May ०१, २०१६ १४:२८ Asia/Kolkata

बहुमूल्य पत्थरों को जवाहरात भी कहा जाता है।

पत्थरों में कुछ ऐसे पत्थर है जो खवानों से निकलते हैं। जो पत्थर खवानों से निकलते हें उनके भीतर कुछ ऐसी विशेषताएं पाई जाती हैं जिनके कारण वे अन्य पत्थरों से भिन्न होते हैं। अधिकांश भू-वैज्ञानिकों का मानना है कि पिघले द्रव्य या लावे का भीतरी भाग धीरे-धीरे ठंडा होता है जो ठंडा होकर क्रिस्टल जैसा रूप धारण कर लेता है। बाद में यही जवाहरात के अस्तित्व में आने का कारण बनता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि लावे के भीतरी भाग के धीरे-धीरे ठंडा होने की प्रक्रिया, कुछ सप्ताहों या महीनों का समय लेती है। उदाहरण स्वरूप हीरा सामान्यतः धरती की गहराई में उस स्थान पर क्रिस्टल का रूप धारण करता है जहां पर बहुत अधिक दबाव और गर्मी होती है।

    

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इतिहासकारों का कहना है कि जब से मनुष्य ने इस धरती पर क़दम रखा है उस समय से ही ज़ेवरों का प्रयोग भी होता आ रहा है। इसकी समय अवधि लगभग सात हज़ार वर्ष बताई जाती है। प्राचीनकाल में जवाहरात, मनुष्य के धनवान होने को दर्शाते थे। उस काल के राजा और शासक, रंग-बिरंगे मूल्यवान पत्थरों का प्रयोग किया करते थे। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि प्राचीन काल में बहुत सी महिलाएं मोतियों और पत्थरों का प्रयोग उनकी जादुई विशेषताओं के कारण करती थीं। लोगों का यह मानना था कि जो भी इस प्रकार के पत्थरों को अपने पास रखेगा वह बहुत सी बीमारियों और आपदाओं से सुरक्षित रहेगा। वे यह भी मानते थे कि इस प्रकार के लोगों का फ़रिश्ते समर्थन करते हैं जिसके कारण वे सफलता पूर्वक जीवन व्यतीत करते हैं। 

19वीं शताब्दी के आरंभ तक बहुत से लोगों का यही मानना था कि प्राचीन पत्थर, पुरानी बीमारियों को दूर करने और समस्याओं को समाप्त करने में सक्षम होते हैं। यही कारण है कि प्रचीनकाल में भी और वर्तमान समय में भी इस आस्था के मानने वाले पाए जाते हैं कि पत्थरों में चमत्कारिक शक्ति पाई जाती है जिनसे जीवन को सफलतापूर्ण ढंग से व्यतीत किया जा सकता है।

वर्तमान समय में जवाहरात को महत्वपूर्ण पूंजी के रूप में देखा जाता है। विश्व में बहुत से लोग जवाहरात को दीर्घकालीन पूंजी निवेश के रूप में देखते हैं। वास्तविकता यह है कि जवाहरात, भार के हिसाब से तो कम होते हैं किंतु क़ीमत के हिसाब से बहुत अधिक। इसीलिए इन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाना भी सरल होता है साथ ही इनका अवमूल्यन भी अन्य चीज़ों की तरह तेज़ी से नहीं होता।

 

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एक सर्वेक्षण के हिसाब से विश्व में जितने भी मूल्यवान पत्थर पाए जाते हैं उनमें से 45 प्रतिशत केवल ईरान में हैं। इतिहास भी इस बात की पुष्टि करता है कि ईरान में मूल्यवान पत्थर पाए जाते हैं। ईरान में जो पत्थर पाए जाते हैं उनको दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। एक वे होते हैं जिनमें धातु पाई जाती है जबकि दूसरे वे होते हैं जो खवानों से निकलते हैं। खवानों से निकलने वाले कई पत्थर बहूमूल्य होते हैं जबकि कुछ अति मूल्यवान तो नहीं होते किंतु उन्हें साज-सज्जा के लिए प्रयोग किया जाता है। जब इन पत्थरों को तराश दिया जाता है तो उनका मूल्य बहुत बढ जाता है।

