Jul २५, २०२० १५:४६ Asia/Kolkata

नगरों में बहुत सी इमारतें नज़र आती हैं, इसी तरह रास्तें सड़कें, पार्क और चौराहे, सब कुछ अलग अलग नगरों से विशेष होते हैं और यह सब मिल कर किसी नगर का रूप बनाते हैं और यह सब एक दूसरे से संबंधित होते हैं।

किसी भी काल की शिल्प कला के रूप और रंग में, मसालों, तकनीक, अर्थ व्यवस्था और इसी प्रकार संस्कृति और उस काल के लोगों की आवश्यकता जैसे बहुत से तत्व प्रभावी होते हैं। इसी लिए एतिहासिक इमारतें, स्वंय इतिहास बताती हैं और अपने दौर के लोगों की जीवन शैली और सामाजिक परिस्थितियों का वर्णन करती हैं।

 

मनुष्य को जब से दुर्गम पहाड़ों और विशाल मरुस्थलों को पार करने के लिए सड़क और मार्ग की ज़रूरत महसूस हुई तब से वह इस प्रयास में हमेशा रहा कि इस राह की सारी बाधाएं दूर कर दे। आरंभ में मनुष्य ने अपना बोझ स्वंय उठाया और फिर उसने अपना बोझ, पशुओं पर डालने का तरीका सीख लिया इस प्रकार से भारी बोझ भी इधर से उधर पहुचांना उसके लिए संभव हो गया, समय बीता और पहिए का अविष्कार हुआ और फिर मनुष्य को उसे अन्य क्षेत्रों की यात्रा भी करना चाहिए और नये नये इलाक़ों की खोज करना चाहिए। इस के लिए इन्सान ने, पहाड़ों का सीना चीर कर रास्ता बनाना सीखा, नदियों पर पुल बनाए और रेल की पटरियां बिछायीं। यह सब कुछ प्रकृति की रुकावटों को दूर करने के लिए था। आरंभ में मनुष्य, पेड़ों की डालियों और पेड़ों की लकड़ियों से नदियों पर पुल बनाता था लेकिन वह अधिक दिनों तक ठहरते नहीं थे। इसी लिए धीरे धीरे इन्सान, पुल निर्माण कला, शिल्प कला के क्षेत्र में प्रविष्ट हो गयी और आज, आधुनिक तकनीक की मदद से और कंक्रीट और लोहे और अन्य धातुओं को प्रयोग करके उफनती नदियों, दर्रों और पहाड़ों के बीच विशाल और अत्याधिक मज़बूत पुल बना दिये गये हैं।

पुल, विभिन्न समाजों को एक दूसरे से जोड़ने में सदैव एक प्रभावी साधन रहा है और इसका इतिहास भी, सड़क निर्माण के इतना ही पुराना है। पुल को नदियों और दर्रों को पार करने के लिए बनाया जाता रहा है। मध्य पूर्व और चीन में विशाल पुलों के निर्माण का इतिहास, ईसा पूर्व से मिलता है। उत्खनन में मिलने वाले अवशेषों से पता चलता है कि ईरान में छोटे बड़े पुलों के निर्माण का बहुत चलन था। फिरदौसी जैसे प्रसिद्ध ईरानी कवियों की कविताओं में तथा इतिहास व भुगोल की किताबों में भी पुल  और मानव जीवन तथा दुश्मनों से मुकाबले में विजय में उसकी भूमिका का वर्णन मिलता है। इसी से यह पता चलता है कि ईरानियों को पुल निर्माण की विभिन्न शैलियों का भली भांति ज्ञान था। ईरान में सब से अधिक पुराना धनुषाकार पुल कि जिसका अवशेष अब भी बाकी है, वह पुल है जिसे आठवी सदी ईसा पूर्व, उत्तरी ईरान की अरस नदी पर बनाया गया था। इस पुल का एक स्तंभ जिसे पत्थर से बनाया गया था, आज भी अरस नदी के तट पर नज़र आता है।

