अरबईने हुसैनी
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जैसे-जैसे इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का चेहलुम निकट आता है, उनके चाहने वालों में एक विशेष प्रकार का उत्साह उत्पन्न हो जाता है।
(last modified 2023-04-09T06:25:50+00:00 )
Nov १५, २०१६ १६:४८ Asia/Kolkata

जैसे-जैसे इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का चेहलुम निकट आता है, उनके चाहने वालों में एक विशेष प्रकार का उत्साह उत्पन्न हो जाता है।

  पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों के कथनों में बताया गया है कि मोमिन की एक निशानी, अरबईन की ज़ियारत है।  इमाम हुसैन के चेहलुम के दिन करबला में उपस्थिति का अपना एक विशेष महत्व है।  इस दिन करबला में जो चीज़ दिखाई देती है उसका बयान करना संभव ही नहीं।

जब इमाम का चेहुलम निकट आता है तो उनके मानने वालों में एक एसा उत्साह उत्पन्न होता है जिसको किसी भी स्थिति में शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता।

हालांकि हदीसों की किताबों में साल के कुछ विशेष दिनों के लिए विशेष निर्देष दिये गए हैं किंतु इमाम हुसैन के चेहलुम का विषय इन सबसे बिल्कुल अलग है।  आज के दिन विश्व के कोने-कोने से इमाम हुसैन के श्रद्धालु करबला पहुंचते हैं।  वे लोग मीलों दूर का सफर तै करके पूरी निष्ठा और हर प्रकार के ख़तरों को अनदेखा करते हुए पवित्र नगर करबला आते हैं।  इनमे बहुत से इमाम के चाहने वाले एसे भी हैं जो दसियों नहीं बल्कि सैकड़ों मील का सफर तै करके करबला पहुंचते हैं।  यहां पर सवाल यह पैदा होता है कि हर तरह से ख़तरे मोल लेकर लोग विश्व के विभिन्न हिस्सों से चेहलुम या अरबईन के दिन करबला क्यों पहुंचते हैं?

वास्तविकता यह है कि बड़ी संख्या में मुसलमानों, विशेषकर शिया मुसलमानों का यह मानना है कि यदि इमाम हुसैन का बलिदान न होता तो इस समय सही या शुद्ध इस्लाम मिट गया होता।  इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने करबला में अपनी और अपने परिजनों की क़ुर्बानी देकर वास्तविक इस्लाम की रक्षा की और इसे बचा लिया।  इस बारे में इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम का कहना है कि इमाम हुसैन ने इस्लाम को अज्ञानता और पथभ्रष्टता से बचाने के लिए अपना सबकुछ न्योछावर कर दिया और मुट्ठी भर पथभ्रष्ट लोगों ने इमाम का विरोध करते हुए उन्हें शहीद कर दिया।  इमाम हुसैन ने मानवता की रक्षा करते हुए ईश्वर की राह में तन, मन,धन सबकुछ लुटा दिया।

यदि इतिहास का अध्ययन किया जाए तो इतिहास के पन्नों में अत्याचार की बहुत सी घटनाएं मिल जाएंगी।  इन घटनाओं को पढ़ने से पता चलता है कि विगत में बहुत से लोगों को अत्यंत भयानक और निर्मम ढंग से मारा गया और बहुत सी घटनाओं में बड़ी संख्या में लोगों को मार दिया गया किंतु वे घटनाएं अब भुला दी गईं और केवल इतिहास तक सीमित होकर रह गईं।  इसके मुक़ाबले में करबला की घटना आज भी जीवित है और इसने लोगों के भीतर विशेष प्रकार का उत्साह भर दिया है।  करबला की घटना के भुलाए न जाने का मुख्य कारण यह है कि इमाम हुसैन ने ईश्वर के धर्म को सुरक्षित करने के लिए पूरी निष्ठा के साथ अपना आन्दोलन आरंभ किया।  क्योंकि ईश्वर का धर्म कभी समाप्त नहीं होगा इसलिए इसकी सुरक्षा करने वाले को भी सदा याद किया जाएगा।  यही कारण है कि इमाम हुसैन का नाम सदा के लिए अमर हो गया।  इसको मिटाने वाले मिट जाएंगे किंतु यह कभी नहीं मिटेगा।

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करबला में इमाम हुसैन और उनके साथियों एवं परिजनों के शहीद हो जाने के बाद ओमवी शासक यह सोच रहे थे कि इस्लाम अब सदा के लिए समाप्त हो गया और अब उसकी कोई निशानी भी बाक़ी नहीं रहेगी।  अत्याचारी यज़ीद ने करबला की घटना के बाद कहा था कि सत्ता हथियाने के लिए धर्म तो बनी हाशिम का एक हथकंडा था।  धर्म नामकी कोई चीज़ है ही नहीं जो कुछ है वह ढकोसला है।  यज़ीद ने ये बातें उस समय बहीं जब उसकी सत्ता विश्व के बहुत बड़े भूभाग पर थी जिसके कारण वह बहुत घमण्डी हो गया था।  एक हिसाब से कहा जा सकता है कि वह अपने समय की महाशक्ति था जिसके कारण वह दिन-प्रतिदिन उदंडी होता जा रहा था।  हांलाकि उसे मुसलमानों के ख़लीफ़ा की उपाधि प्राप्त थी किंतु वह व्यवहारिक रूप से इस्लाम विरोधी अधर्मी व्यक्ति था।  उसके भीतर नैतिक भ्रष्टता कूट-कूटकर भरी हुई थी।