प्राचीन ईरान में जवाहरात का प्रयोग, जहां आभूषणों के रूप में होता था वहीं पर इसे सामाजिक पहचान का चिन्ह भी माना जाता था, साथ ही इससे मनुष्य के उच्च कुल का भी पता चलता था। राजा-महाराजाओं के यहां जवाहरात के बर्तन भी हुआ करते थे और इनको कपड़ों पर भी सजाया जाता था। प्रचीन ईरान में जवाहरात का प्रयोग विभिन्न प्रकार से मिलता है।

दक्षिण पूर्वी ईरान में स्थित सीस्तान प्रांत में खुदाई के दौरान “बर्न सिटी” में पाए जाने वाले प्रमाण इस बात को सिद्ध करते हैं कि ईरान में 3000 वर्ष ईसापूर्व, पत्थरों को तराशने की कला पाई जाती थी। पुरातन वेत्ताओं ने इस अति प्राचीन नगर में होने वाले वाले दो बड़े अग्निकांडों के कारण इसका नाम “बर्न सिटी” रखा है।

 

 

इतिहास बताता है कि इस नगर के निवासी, पत्थरों को तराशने की कला में दक्षता रखते थे। यहां के निवासियों के कंकालों पर किये गए शोध से पता चलता है कि यहां के रहने वाले अपनी अत्यधिक व्यस्तता के कारण अल्पायु में ही कमर दर्द और रीढ़ की हडडी की बीमारियों में घिर जाते थे। यह लोग अधिकतर कला प्रेमी थे जो पत्थरों को तराश कर उन्हें नया रूप दिया करते थे। वहां की महिलाओं के गहने बताते हैं कि उस काल में वहां के लोग पत्थर पर उकेरने या उसे तराशने के काम में कितने निपुर्ण थे।

बर्न सिटी की खुदाई में मिलने वाले हार यह बताते हैं कि उस काल के सुनार भी इस कला में बहुत अधिक दक्ष थे। वे लोग सोने से जो हार बनाया करते थे उसे बड़ी सूक्ष्मता से बनाते थे। वे लोग कपड़ों पर भी सोने का काम करते थे जिसे अधिकांश रानियां ही प्रयोग किया करती थीं। बर्न सिटी की खुदाई में एक महिला की क़ब्र मिली है जिसके शरीर पर साड़ी जैसा वस्त्र मौजूद और उसपर ऊपर से नीचे तक सोने का काम किया है तथा उसपर मूल्यवान छोटे-छोटे पत्थर जड़े हुए हैं।

300 से 1300 वर्ष ईसापूर्व, ईरान के पठारी क्षेत्रों के लोग तांबे के बने गहनों और रंग-बिरंगे छल्लों से बने कड़ों का प्रयोग किया करते थे। हख़ामनेशी काल में बड़ी ही सूक्ष्मता से सोने पर पारंपरिक ढंग से काम किया जाता था। उस काल में हार, गरदनबंद, अंगूठी और इसी प्रकार की बहुत सी वस्तुओं को मूल्यवान पत्थरों को तराश कर बनाया जाता था। सासानियान काल में सोने और चांदी पर किये जाने वाले काम ने उल्लेखनीय प्रगति की।

 

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इस्लाम के उदय के बाद ईरानी कलाकारों ने इस्लामी नियमों से प्रेरणा लेते हुए अपनी कला का प्रदर्शन किया। इस्लाम के उदय के दो दशकों बाद के आरंभिक समय में इस्लामी कला, क्लासिकल थी किंतु उसके बाद इस्लामी कला में नवीनता आई जो पूरे विश्व में इस्लामी कला के रूप में फैली। इस कला का आधार प्रकृति में पाई जाने वाली प्राकृतिक चित्रकारिता थी। यह कला आभूषणों और पत्थरों पर उकेर कर बनाई जाने वाली कला में भी स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।

पुरातनवेत्ताओं के हाथों कुछ ऐसे आभूषण लगे हैं जिनपर आयतें लिखी की गई हैं। अलबत्ता पुरातनवेत्ताओं के हाथ लगने वाली वस्तुओं के अतिरिक्त चौदहवीं शताब्दी के बाद से कुछ इस प्रकार के हस्तलिखित विश्वसनीय प्रमाण मिले हैं जिनमें ईरान के प्राचीन जवाहरात के बारे में विस्तार से मिलता है।