Dec ०१, २०२० १८:०६ Asia/Kolkata
  • पामेला कारा ने अनाथ बच्चे को गोद लिया और इसी बच्चे ने उनकी ज़िंदगी बदल दी

कुछ लोगों का यह मानना है कि अगर कोई महिला किसी मुसलमान पुरूष से शादी करती है तो फिर वह भी मुसलमान बन जाती है हांलाकि एसा नहीं है। 

लोगों का यह मानना है कि मुसलमान पुरूष से शादी करने के बाद महिला बिना किसी सोच-विचार के इस्लाम स्वीकार कर लेती है।  यह विचार सही नहीं है।  हमे एसी बहुत सी मिसालें मिल सकती हैं जहां पर एक महिला ने किसी मुसलमान पुरुष से शादी की और शादी करने के बाद वह मुसलमान नहीं हुई किंतु उसके जीवन में कोई एसी घटना घटी जिसने उसको मुसलमान बनने के लिए प्रेरत किया।  एसी ही एक घटना, अमरीका की रहने वाली  श्रीमती  Pamela Kara  पामेला कारा के साथ घटी। 

पामेला कारा

 

एक मुसलमान व्यक्ति के साथ विवाह करने के 16 वर्ष गुज़र जाने के बावजूद पामेला ने इस्लाम स्वीकार नहीं किया और न ही उनके भीतर इस्लाम को स्वीकार करने के बारे में कोई आकर्षण पाया जाता था किंतु उनके जीवन में एक एसी घटना घटी जिसके कारण पामेला कारा ने स्वेच्छा से इस्लाम को गले लगा लिया।

Pamela Kara पामेला कारा का जन्म अमरीका के ओहायो राज्य में एक प्रोटेस्टेंट परिवार में हुआ था।  उनके भीतर धर्म के प्रति कोई विशेष लगाव नहीं था।  पामेला ने जवानी में एक मुसलमान से शादी की।  शादी के बाद दोनो ही अपने दृष्टिकोण के हिसाब से जीवन गुज़ारते रहे।  न तो पामेला ने इस्लाम स्वीकार किया और न ही उनके पति ने ईसाई धर्म अपनाया।  दोनों ही अपने-अपने हिसाब से ज़िंदगी गुज़ार रहे थे।  इस बारे में पामेला कहती हैं कि मेरे विवाह को 16 वर्षों का समय गुज़र चुका था।  मैं अब भी ईसाई थी और मेरे पति मुसलमान थे।  वे दोनो ही एक-दूसरे से उनकी धार्मिक आस्था के बारे में बात नहीं करते थे।  इस प्रकार से 16 साल गुज़र चुके थे।  धार्मिक दृष्टि से तो दोनों के बीच कोई मतभेद नहीं था किंतु उन दोनों के लिए एक समस्या लंबे समय से थी।  यह समस्या थी उनके पास संतान का न होना।  उनके यहां कोई संतान नहीं थी जिसके कारण उनका जीवन बहुत नीरस होता जा रहा था।  वे दोनो ही अपने जीवन की इस उदासी को दूर करना चाहते थे।  उन दोनो ने बच्चा गोद लेने का फैसला किया। 

अमरीका में बच्चे को गोद लेना बहुत मंहगा था इसलिए उन्होंने किसी दूसरे देश जाकर बच्चा गोद लेने की योजना बनाई।  उन्होंने सोचा कि किसी अनाथ बच्चे को गोद ले लिया जाए।  उनका यह सोचना था कि किसी अनाथ बच्चे को गोद लेने से जहां उनके घर में चहल पहल हो जाएगी वहीं पर एक अनाथ को सहारा मिलेगा और उसका जीवन अच्छे ढंग से गुज़रेगा।  पामेला के पति ने भी इसका समर्थन किया।  एक मुसलमान होने के नाते उनको अनाथ के महत्व का ज्ञान था और वे जानते थे कि इस्लाम में अनाथ की सहायता करने पर कितना बल दिया गया है। पवित्र क़ुरआन के सूरे बक़रा की आयत संख्या 220 में ईश्वर कहता है कि इसी प्रकार वे तुमसे अनाथों के बारे में पूछते हैं।  कह दो कि जिसमें उनका हित हो वही बेहतर है और यदि तुम उन्हें अपने साथ मिला लो तो वे तुम्हारे भाई ही हैं और ईश्वर बिगाड़ चाहने वाले को भला चाहने वाले से अलग पहचानता है, और यदि ईश्वर चाहता तो तुम्हें कठिनाई में डाल देता निःसन्देह वो प्रभुत्वशाली और तत्वदर्शी है। 

