Sep ०४, २०१९ १५:५२ Asia/Kolkata

ज्ञान व साहित्य में रूचि रखने वाले जामी के जीवन से आज तक उनका नाम बड़े सम्मान से लेते हैं।

उन्हें नवीं शताब्दी हिजरी क़मरी का फ़ारसी गद्य और पद्य का सबसे बड़ा उस्ताद माना गया है। उनके ज्ञान व शिष्टाचार की प्रसिद्धि सिर्फ़ उनके जीवन काल या विशाल ईरान तक सीमित नहीं बल्कि उन सभी स्थानों में जहां फ़ारसी भाषा के ज्ञानी रहते थे जैसे भारत, अफ़ग़ानिस्तान, एशिया माइनर और इस्तांबोल में उनका नाम बड़े सम्मान से लिया जाता था। हर कोई उनके उच्च स्थान का लोहा मानता था।

नूरुद्दीन अब्दुर्रहमान जारी नवीं शताब्दी हिजरी क़मरी के मशहूर शायर, लेखक व आत्मज्ञानी हैं और फ़ारसी भाषा के बहुत से विद्वान उन्हें हाफ़िज़ शीराज़ी के दौर के बाद का सबसे बड़ा कवि मानते हैं। वह 817 हिजरी क़मरी बराबर 1414 ईसवी में ख़ुरासान प्रांत के जाम ज़िले में पैदा हुए। उनके बाप-दादा इस्फ़हान में रहते थे लेकिन जब तुर्कों का हमला हुआ तो वे ख़ुरासान पलायन कर गए और ख़ुरासान के जाम ज़िले के ख़ुर्जर्द इलाक़े में बस गए। जामी कि पिता उनके जन्म से कुछ साल पहले परिवार के साथ हेरात चले गए और वहीं बस गए। हेरात इस समय अफ़ग़ानिस्तान का हिस्सा है। जामी का परिवार जब तक जामी ज़िले में रहा वह दश्ती के नाम से मशहूर था लेकिन जब उनका परिवार हेरात में बस गया तो नूरुद्दीन अब्दुर्रहमान ने अपने लिए जामी उपनाथ का चयन किया और इसी नाम से मशहूर हुए।          

जामी ने आरंभिक शिक्षा जाम के ख़ुर्जर्द इलाक़े में हासिल की जो उस समय हेरात का उपनगरीय भाग था। उन्होंने फ़ारसी साहित्य और अरबी व्याकरण की शिक्षा अपने पिता से हासिल की। जामी बचपन में भी शिक्षा पूरी करने के लिए अपने पिता के साथ हेरात गए और वहां के नेज़ामिया स्कूल में जो उस समय हेरात का ज्ञान का केन्द्र था, ठहर गए। वहीं पर जामी ने ख़्वाजा अली समरक़न्दी और मोहम्मद जाजर्मी जैसे उस्तादों की सेवा में रह कर अरबी भाषा, तर्कशास्त्र, दर्शनशास्त्र, गणित और धार्मिक ज्ञान इत्यादि सीखा। उसके बाद उन्होंने दर्शनशास्त्र में शिक्षा जारी रखी और इसी विषय में अध्ययन करते रहे।

जामी ने बड़े उस्तादों के ज्ञान से लाभ उठाने और अधिक ज्ञान की प्राप्ति के लिए समरक़न्द कीयात्री की और वहां उन्होंने बड़े बड़े उस्तादों की सेवा में रह कर ज्ञान की प्यास बुझायी। उस समय समरक़न्द विज्ञान व साहित्य का बहुत बड़ा केन्द्र था।

समरक़न्द में जामी अपनी बुद्धि, मज़बूत स्मरण शक्ति और तर्क देने की क्षमता की वजह से अपने शिक्षकों के प्रिय बन गए और बड़ी प्रतिष्ठा हासिल की। शोधकर्ताओं का मानना है कि जामी तर्कशास्त्र, दर्शनशास्त्र, धर्मशास्त्र, धर्मशास्त्र के सिद्धांत, हदीस, गणित, खगोलशास्त्र और संगीत में अपना विचार व मत रखते थे।      

इसके बाद जामी को अध्यात्म में रूचि पैदा हुयी और इस क्षेत्र में ज्ञान प्राप्त करने के लिए वह समरक़न्द से हेरात लौट आए और अपने समय के बड़े आत्मज्ञानियों के निकट अध्यात्म के बारे में सीखा। इसी दौरान वे सूफ़ीवाद से परिचित हुए और उसकी ओर उन्मुख हुए। सूफ़ीवाद में वह सदुद्दीन मोहम्मद काशग़री नक़्शबंदी के मुरीदों में गिने जाने लगे।   सूफ़ीवाद में जामी इतना आगे निकले कि सअदुद्दीन मोहम्मद काशग़री नक़्शबंदी की मौत के बाद उन्हें उनका उत्तराधिकारी बना दिया गया।

