इमाम हुसैैन की पाठशाला में-4
पैग़म्बर के परिजनों के चरित्र का हर आयाम, मूल्यवान मोतियों से भरे उपदेश के समुद्र की तरह है।
उनके चरित्र का एक सुंदर आयाम, अपने परिजनों के साथ उनका व्यवहार है। अपनी पत्नी व संतान के साथ उनका रवैया, मनुष्य व समाज की अनेक समस्याओं के हल का मार्ग दिखा सकता है। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ईश्वर के निकट इतना उच्च स्थान रखने के बावजूद अपने परिजनों से प्रेम प्रकट करने में नहीं हिचकते थे। उनके एक मशहूर शेर का अनुवाद है। मैं उस घर से प्रेम करता हूं जिसमें रबाब और सकीना हों, मैं दोनों को चाहता हूं और इस मार्ग में अपना सारा धन दान करने को तैयार हूं। मैं जीवन भर लोगों की धिक्कार स्वीकार नहीं करूंगा यहां तक कि मैं अपने चेहरे पर मिट्टी की नक़ाब ओढ़ लूं। रबाब, इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की पत्नी और सकीना उनकी बेटी का नाम था। इमाम हुसैन की शहाद के बाद उनकी पत्नी ने उनके बारे में जो शेर कहे थे उनका अनुवाद है। वह, जिसके माथे से प्रकाश फूटा करता था, अब कर्बला में दफ़्न हो गया। आप मेरे लिए एक ठोस पर्वत की तरह थे जिसमें मैं शरण लेती थी और आप दया व धर्मावलम्बिता के साथ हमसे पेश आते थे। आपके बाद कौन अनाथों का सहारा होगा और कौन मदद मांगने वालों का उत्तर देगा।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम अपनी पत्नी की रुचियों व पसंद का बड़ा ख़याल रखते थे जिस पर कभी कभी कुछ लोगों को आपत्ति भी होती थी लेकिन ने अपनी पत्नी की वैध व स्वाभाविक पसंद का सम्मान करते थे और इस प्रकार अपने अनुयाइयों को जीवन का एक अहम पाठ सिखाते थे। इतिहास में है कि एक बार कुछ लोग इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से मिलने पहुंचे। उनके घर की वस्तुएं उन लोगों को सुंदर दिखाई दीं। उन्होंने इमाम से कहाः हे पैग़म्बर के पुत्र! आपके घर में हमें ऐसा सामान और ऐसी वस्तुएं दिखाई दे रही हैं जो हमें अनुचित लगती हैं। इमाम हुसैन ने कहा। हमारी महिलाएं अपने मेहर की रक़म से अपनी पसंद और इच्छा के अनुसार चीज़ें ख़रीदती हैं, यहां पर तुमने जितनी भी चीज़ें देखी हैं वह मेरी नहीं हैं। इस तरह इमाम हुसैन ने अपने अनुयाइयों को यह पाठ दिया कि पत्नी की वैध इच्छाओं पर ध्यान देना, परिवार की सुदृढ़ता का कारण है।

इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम आशूरा के दिन भी युद्ध के समय अपने परिजनों को नहीं भूले और हर थोड़े समय बाद वे ख़ैमों की ओर वापस आते और महिलाओं व बच्चियों को धैर्य व संयम से काम लेने का उपदेश देते। जब वे आशूरा के दिन सब को विदा करके रणक्षेत्र की ओर जा रहे थे तो उनकी छोटी बेटी सकीना बहुत रो रही थीं। इमाम हुसैन ने उन्हें सीने से लगाया, प्यार किया और उनके आंसू पोछे। इस अवसर पर उन्होंने कुछ शेर कहे जिनका अनुवाद कुछ इस तरह है। हे मेरी प्यारी सकीना! मेरी शहादत के बाद तुम्हें बहुत अधिक रोना पड़ेगा, अपने आंसुओं से मेरा दिल न दुखाओ, जब मैं मर जाऊंगा तो तुम मेरे शरीर के पास मौजूद होने वाली मरी सबसे निकटवर्ती होगी और आंसू बहाओगी, हे दुनिया की सबसे अच्छी महिलाओं में से एक।