि सुबह बिस्तर से उठ कर जितना मुमकिन हो हंसिए।

ईरानी शायरी में भी हंसी के संबंध में आया है कि हंसी उस बीमारी का एलाज है जिसका कोई एलाज नहीं है। तो अपने परिवार के सदस्यों के साथ ख़ुश रहिए और जीवन को हंसी के ज़रिए ख़ुश रखिए। कार्यक्रम का वक़्त ख़त्म होता है इजाजत़ दें।

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