एकता सप्ताह -2
पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम का शुभ जन्म दिवस इस्लामी जगत में एकता के बारे में सोचने के लिए बेहतरीन अवसर है।
वह पैग़म्बर जो पूरी दुनिया वालों के लिए कृपा हैं, जिनका प्रकाशमय वजूद 14 शताब्दियों के बाद भी मानवता के लिए मार्गदर्शक है। जिनकी कृपा व प्रेम जीवन में नया प्राण फूंकती है। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम से श्रद्धा पूरी दुनिया में डेढ़ अरब मुसलमानों की सबसे बड़ी संयुक्त संपदाओं में है। लगभग 35 साल पहले इस्लामी गणतंत्र ईरान में 12 से 17 रबीउल अव्वल के बीच एकता सप्ताह का नामकरण हुआ और इस तरह पैग़म्बरे इस्लाम का वजूद और उनकी परंपरा को इस्लामी मतों के बीच एकता के सबसे प्रभावी दस्तावेज़ के रूप में पहचनवाया गया। सुन्नी संप्रदाय 12 रबीउल अव्वल और शिया संप्रदाय 17 रबीउल अव्वल को पैग़म्बरे इस्लाम का शुभ जन्म दिवस मानते हैं। एकता सप्ताह के सुझाव का पूरी दुनिया के मुसलमानों और ख़ास तौर पर विभिन्न इस्लामी संप्रदायों के धर्मगुरुओं ने स्वागत किया।
आज किसी भी दौर की तुलना में इस्लाम के दुश्मन इस्लामी मतों के बीच मतभेद की आग को सबसे ज़्यादा हवा देने की कोशिश कर रहे हैं। शायद यह कहना ग़लत न होगा इस्लामी इतिहास में किसी दौर में इस्लामी जगत में इतना मतभेद नहीं रहा जितना मौजूदा दौर में है। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि इस मतभेद को पैदा करने में षड्यंत्रकारी जितना ज़िम्मेदार हैं उतना ही मुसलमानों के कुछ गुटों में व्याप्त अज्ञानता भी ज़िम्मेदार है। बड़े अफ़सोस के साथ कहना पड़ रहा है कि धर्म व इतिहास की सही जानकारी का अभाव विभिन्न मतों के कुछ अनुयाइयों के एक दूसरे के विरुद्ध कठोर व्यवहार के मुख्य कारण में है। यह ऐसी हालत में है कि धर्म के संबंध में लोगों का ज्ञान जितना ज़्यादा होगा, एकता व भाईचारे की ओर रुझान तेज़ होगा। क्योंकि विभिन्न मुसलमान संप्रदाय जिस तरह धर्म के माध्यामिक अहमियत के आदेशों के संबंध में मतभेद को जानते हैं उतना ही वह एक दूसरे के बीच समान बिन्दुओं से भी अवगत हैं। इस बीच सिर्फ़ वहाबियत के सरग़ना हैं जो इस तरह का विचार नहीं रखते। अलबत्ता वहाबियत इस्लामी मतों में शामिल नहीं है। यहां तक कि बहुत से सुन्नी संप्रदाय के धर्मगुरुओं का मानना है कि वहाबियत सच्चे इस्लाम से दूर एक गढ़ा हुआ मत है। वहाबी धर्मगुरु सिर्फ़ मतभेद को हवा देते रहे हैं और इस प्रकार उन्होंने इस्लामी जगत को फूट का शिकार बना दिया है। लेकिन बहुत से शिया और सुन्नी धर्मगुरुओं ने पवित्र क़ुरआन के आले इमरान सूरे की आयत नंबर 103 के संदेश के ज़रिए कि जिसमें ईश्वर कह रहा है कि उसकी रस्सी को मज़बूती से पकड़े रहो और एक दूसरे से अलग न हो, इस बात की कोशिश की है कि इस्लामी जगत की पीड़ा को एकता के ज़रिए ख़त्म करें।