इ्स्लाम ने अनाथों से प्रेमपूर्ण बर्ताव पर ज़ोर दिया है

 

अनाथ या यतीम बच्चे के बारे में पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स) का कहना है कि जिस घर में अनाथ होगा उस घर में ईश्वरीय अनुकंपाओं का राज होगा।  पामेला को भी पता था कि ईसाई धर्म के अनुसार अनाथ के साथ भलाई करना बहुत अच्छी बात है।  इन्हीं बातों के दृष्टिगत पामेला कारा और उनके पति ने एक अनाथ बच्चे को गोद लिया। 

अब पामेला ने यह फैसला किया कि वह इस बच्चे का बहुत ही अच्छे ढंग से पालन-पोषण करेगी।  पामेला चाहती थीं कि अपने बच्चे को वह इस्लाम और ईसाई धर्म दोनों की शिक्षाएं सिखाएं।  इसी उद्देश्य से उसने अपने बच्चे का एडिमशन जहां पर मिशनरी स्कूल में कराया वहीं पर उसे इस्लामी शिक्षाएं सिखाने के लिए एक इस्लामी केन्द्र भेजना शुरू किया।  इस बारे में वे कहती है कि मैं अपने बच्चे को स्वयं ही इस्लामी सेंटर पहुंचाने जाती थी। 

एक बार बच्चे के टीचर ने बताया कि हमने इसे क़ुरआन पढ़ाना शुरू किया है इसलिए आपको अपने घर में एक क़ुरआन रखना पड़ेगा ताकि आपका बच्चा घर जाकर अपने पाठ को दोहराए।  मैंने कहा कि मेरे पास तो क़ुरआन नहीं है तो उन्होंने अंग्रेज़ी अनुवाद का एक क़ुरआन मेरे हवाले किया।  जब मैं घर पहुंची तो मैंने सोचा देखूं कि इमसें क्या लिखा है।  जब मैने उसे खोला  तो सूरए फ़ातेहा या सूरए हम्द मेरे सामने था। मैंने पढ़ना शुरू कर दिया। बस इतना ही मेरे लिए काफ़ी था। मैं क़ुरआन को पढ़ती चली गई। मुझे महसूस हुआ कि मैं जीवन में जीस चीज़ की तलाश में थी वह यही है। 

 

सूरए हम्द क़ुरआन का पहला सूरा है जिसकी सात आयते हैं। इसे क़ुरआन की मां कहा जाता है। इस सूरे का महत्व समझने के लिए यह जान लेना काफ़ी है कि हर नमाज़ में कम से कम इसे दो बार पढ़ा जाता है। पैग़म्बरे इस्लाम इस सूरे के महत्व के बारे में कहते हैं कि इस सूरे को पढ़ने का सवाब दो तिहाई क़ुरआन की तिलावत के सवाब के बराबर है। 

 

कारा का कहना है कि इस सूरे की तिलावत मेरे लिए इतनी रोचक थी कि मैं क़ुरआन की ओर खिंचती चली गई। मेरा अध्ययन बढ़ता गया और फिर मैंने कुछ समय बाद इस्लाम स्वीकार कर लिया। मुझे यह भी एहसास हुआ कि यतीम बच्चे की बरकत से मुझे सही रास्ता मिल गया। 

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