समकालीन इतिहासकार व शोधकर्ता उस्ताद ज़बीहुल्लाह सफ़ा का कहना है कि जामी अपने दौर के आत्मज्ञानियों की तरह शैख़ मुहयुद्दीन अरबी की किताबों का अध्ययन करते थे और उनके अनुयाइयों में उनकी गणना होती थी। जामी की किताबों के अध्ययन से पता चलता है कि उनके विचारों व रचनाओं पर इबने अरबी के विचारों की कितनी छाप थी।

शोधकर्ताओं का मानना है कि जामी के दौर में अर्थात पंद्रहवीं शताब्दी ईसवी में सूफ़ीवाद अपने मुख्य मार्ग से हट कर निरंकुशता की ओर उन्मुख हो गया था। लेकिन सभी शोधकर्ताओं का मानना है कि जामी ने अपने सुंदर शेरों और रचनाओं से ईरानी अध्यात्म को उसकी सही जगह पर बाक़ी रखा। उनकी इसी कोशिश की वजह से उन्हें फ़ारसी भाषा के सबसे बड़े उस्तादों में गिना जाता है।

जामी की एक विशेषता यह थी कि वे अध्यात्म की शिक्षा में सीधे तौर पर नसीहत करने से बचते थे। वह अपने साथियों के साथ बहुत सादा जीवन बिताते थे। उनका मानना था कि सत्य के खोजी लोगों के साथ रह कर उनका सत्य की ओर मार्गदर्शन किया जा सकता है। जामी अपनी इसी जीवन शैली की वजह से समाज के हर वर्ग में लोकप्रीय थे।

जामी बहुत ही विनम्र स्वभाव के थे। वह बहुत ही सादा जीवन जीते थे। वह सबसे निर्धन व्यक्ति के साथ बैठ कर खाना खाते थे। वे ज़्यादातर समय बहुत ही सादा कपड़ा पहनते और अपने मित्रों व शिष्यों के साथ ज़मीन पर बैठकर बातचीत करते थे। अपने ज्ञान व आत्मज्ञान की वजह से जामी का बादशाहों के निकट विशेष स्थान था। कहते हैं कि शासक हुसैन बायक़ुरा ने जब हेरात में नए स्कूल का उद्घाटन करना चाहा तो बहुत बड़े जश्न का आयोजन किया और सभी विद्वानों व प्रतिष्ठित लोगों को आमंत्रित किया। हुसैन बायक़ुरा ने अपने बैठने के स्थान के दोनों ओर जामी और वज़ीर अमीर अलीशीर नवाई के लिए जगह विशेष की लेकिन स्कूल की इमारत में दाख़िल होते समय जामी बुढ़ापे व कमज़ोरी के कारण विशेष स्थान तक न पहुंच सके और ज़मीन पर बैठ गए। बादशाह और शहज़ादे भी जामी के सम्मान में तुरंत उनके चारों ओर आकर ज़मीन पर बैठ गए।         

तख़्त मज़ार

समकालीन शोधकर्ता व साहित्यकार डॉक्टर अब्दुर्रहमान ज़र्रीनकूब का मानना है कि अब्दुर्रहमान जामी सादा जीवन बिताने वाले संत थे। वह शायरी करते थे लेकिन किसी इंसान की प्रशंसा में शेर नहीं कहते थे। अध्यात्म में उनका इतना बड़ा स्थान था कि उन्हें हेरात में अध्यात्म का बादशाह समझा जाता था। हेरात के बादशाहा और वज़ीर उनसे श्रद्धा रखते थे।

जामी बुढ़ापे से पहले ही उन जगहों पर जहां फ़ारसी ज़बान प्रचलित थी जैसे उस्मानी साम्राज्य के अधीन इलाक़ों से लेकर आधे एशिया और भारतीय उपमहाद्वीप में मशहूर और विशेष सम्मान के स्वामी थे।

जामी की समकालीन हस्तियों में अलीशीर नवाई, बादशाह हुसैन बायक़ुरा और मुग़ल बादशाह ज़हीरुद्दीन बाबर उनसे श्रद्धा रखते थे। उस दौरे में जीवनी लिखने वालों जैसे दौलतशाह समरक़न्दी, साम मीरज़ा सफ़वी  और ख़्वान्द मीरज़ा ने बड़े सम्मानीय शब्दों में जामी के बारे में उल्लेख किया है।

जामी 18 मोहर्रम सन 898 हिजरी क़मरी बराबर 1492 ईसवी में 81 साल की उम्र में इस संसार से चल बसे। उनका हेरात शहर में देहान्त हुआ और उन्हें उनके उस्ताद सादुद्दीन काशग़र की मज़ार के बग़ल में दफ़्न कर दिया गया। जामी की क़ब्र इस समय “तख़्त मज़ार” के नाम से मशहूर है। इतिहास में मिलता है कि जामी के अंतिम संस्कार में बादशाह हुसैन बायक़ुरा, उनके वज़ीर अमीर अलीशीर नवाई सहित सभी दरबारी और राष्ट्र की सभी प्रतिष्ठित हस्तियां मौजूद थीं।

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