 

हखामनी युग में भी ईरान में धनुषाकार पुल बनाए जाते थे जिसके अवशेष, पासारगाद में मिले हैं। इन में से एक पुल, सोलह मीटर चौड़ा था जिसे तीन लाइनों में बने पत्थर के स्तंभों ने थामे रखा था। राजमार्ग, और रेशम रोड, ईरान के विभिन्न क्षेत्रों को एक दूसरे से जोड़े रखे थे और इसी लिए पुल की भूमिका बेहद अहम थी। यूनान के प्रसिद्ध इतिहासकार , हिरोडोटस ने, हखामनी शासक साइरस द्वारा बाबिल नगर पर विजय और " गेन्दस" नदी को पार करने के बारे में  जिसे आज  " दियाला नदी" कहा जाता है, लिखा है। जब साइरस, गेन्दस नदी पहुंचा तो उसका एक घोड़ा, नदी में डूब गया जिसकी वजह से उसे बेहद गुस्सा आया और उसने क़सम खायी कि कोई एेसा तरीका खोजेगा जिससे लोग, पैर गीला हुए बिना, नदी पार कर लेंगे। उसके आदेश से बहुत सी नहरें खोदी गयीं और उनमें नदी का पानी खोल दिया गया। फिर नदी पर एक पुल बनाया गया और अगले साल वसन्त के मौसम में साइरस अपने सैनिकों के साथ बाबिल की ओर बढ़ गया। इस यूनानी इतिहासकार ने, पेरपोलिस के निकट अराक्स नदी पर एक पुल बनाए जाने का भी उल्लेख किया है।

 

प्राचीन ईरान में नदियों पर पुल और बांध बनाने के सुबूत मिलते हैं। ईरान के सीवंद, यासूज और लुरिस्तान में इस प्रकार के बांधों और पुलों के अवशेष मिले हैं। निश्चित रूप से, इन इमारतों के मज़बूत होने का मुख्य कारण, वह मसाले हैं जो इन पुलों के स्तंभों में प्रयोग किये जाते थे। ईरानी, एक सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व से ही, भवन निर्माण में, चूने का प्रयोग करने लगे थे जो आज पूरी दुनिया में सीमेन्ट के लिए अत्याधिक महत्वपूर्ण है। पुरात्व विदों का मानना है कि संभावित रूप से कूच करने वाले बंजारे, जहां ठहरते थे वहां, अपने लिए चूल्हे बनाने में चूने का प्रयोग करते थे जो बारिश और फिर आग से पक कर मज़बूत हो जाते थे जिन्हें देख कर बंजारों ने इस मसाले की खोज की और उन्हें चूने के पत्थर की उपयोगिता का पता  चल गया जिसके बाद ईरान में शिल्पकारी में चूने का व्यापक रूप से प्रयोग किया जाने लगा और फिर ईरान से यह खोज, रोम , यूनान व यूरोप यहां तक कि चीन तक पहुंच गयी।

 

ईरान में चूने के पत्थर के प्रयोग का इतिहास तीन हज़ार साल से अधिक पुराना है जिसके अवशेष, तेहरान के पश्चिम में स्थित एक क़ब्रिस्तान में मिलते हैं। मियाना में पुल दुख्तर, और खुर्रमाबाद से अन्दमिश्क जाते समय रास्ते में मिलने वाले पुल दुख्तर, उन पुलों में शामिल है जिन्हें, चूने से बने मसाले से बनाया गया और उनका इतिहास ढाई हज़ार साल से अधिक है। सासानी काल में पुल निर्माण जारी रहा और यदि गौर किया जाए तो अधिकांश पुल, ईरान के दक्षिणी और पश्चिमी क्षेत्रों में मिलते हैं। वास्तव में ज़ागरोस पर्वतों की गोद में  उफनदी - मचलती नदियां और इस  क्षेत्र का व्यापारिक महत्व इस बात का कारण बना कि इस इलाक़े में जगह जगह पुल बनाए जाएं जिनके अवशेष आज भी देखे जा सकते हैं।