शाम अर्थात वर्तमान सीरिया में यज़ीद की हुकूमत थी जहां उसका महल था।  जब इमाम हुसैन और उनके साथी करबला में शहीद कर दिये गए तो यज़ीद ने उनके परिजनों को शाम बुलवाया।  जब शाम में यज़ीद के दरबार में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के परिजन पहुंचे तो यज़ीद ने बड़े ही घमण्ड में इमाम के बारे में कुछ अपशब्द कहे।  इसके जवाब में इमाम हुसैन की बहन हज़रत ज़ैनब ने अपने भाषण में कहा कि ईश्वर की सौगंद तू चाहे कोई भी चाल चले लेकिन तू कभी भी हमारी याद को दिलों से निकाल नहीं सकता।  वास्तविकता भी यही है।  कूफ़े और शाम में हज़रत ज़ैनब और इमाम सज्जाद के भाषणों से लोगों को धीरे-धीरे वास्तविकता का पता चलने लगा था किंतु लोग उमवी शासकों के अत्याचारों के डर से अपने मन की बात कहने से भयभीत थे।

20 सफ़र अर्थात चेहलुम के दिन इमाम के परिजनों का क़ाफेला, शाम से मदीने की वापसी में करबला पहुंचा।  चेहलुम के दिन जाबिर बिन अब्दुल्लाह, अतिया ऊफ़ी और बनी हाशिम के कुछ लोग करबला में उपस्थित थे।  इस प्रकार इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का पहला चेहलुम करबला में इमाम की क़ब्र पर मनाया गया।

पवित्र क़ुरआन में मोमिनों से कहा गया है कि वे “अय्यामुल्लाह” को याद रखें ताकि ईश्वर के यह महान दिन भुलाए न जा सकें।  अरबईन या इमाम हुसैन का चेहलुम भी अय्यामुल्लाह है।  चेहलुम के दिन इमाम के चाहने वाले उनके प्रति अपनी श्रद्धा और निष्ठा का भरपूर प्रदर्शन करते हैं।  इमाम हुसैन एसे महान सुधारक हैं जिन्होंने सुधार के लिए अपने पूरे परिवार की क़ुर्बानी दी।  वे मानवता के लिए महान आदर्श हैं।  ईश्वर ने उनकी इस क़ुर्बानी के बदले मोमिनों के दिलों में उनका प्रेम भर दिया है।  आज उनकी याद में करोड़ों लोग इराक़ के पवित्र नगर करबला में एकत्रित होकर उनकी शहादत की याद मना रहे हैं।  इराक़ियों में यह परंपरा है कि वे साल भर की अपनी कमाई का बहुत बड़ा भाग, अरबईन या चेहलुम के दिन कर्बला जाने वाले इमाम हुसैन के चाहने वालों के लिए ख़र्च करते हैं।  जो लोग अरबईन के दिन करबला गए हैं उनका कहना है कि इराक़ी बड़ी ही सहृदयता से श्रद्धालुओं की आवभगत करते हैं।  वे अपने पूरे अस्तित्व से करबला के यात्रियों की सेवा करते हैं।  हर व्यक्ति अपनी क्षमता के अनुसार लोगों की सेवा में व्यस्त रहता है और इसे अपने लिए गौरव की बात समझता है।

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यहां यह बताना आवश्यक है कि इमाम हुसैन का शोक केवल शिया मुसलमान ही नहीं मनाते बल्कि सुन्नी मुसलमान, इसाई और इराक़ के अन्य संप्रदाय भी अरबईन के दिन इमाम हुसैन के शोक में भाग लेते हैं।

अंत में यह कहा जा सकता है कि इमाम हुसैन की शहादत सन 61 हिजरी क़मरी में हुई।  इस हृदय विदारक घटना को घटे शताब्दियों का समय बीत रहा है किंतु समय बीतने के साथ ही साथ प्रतिवर्ष यह तेज़ी से विस्तृत होती जा रही है।  इसके विश्वव्यापी होने का उदाहरण करबला में मनाया जाने वाला चेहलुम है जिसमें विश्व के कोने-कोने से लाखों की संख्या में लोग पहुंचते हैं।

अरबईन या चेहलुम के संबन्ध में इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता कहते हैं कि इमाम हुसैन से अपनी निष्ठा दर्शाने के उद्देश्य से उनके रौज़े के दर्शन का क्रम शताब्दियों से जारी है जिसका शिखर या चरम बिंदु इमाम का चेहलुम है।  इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का चुंबकीय आकर्षण लोगों को अपनी ओर आकृष्ट करता है।  इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के पहले चेहलुम पर जाबिर बिन अब्दुल्लाह अंसारी और अतिया की पहली ज़ियारत एसी बरकतवाली रही जिसके बाद इसका एक एसा क्रम आरंभ हुआ जो हर साल बढ़ता ही जा रहा है जिससे आशूरा और अरबईन की याद पूरी दुनिया पर छा रही है।

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