ईरानी संस्कृति और कला-52
कार्यक्रम में हम आपको एसी ईरानी इमारत के बारे में बताने जा रहे हैं जो अब अपना मूल स्वरूप धीरे-धीरे खोती जा रही है।
यह एसी इमारत है जो पहले अधिकतर सार्वजनिक रूप में प्रयोग होती थी और लोग उसका प्रयोग किया करते थे। इस सार्वजनिक इमारतका नाम है हमाम या स्नानगृह। सार्वजनिक हमामों का ईरान में शताब्दियों तक प्रचलन रहा है जबकि अब यह घरों का हिस्स बन चुके हैं। एक समय एसा था जब सार्वजनिक स्नानगृहों को ईरान में अलग स्थान पर विशेष रूप में बनाया जाता था। इनके निर्माण में विशेष प्रकार की शैली का प्रयोग किया जाता था।
हमाम या स्नानगृह, ईरान में एसी प्राचीन इमारत है जो नहाने-धोने के अतिरिक्त बहुत सी बातों के केन्द्र रहे हैं। प्राचीनकाल में हमाम लोगों के एकत्रित होने और समाचारों के केन्द्र के रूप में भी प्रचलित रहे हैं। हमामों से प्राचीन इतिहास भी जुड़ा रहा है। इनकी वास्तुकला भी विशेष प्रकार की रही है। अगले कुछ कार्यक्रमों में इन सब बातों पर विस्तार से चर्चा करेंगे।
अति प्राचीनकाल से मानव, जीवन व्यतीत करने के साथ ही स्वयं को साफ़-सुथरा रखने के लिए प्रयासरत रहा है। इस काम के लिए उसको जल के साथ ही एक स्थान की भी आवश्यकता होती थी। आरंभिक काल के समाजो पर किये गए शोध दर्शाते हैं कि ईरान में शताब्दियों से सार्वजनिक हमामों का चलन रहा है। उस काल में ईरानी, हमाम निर्माण को विशेष महत्व दिया करते थे। शोध से पता चलता है कि ईरान के सबसे पुराना हमाम, तख़्ते जमशीद से संबन्धित है। इसके अतिरिक्त वहीं पर एक महल के भीतर जो हमाम या स्नानगृह मिले हैं उनमे से एक सार्वजनिक हमाम है जबकि दूसरा विशेष हमाम है। यह हमाम, दो भागों पर आधारित है एक अंदरूनी भाग और दूसरा बाहरी भाग। इनके बीच सीढ़ियां बनी हुई हैं जो दोनों को एक-दूसरे से अलग करती हैं। महल के भीतर बना हुआ हमाम चार वर्गमीटर में है। इसके भीतर खुदाई के दौरान मिट्टी से बनी हुई कुछ चीज़ें मिली हैं। हमाम का चलन "अशकानियान" काल में भी रहा है। उस काल के बने कुछ हमाम बाद में खुदाई के दौरान मिले हैं।
ईरान में प्राचीनकाल से ही पवित्रता और सफाई सुथराई का बहुत ध्यान रखा गया है। यह पवित्रता दो प्रकार की है। एक शरीर की और दूसरे आत्मा की। सामान्यतः यह देखा गया है कि प्राचीनकाल में धर्मस्थल अधिकतर नदी या नहर के किनारे बने होते थे। उस काल में पवित्रता को एक धार्मिक प्रतिष्ठा के रूप में देखा जाता था। पुराने ज़माने में हर धर्म में पवित्र रहने पर बहुत बल दिया गया है।
इस्लाम के उदय के बाद बहुत से देशों में सांस्कृतिक एवं राजनैतिक परिवर्तन आए। इन परिवर्तनों ने ईरान को भी प्रभावित किया। इस्लाम में पवित्रता को बहुत अधिक महत्व दिया गया है। इस्लाम में ग़ुस्ल या वुज़ू का जो आदेश दिया गया है वह धार्मिक दृष्टि के अतिरिक्त स्वास्थ्य की दृष्टि से भी विशेष महत्व रखता है। इस्लाम के उदय के बाद धार्मिक स्थलों विशेषकर मस्जिदों में वुज़ू करने के लिए विशेष स्थल को दृष्टिगत रखा गया। स्नानगृहों या हमामों को धर्मशालाओं और बाज़ारों में ही बनाया जाने लगा। तीसरी हिजरी क़मरी के एक इतिहासकार "बेलाज़री" अपनी पुस्तक "फ़ुतूहुल बुल्दान" में लिखते हैं कि बसरे में हमाम से प्रतिदिन होने वाली आय एक हज़ार दिरहम थी।
एतिहासिक स्रोतों से पता चलता है कि इस्लामी क्षेत्रों में जो हमाम बनाए गए उनमें से अधिकांश का निर्माण ईरानी वास्तुकारों ने किया। यह लोग हमाम के निर्माण में बड़ी ही सुन्दर कला का प्रयोग किया करते थे। कहते हैं कि जार्डन में अमरा महल में बना उमवी काल का हमाम, वास्तुकला की दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण हमाम है।