 

 

ईरान के पश्चिम में स्थित किरमानशाह के निकट, एक बहुत विशाल पुल के खंभे दिखायी देते हैं जिसे " पुले ख़ुसरो" कहा जाता है। चौथी सदी हिजरी के अरब शायर और पर्यटक, अबू दल्फ़ ने अपनी यात्रा वृतांत में इस पुल का उल्लेख किया है। वह लिखते हैं कि तीस्फून- हमदान व्यापारिक मार्ग में और बीसतून पहाडऋ़ों के निकट, सासानी काल से संबंधित " खुसरो पुल" स्थित है। इस पुल की लंबाई, 153 मीटर और चौड़ाई 4 मीटर है। पुल के 9 खंभें हैं जिन्हें पत्थरों से  ष्टकोणीय बनाया गया है। पत्थर के टुकड़ों को चूने और गिट्टी से भरा गया है। हालिया वर्षों में इन खंभों पर लोह का पुल बना दिया गया है ताकि आवाजाही संभव हो सके।

 

बहुत से शोधकर्ता, अरस दी पर बने एक पुल को इस्लामी काल का सब से पहला बड़ा पुल बताे हैं। इस पुल को "खुदा आफरीन" कहा जाता है। आठवीं सदी हिजरी के प्रसिद्ध इतिहासकार, हम्दुल्लाह मुस्तौफी क़ज़वीनी ने इस पुल के निर्माण की तारीख, 25 हिजरी क़मरी बताया है। ईरान में इस्लाम के प्रवेश के आरंभिक दशकों में, फुरात नदी पर अस्थाई पुल बनाए गये जिनके अवशेष भी नहीं बचे और केवल इतिहास की किताबों में उनका उल्लेख मिलता है। रोचक बात यह है कि उनमें से अधिकाशं को पहले से बने हुए पुलों के खंभों पर बनाया गया था जो बाद में तबाह हो गये किंतु कुछ बरसों बाद, शिल्पकारों ने इन्ही पुलों के लिए विशाल और मज़बूत पुल बनाए। हिजरी कैलेंडर के आरंभ में ग्रेटर खुरासान, और मोसोपोटामिया में सड़क और पुल निर्माण पर विशेष रूप से ध्यान दिया गया और " जैहून, तथा, " सैहून" नदियों पर ईरानी कलाकारों ने बहुत से पुल बनाए।

 

 

हिजरी क़मरी की चौथी सदी को, ईरानी सभ्यता और संस्कृति में बड़े परिवर्तनों की सदी कहा जाता है और इस दौरान, शिल्पकला में भी असाधारण रूप से विकास हुआ। इस काल में पूरे ईरान में बड़े बड़े और मज़बूत पुल बनाए गये जिनमें कारून नदी पर " हिन्दवान"  और " ईज़ज"  हीरमंद नदी पर " हीरमंद " और " फरे" तथा  लुरिस्तान में कश्कान नदी पर " कश्कान" पुलों का नाम लिया जा सकता है। कश्मान पुल 300 मीटर की लंबाई और 11 खंभों के साथ ईरान में पुल निर्माण के मूल्यवान प्रतीक है। इस पुल के खंभों को बनाने के लिए, बड़े बड़े और तराशे गये पत्थरों को प्रयोग किया गया है और उसके 12 मुहानों से नदी का पानी गुज़रता है। नदी से पुल की ऊंचाई 17 मीटर है। पुल पर कूफी लिपि में एक शिलालेख भी है जिस पर इस पुल के निर्माण की तारीख लिखी हुई है। कश्कान पुल को सन 388 हिजरी क़मरी से सन 398 हिजरी क़मरी तक बनाया गया है। कश्कान पुल के निकट, सासानी काल से संबंधित दो पुलों के अवशेष नज़र आते हैं जो कश्कान पुल के सामने अत्यन्त साधारण नज़र आते हैं।

 

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