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के पास सिर्फ़ दो ही रास्ते थे। एक यह कि बुराई की जड़ यज़ीद से मुसलमानों के ख़लीफ़ा के रूप में बैअत कर लेते अर्थात उसके आज्ञापालन का वचन देते और दूसरे यह कि क़त्ल हो जाते। इसी लिए वे रात के समय मदीना नगर से बाहर निकल पड़े और मक्के में ईश्वर के सुरक्षित घर काबे की ओर चल पड़े। लेकिन वहां भी पैग़म्बर के नाती सुरक्षित न रहे और हर क्षण इस बात की आशंका थी कि उनकी हत्या करके ईश्वर के घर का अनादर कर दिया जाए। इसी लिए वे मक्के से कूफ़े की ओर रवाना हो गए। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम इस पूरी यात्रा में अपने परिवार के साथ थे। वे जानते थे कि अगर वे अपने परिवार को लिए बिना मदीने से निकल गए तो यज़ीद उनके परिवार को यातनाएं देगा और उन लोगों को इमाम पर दबाव डालने के लिए प्रयोग करेगा। यही कारण था कि उन्होंने एक क्षण के लिए भी अपने परिवार को स्वयं से अलग नहीं किया।

शाम या वर्तमान सीरिया के लोग, मुआविया जैसों के माध्यम से इस्लाम से परिचित हुए थे। मुआविया ने लगभग 42 साल शाम पर शासन किया और इस दौरान वहां के लोगों का इस प्रकार प्रशिक्षण किया था कि उनमें किसी भी प्रकार का धार्मिक ज्ञान व बुद्धिमत्ता न रहे और वे उसकी हर इच्छा के सामने सिर झुका दें। शाम के लोग, सच्चे इस्लाम से कोसों दूर थे। मुआविया के दरबार की अय्याशी, जनकोष की लूटपाट, बड़े-बड़े महलों का निर्माण, विरोधियों को जेल में डालना और उनकी हत्या करना शाम के लोगों के लिए इतना साधारण बना दिया गया था कि वे सोचते थे कि पैग़म्बर के काल में भी इस्लामी शासन इसी प्रकार काम करता था। इसी लिए उमवी शासन ने बड़ी सरलता से इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के आंदोलन और उनकी मज़लूमाना शहादत को अपने हित में मोड़ने में सफलता प्राप्त की जैसा कि कुछ लोगों ने यह झूठ उड़ा दिया कि इमाम हुसैन बीमारी के कारण इस संसार से चले गए।
इन परिस्थितियों में जब एक व्यक्ति ने शाम की राजधानी दमिश्क़ में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के घराने के बंदी बनाए गए लोगों के कारवां को देखा तो उनके पुत्र इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम से कहा कि धन्य है वह ईश्वर जिसने तुम लोगों की हत्या की, तुम्हें तबाह कर दिया और लोगों को तुम्हारी बुराई से सुरक्षित कर दिया। इमाम ज़ैनुल आबेदीन कुछ देर चुप रहे, फिर उन्होंने क़ुरआने मजीद के सूरए अहज़ाब की 33वीं आयत की तिलावत की कि निश्चित रूप से ईश्वर तुम (अर्थात पैग़म्बर के) परिजनों को हर प्रकार की गंदगी और बुराई से उस प्रकार दूर रखना चाहता है जैसा दूर रखने का हक़ है। फिर उन्होंने कहा कि यह आयत हमारे बारे में नाज़िल हुई है। तब जा कर उस व्यक्ति को पता चला कि उसने इन बंदियों के बारे में जो कुछ सुना है वह सही नहीं है, वे ईश्वर के शत्रु नहीं बल्कि पैग़म्बर की संतान हैं, अतः उसे अपने कहे पर पछतावा हुआ और उसने तुरंत तौबा की। इस प्रकार हम देखते हैं कि इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम, इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की बहन हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा और इमाम हुसैन के अन्य परिजनों ने अपने भाषणों से शाम तक में कि जो बनी उमय्या के शासन का केंद्र था, बरसों से चले आ रहे कुप्रचारों को ग़लत सिद्ध कर दिया।