हमाम बनाने का चलन इस्लाम के उदय की पहली शताब्दी से तेज़ होने लगा। चौथी हिजरी क़मरी में उज़दुद्दौला ने आदेश दिया था कि बग़दाद में 5000 हमाम बनाए जाएं। इस काम के लिए लगभग 30000 लोगों को लगाया गया था। हमाम के मालिकों का पूरा ध्यान इस ओर रहता था कि हमाम में गंदगी न फैलने पाए क्योंकि इससे उनका व्यापार प्रभावित होता था। यही कारण है कि वे हमामों को अधिक से अधिक साफ रखने पर ध्यान दिया करते थे। पांचवी हिजरी शमसी में लिखे गए नासिर ख़ुसरो यात्रा वृतांत में मिलता है कि जब उन्होंने अपनी यात्रा के दौरान किसी नगर के हमाम में जाने का प्रयास किया तो उनको हमाम में प्रविष्ट होने की अनुमति नहीं दी गई। इसका कारण यह है कि यात्रा के दौरान उनके कपड़े धूल में अट गए थे और उनसे पसीने की बू आ रही थी। उस काल में धर्मशालाओं के बाहर या नगर में प्रविष्ट होने वाले प्रवेष द्वारों के पास स्नानगृह बनाए जाते थे। इनका प्रयोग सामान्यतः यात्री किया करते थे। सलजूक़ियो के काल में, जो इस्लामी वास्तुकला के फलने-फूलने का काल था, सार्वजनिक इमारतों के निर्माण का काम तेज़ी से बढ़ा जैसे हमामों का बनाया जाना।
सार्वजनिक स्थलों के निर्माण की प्रक्रिया सफ़वी काल काल जारी रही हालांकि उसमें पहले जैसी गति नहीं थी। हालांकि सफ़वी काल में कुछ विशेष एवं सुन्दर हमामों का निर्माण किया गया। इन हमामों को वास्तुकला का उत्कृष्ट नमूना माना जाता है। यह हमाम आज भी मौजूद हैं। Chardin के यात्रा वृतांत में बताया गया है कि जब मैंने इस्फ़हान का दौरा किया जो उस समय इस नगर में 163 मस्जिदें, 48 मदरसे, 1082 धर्मशालाएं और 272 हमाम थे। उन्होंने सत्रहवीं शताब्दी में इस्फ़हान की यात्रा की थी।
बीसवी शताब्दी के आरंभ और लोगों के जीवन में मूलभूत परिवर्तनों के शुरू होने के साथ सामान्यतः हमामों के निर्माण का काम रुकने लगा। अबके बाद से घरों में हमामों का चलन बढ़ने लगा और सार्वजनिक हमामों की संख्या में ह्रास होता गया। वर्तमान समय में कुछ हमामों को संग्रहालयों में परिवर्तित किया जा चुका है। संग्रहालयों में परिवर्तित हुए इन हमामों को देखने वालों को उस काल की वास्तुकला और वास्तुकारों की दक्षता का अनुमान होता है। इस प्रकार के हमामों की संख्या अब बहुत ही कम हो चुकी है।
ईरान में स्नानगृहों का अस्तित्व शताब्दियों से रहा है। हमाम एसी जगह होती थी जहां पर लोग आते-जाते थे। यह स्थान केवल स्वच्छता का केन्द्र नहीं था बल्कि लोगों के उठने-बैठने और एकत्रित होने का भी स्थान था। यहां पर लोग मुलाक़ात किया करते थे। बहुत से सामाजिक विषयों पर यहां चर्चा होती थी। छोटी-मोटी चीज़ें ही हमाम के बाहर बेची जाती थीं। बहुत से महत्वपूर्ण समाचार, यहीं से दूसरे स्थलों तक पहुंचा करते थे। हमाम के बाहर चोट और मोच का देसी इलाज भी किया जाता था।
जानकारों का कहना है कि प्राचीन काल में वे स्थल जहां से ख़बरे दूसरे स्थानों तक पहुंचा करती थीं उनमे एक हमाम होता था तो दूसरे बाज़ार और एक अन्य जगह थी आटा पिसाने की चक्की। हमामों से संबन्धित कुछ कहानियां आज भी प्रचलित हैं जो अब इतिहास का भाग बन चुकी हैं। इन्हीमें से एक अमीर-कबीर की हत्या की घटना है।
ईरान के एक जानेमाने राजनेता मिर्ज़ा तक़ी ख़ान अमीर-कबीर की हत्या हमाम में हुई थी। वे दूरदर्शी, शिक्षित और बहुत समझदार व्यक्ति थे। उन्होंने 1807 से 1851 के बीच जीवन गुज़ारां तक़ी ख़ान अमीर-कबीर तीन वर्षों तक ईरान में "सद्रे आज़म" या प्रधानमंत्री के पद पर आसीन रहे। वे प्रगतिशील विचारधारा के स्वामी थे और विकास के कामों को पंसद करते थ किंतु क़ाजार के दरबारियों और अवसरवादियों को यह बात बिल्कुल पसंद नहीं थी। उन्होंने चालें चलकर तत्कालीन शासक नासेरुद्दीन शाह को अमीर-कबीर के विरुद्ध उकसाया कि वे उनको फांसी पर लटकाएं। अमीर-कबीर जब काशान के बाग़े फ़ीन में विस्थापन का जीवन व्यतीत कर रहे थे तो उनकी हत्या का आदेश जारी किया गया। तत्कालीन शासक के कारिंदों ने बाग़े फीन में अमीर-कबीर की हत्या कर दी।
मिर्ज़ा तक़ी ख़ान अमीर-कबीर ने हालांकि बहुत कम समय के लिए प्रधानमंत्री का पद संभाला किंतु इस दौरान उन्होंने विकास के बहुत से काम किये। उनके कामों को आज भी ईरान में याद किया जाता है। जब भी कोई व्यक्ति, काशान नगर की यात्रा पर जाता है तो वह बाग़े फीन देखने अवश्य जाता है जहां पर वह उस एतिहासिक हमाम या स्नानगृह को देखता है जिस स्थान पर इस महान व्यक्ति की हत्या की गई। इस प्रकार यह हमाम ईरान के एक महान व्यक्ति की यादें अपने भीतर लिए हुए है।