एकता सप्ताह-1
(last modified Wed, 14 Dec 2016 08:55:05 GMT )
Dec १४, २०१६ १४:२५ Asia/Kolkata

इस्लाम का सूरज उस समय जगमगाया जब मानवता अज्ञानता के चरम पर पहुंच चुकी थी।

इस सूर्य ने अज्ञानता के चंगुल में फंसे इंसान के मन में उम्मीद की किरण पैदा की। एकेश्वरवाद की ख़ुशबू पूरी दुनिया में फैल गयी और बिखरे हुए क़बीले एकजुट हुए। यह सब एकेश्वरवाद व एकता का संदेश देने वाले पैग़म्बर हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम के वजूद की बरकत से था। जिनका वजूद मानव समाज के लिए भाईचारे का संदेश लाया। आज इस्लाम के उदय को 1400 साल से ज़्यादा का समय हो रहा है, आज भी एकेश्वरवाद का संदेश मोमिनों के मन को एक दूसरे के निकट ला रहा है। हालांकि विभिन्न इस्लामी मतों में ख़ास तौर पर शिया-सुन्नी मत के बीच पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम के जन्म दिवस के बारे में मतभेद हैं लेकिन उनके जन्म के महीने और साल के बारे में लगभग एकमत हैं। सुन्नी मत का मानना है कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम की पैदाइश 12 रबीउल अव्वल 570 ईसवी को और शिया भी उसी साल 17 रबीउल अव्वल को मानते हैं।

पवित्र क़ुरआन की सबसे अहम शिक्षाओं में एकता की शिक्षा है। पवित्र क़ुरआन के आले इमरान सूरे की आयत नंबर 103 में ईश्वर कह रहा है,“ ईश्वर की नेमतों को याद करो कि तुम लोग एक दूसरे के दुश्मन थे, उसने तुम्हारे मन में प्रेम पैदा किया तो तुम उसकी नेमत से भाई-भाई बन गए।” ईश्वरीय परंपरा यह है कि एक ओर लोगों को कल्याण, ज्ञान और कर्म की ओर बुलाता है तो दूसरी ओर अज्ञानता, फूट और दुश्मनी से रोकता है। अरब के लोगों में जातीय भेदभाव के कारण आपस में दुश्मनी बहुत पुरानी थी लेकिन इस्लाम ने उन्हें समानता और भाईचारे का निमंत्रण दिया क्योंकि इस्लाम इंसान के वजूद का उद्देश्य ईश्वर से भेंट और इस सांसारिक जीवन को उस तक पहुंचने का साधान मानता है।

Image Caption

 

पवित्र क़ुरआन मुसलमानों से एकता पर बल देते हुए आले इमरान सूरे की आयत नंबर 64 में अनुशंसा करता है कि अन्य धर्मों के अनुयाइयों के साथ एकेश्वरवाद के आधार पर एकजुट हो जाएं। जैसा कि आले इमरान सूरे की आयत नंबर 64 में ईश्वर कह रहा है, “हे पैग़म्बर आप कह दें कि हे किताब वालो! आओ एक ऐसी बात पर एकमत हो जाएं जो हमारे और तुम्हारे बीच एक समान है यह कि अनन्य ईश्वर के सिवा किसी की उपासना न करें और किसी चीज़ को उसका साझी न ठहराएं।” इस तरह आंशिक मतभेद को मुसलमानों के बीच एकता के मार्ग में रुकावट नहीं बनना चाहिए। मुसलमान एक संस्कृति और एक प्रकार की विचारधारा रखते हैं। सारे मुसलमान एक ईश्वर की उपासना करते हैं और पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम की पैग़म्बरी पर आस्था रखते हैं। सारे मुसलमानों का एक ही ग्रंथ क़ुरआन है और उनका क़िबला काबा है। मुसलमान एक साथ एक तरीक़े से हज करते, नमाज़ पढ़ते और रोज़ा रखते हैं। एक तरह का पारिवारिक जीवन बिताते हैं, एक जैसा लेन-देन करते हैं, बच्चों का प्रशिक्षण करते हैं और एक ही तरह से अपने मुर्दों को दफ़्न करते हैं। सिर्फ़ आंशिक मामलों में मतभेद है जो बहुत बड़े नहीं हैं।      

मुसलमानों के बीच एकता के पीछे कोई राजनैतिक हित नहीं है। यह एकता दो राजनैतिक गुटों के बीच किसी संयुक्त हित की प्राप्ति के लिए सामयिक नहीं है। इस्लामी गणतंत्र ईरान के मद्देनज़र एकता टैक्टिक व आस्थायी नहीं है बल्कि इसकी एकता गहरी व स्थायी है जो ज़रूरी समन्वय व सहमति के ज़रिए क्षमताओं के निखरने की पृष्ठिभूमि मुहैया करती है ताकि समाज के लोग धर्म की सच्चाई को अपनी मर्ज़ी से स्वीकार करें। इससे भी अहम बात यह है कि एकता पवित्र क़ुरआन की अनुशंसा के अनुसार एक महत्वपूर्ण कर्तव्य है। जैसा कि आले इमरान सूरे की आयत नंबर 103 में ईश्वर कह रहा है, “सभी ईश्वर की रस्सी को थाम लो और बिखरे न रहो।”       