वह पैग़म्बर के घराने का एक साहसी किशोर था और उसका हृदय वफ़ादारी और शौर्य से ओत-प्रोत था। उम्र तेरह साल और सोलह साल तक बताई गई है। जब इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने आशूरा से पहले वाली रात अपने साथियों को उनकी शहादत की सूचना दी तो इस किशोर अर्थात इमाम हसन अलैहिस्सलाम के पुत्र क़ासिम ने उनसे पूछाः हे चाचा! मुझे भी शहादत मिलेगी न? इमाम ने उन्हें सीने से लगा लिया और कहा। बेटे मुझे यह तो बताओ की तुम्हारी दृष्टि में मौत कैसी है? क़ासिम ने ऐतिहासिक उत्तर दिया कि शहद से भी अधिक मीठी। यह सुन कर इमाम हुसैन बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने कहाः क़ासिम तुम बड़ी परीक्षा के बाद शहीद होगे और मेरा छः महीने का बेटा अली असग़र भी शहीद होगा।
आशूरा के दिन हज़रत क़ासिम ने अपने आपको रणक्षेत्र में जाने और युद्ध कौशल दिखाने के लिए तैयार किया और कमर में तलवार बांधी लेकिन चूंकि उनकी उम्र और क़द कम था इस लिए तलवार का निचला भाग ज़मीन से लग रहा था। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने न्याम के तस्मे में कई गांठें लगाईं ताकि तलवार ज़मीन पर न लगे। इसके बाद उन्होंने अपने भतीजे को गले से लगाया और दोनों ख़ूब रोए। इसके बाद उन्होंने क़ासिम को रणक्षेत्र में जाने की अनुमति दी। वे उन्हें युद्ध के मैदान में जाने की अनुमति नहीं दे रहे थे लेकिन क़ासिम ने रो रो कर इतना आग्रह किया कि इमाम हुसैन को उन्हें अनुमति देनी ही पड़ी।
हज़रत क़ासिम मैदान में आए और उस समय की प्रथा के अनुसार उन्होंने रजज़ अर्थात अपने परिचय में कहे जाने वाले शेर पढ़े और कहा कि हे ईश्वर के शत्रुओ! अग तुम मुझे नहीं पहचानते तो जान लो कि मैं अली इब्ने अबी तालिब के बेटे हसन क पुत्र हूं और तुमने इस समय जिस मर्द को घेर रखा है वे मेरे चाचा हुसैन हैं। अपना परिचय कराने के बाद उन्होंने इस प्रकार से भरपूर युद्ध किया कि लोगों को उनके पिता इमाम हसन अलैहिस्सलाम की याद आ गई। शत्रु सेना का एक सिपाही हमीद बिन मुस्लिम कहता है। इमाम हुसैन के ख़ैमों से एक किशोर, रणक्षेत्र में आया जिसका चेहरा चौदहवीं के चांद की तरह दमक रहा था। उसके हाथ में तलवार थी और उसने लम्बा कुर्ता पहन रखा था। उमरे साद अज़्दी ने कहा कि ईश्वर की सौगंध! में इस पर कड़ा प्रहार करूंगा। मैंने कहा कि आश्चर्य है, तुम्हें इस किशोर से क्या लेना-देना? ईश्वर की सौगंध! अगर वह मुझे मारेगा तब भी मैं उस पर हाथ नहीं उठाऊंगा। जिन लोगों ने उसे घेर रखा है, उन्हीं को उसका काम तमाम करने दो। उमरे साद ने कहा कि मैं अवश्य ही उस पर हमला करूंगा और उसे दूसरे संसार में भेज दूंगा। वह किशोर लड़ने में व्यस्त था और उमरे साद उसकी घात में था। जैसे ही क़ासिम उसके निकट पहुंचे उसने उनके सिर पर तलवार का ऐसा वार किया कि उनका सिर फट गया। वे चेहरे के बल ज़मीन पर गिर पड़े और आवाज़ दी। हे चाचा! मेरी सहायता कीजिए।
क़ासिम की आवाज़ जैसे ही इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के कानों तक पहुंची, वे बड़ी तेज़ी से घोड़े पर सवार हो कर रणक्षेत्र की ओर गए और क़ासिम के सिरहाने पहुंचे। उन्होंने उनका सिर अपनी गोद में रखा और कहाः ईश्वर की सौगंध! तुम्हारे चाचा के लिए यह बात बहुत दुखदायी है कि तुम उसे पुकारे और वह उत्तर न दे सके और अगर उत्तर दे भी दे तो उसका तुम्हें कोई लाभ न हो। क़ासिम की शहादत के बाद इमाम हुसैन उनके निर्जीव शव को सीने से लगा कर ख़ैमों की ओर ले गए। क़ासिम का सीना उनके सीने से सटा हुआ था और उनके पैर ज़मीन पर घिसट रहे थे। इमाम हुसैन ने क़ासिम के शव को अपने पुत्र अली अकबर के शव के साथ रखा और कहाः हे मेरे परिजनो! संयम से काम लो कि ईश्वर की सौगंध! आजके बाद तुम्हें कोई दुख नहीं होगा।