Image Caption

 

 

विभिन्न मतों के बीच इस्लामी एकता का अर्थ सभी धार्मिक आस्थाओं से हाथ उठा लेना नहीं है। किसी को इस्लामी एकता से यह आशा नहीं रखनी चाहिए कि इस्लामी मतों में से एक को चुना जाए और अन्य मतों को नज़रअंदाज़ किया जाए या सभी मतों के बीच समान बिन्दु को ले लिया जाए और मतभेद के सभी बिन्दुओं को छोड़ दिया जाए और इस तरह एक नया मत वजूद में आए। बल्कि शिया-सुन्नी एकता का उद्देश्य मतभेद के बिन्दुओं को नज़रअंदाज़ करना और संयुक्त बिन्दुओं का अनुसरण करना और इन्हीं समान बिन्दुओं को एक दूसरे के साथ, इस्लामी जगत से संबंधित मामलों और अंतर्राष्ट्रीय मंच पर सहयोग का आधार क़रार देना।  इस तरह से कि मुसलमान मतभेदों को नज़रअंदाज़ करते हुए इस्लामी जगत के मामलों में एक दिशा में आगे बढ़ें। मिस्र की अलअज़हर यूनिवर्सिटी के उप-कुलपति व इस्लामी मतों के बीच संवाद कमेटी के अध्यक्ष शैख़ आशूर इस्लामी संप्रदायों के बीच एकता के बारे में कहते हैं, “सभी मतों को एकजुट करने के पीछे हमारा उद्देश्य किसी एक मत को मानना और किसी दूसरे को नज़रअंदाज़ करना नहीं है कि यह धार्मिक मतों को एक दूसरे के निकट लाने के विचार को उसके मार्ग से हटाना है। यह समरसता वैज्ञानिक बहस पर आधारित हो ताकि विज्ञान के ज़रिए अंधविश्वास से निपटा जाए। हर मत के विद्वानों को चाहिए कि एक दूसरे से अपने विचारों का आदान-प्रदान करें ताकि एक शांत वातावरण में सीखें, पहचानें, बात करें और नतीजा निकालें।”           

शिया-सुन्नी के बीच एकता से दोनों पक्षों के लिए एक स्वस्थ्य व दोस्ताना माहौल में बहस व वैज्ञानिक दस्तावेज़ पेश करने के लिए उचित अवसर मुहैया होगा। इसलिए एकता का सच्चाई को बयान करने या उसे छिपाने से कोई टकराव नहीं है, क्योंकि अगर ऐसा हो तो न सिर्फ़ यह कि उचित नहीं है बल्कि ख़ुद फूट के कारणों में होगी।

इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सय्यद अली ख़ामेनई इस्लामी जगत में एकता की रक्षा पर बहुत बल देते हुए कहते हैं, “एकता के विषय को लेकर हम बहुत गंभीर हैं। मुसलमानों के बीच एकता का अर्थ यह नहीं है कि विभिन्न मत व मुसलमान अपनी विशेष आस्था व धार्मिक आदेश को छोड़ दें बल्कि मुसलमानों के बीच एकता से दो अभिप्राय हैं। एक यह कि विभिन्न इस्लामी मत इस्लाम के दुश्मनों के मुक़ाबले में सहयोग करें और समरसता दर्शाएं। दूसरे यह कि विभिन्न मुसलमान मत एक दूसरे के निकट होने की कोशिश करें और विभिन्न धार्मिक मतों के बीच सामंजस्य बिठाएं। बहुत से धार्मिक फ़त्वे हैं कि अगर उनके बारे में धार्मिक बहस हो तो बहुत मुमकिन है कि थोड़े से बदलाव से दो मतों के फ़त्वों में बहुत समानता पैदा हो जाए।” एक अन्य स्थान पर वरिष्ठ नेता कहते हैं, “हम यह नहीं कहते कि सुन्नी धर्मगुरु शिया हो जाएं या शिया धर्मगुरु अपनी आस्था छोड़ दें अलबत्ता अगर एक सुन्नी व्यक्ति या कोई भी व्यक्ति शोध करे और अपनी आस्था के अनुसार अमल करे, वह जो करेगा वह जाने उसका ईश्वर जाने। एकता सप्ताह के अवसर पर एकता के संदेश के रूप में हम यह कहना चाहते हैं कि मुसलमान एकजुट हो जाएं। एक दूसरे से दुश्मनी न करें। क़ुरआन, पैग़म्बरे इस्लाम के आचरण और इस्लामी शरिया को आधार बनाएं।”

Image Caption

 

अंत में यह कि इस्लाम के दुश्मन मुसलमानों के बीच एकता से बहुत डरते हैं और उसी मशहूर विचार “फूट डालो और शासन करो” के आधार पर सक्रिय हैं, मतों के बीच संयुक्त सिद्धांत को आधार बना कर इस्लाम का अनुसरण करें। मतभेद को सार्थक प्रतिस्पर्धा का रुख़ दे और उसे टकराव, एक दूसरे को अधर्मी ठहराने या आपस में दूरी का कारण न बनने दें, क्योंकि ये ख़ुद रूढ़ीवाद, पतन और विनाश का कारण बनते हैं।