इख़वानुल मुस्लेमीन के संस्थापक शहीद हसन अलबन्ना भी शिया-सुन्नी के बीच एकता के लिए कोशिश करने वालों में थे। उन्होंने और शिया तथा सुन्नी संप्रदाय के बड़े धर्मगुरुओं के एक समूह ने इस बात पर सहमति जतायी कि सभी मुसलमान चाहे शिया हों या सुन्नी संयुक्त सिद्धांत पर एकमत हों और आंशिक अहमियत वाले विषयों के संबंध में एक दूसरे के ख़िलाफ़ आपत्ति न करें। इन धर्मगुरुओं ने बल दिया कि मुसलमान वह है जो सृष्टि के रचयिता ईश्वर, अंतिम ईश्वरीय दूत पैग़म्बरे इस्लाम सलल्ल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम, आसमानी ग्रंथ पवित्र क़ुरआन, क़िबले के रूप में काबा, प्रलय के दिन पर और जो कुछ धर्म में अंजाम देना अनिवार्य है, उन पर आस्था रखता हो।
तत्कालीन सुन्नी धर्मगुरु शैख़ मोहम्मद ग़ज़ाली भी इस बात की इशारा करते हुए कि सुन्नी-शिया के बीच मतभेद बुनियादी नहीं हैं, कहते हैं, “आस्था भी राजनीति व हुकूमत की भेंट चढ़ गयी क्योंकि वर्चस्व जमाने और सत्ता पर एकाधिकार की इच्छा के कारण वह चीज़ें दाख़िल हो गयीं जो आस्था का हिस्सा नहीं हैं और इसके बाद मुसलमान शिया-सुन्नी दो बड़े गुट में बंट गए, हालांकि ये दोनों ही संप्रदाय अनन्य ईश्वर और पैग़म्बरे इस्लमा की पैग़म्बरी पर आस्था रखते हैं।” मोहम्मद ग़ज़ाली आगे कहते हैं, “बहुत से धार्मिक आदेशों के संबंध में मेरा दृष्टिकोण शियों से अलग है लेकिन इसके बावजूद मेरा यह मानना नहीं है कि जो भी मेरे विचार के ख़िलाफ़ है वह गुनहगार है। सुन्नी संप्रदाय के बीच धर्मशास्त्र के संबंध में कुछ प्रचलित विचारों के बारे में भी मेरा यही दृष्टिकोण है।” शैख़ मोहम्मद ग़ज़ाली कि जिनका यह मानना है कि शिया-सुन्नी मतभेद को हवा देना, धर्म के दुश्मनों की साज़िश है, लिखते हैं, “अंततः धर्म के दुश्मनों ने शिया-सुन्नी के बीच मतभेद को मूल आस्थाओं से जोड़ दिया ताकि अखंड रूपी धर्म के दो हिस्से हो जाएं और इस्लामी जगत दो शाख में बट जाए। हर एक दूसरे की घात में लगा रहे बल्कि उसकी मौत का इंतेज़ार करे। अगर किसी ने भी इस मतभेद को फैलाने में एक शब्द के ज़रिए भी मदद की तो उसके बारे में पवित्र क़ुरआन के इनआम सूरे की आयत नंबर 159 चरितार्थ होती है कि जिसमें ईश्वर कह रहा है, जिन लोगों ने अपने धर्म को मत और संप्रदाय में बांट दिया, उन्हें उनके हाल पर छोड़ दीजिए। उनसे ईश्वर निपटेगा। ईश्वर उन्हें उनके कर्म के लिए दंडित करेगा।” शैख़ ग़ज़ाली कहते हैं, “जब हम धार्मिक आदेश के संबंध में मतभेद की समीक्षा करते हैं तो यह पाते हैं कि शिया-सुन्नी के बीच अंतर उतना ही है जितना धर्म शास्त्र के संबंध में अबू हनीफ़ा और इमाम मालेकी या इमाम शाफ़ई के विचारों के बीच अंतर है। मेरी नज़र में सभी सत्य की खोज करने वाले हैं चाहे शैलियां अलग अलग हैं।”
शैख़ महमूद शलतूत ने इस्लामी मतों को एक दूसरे के निकट लाने के लिए दारुत तक़रीब बैनल मज़ाहेबिल इस्लामिया नामक संस्था क़ायम की। शैख़ शलतूत पवित्र क़ुरआन के व्याख्याकार थे और उनकी गणना बड़े सुन्नी धर्मगुरुओं में होती है। इसी प्रकार वे मिस्र की अलअज़हर यूनिवर्सिटी के कुलपति भी रह चुके हैं। उन्होंने भी शिया-सुन्नी संप्रदाय के बीच एकता के लिए बहुत कोशिश की। उनके ईरान के वरिष्ठ शिया धर्मगुरु आयतुल्लाह सय्यद हुसैन बुरुजर्दी के साथ दोस्ताना संबंध थे। शैख़ शलतूत ने शिया मत के बारे में अपने मशहूर फ़त्वे में कहा है, “जाफ़री मत जो शिया इस्ना अशरी मत के नाम से मशहूर है, ऐसा मत है जिसका अन्य सुन्नी मतों की तरह पालन करना धार्मिक दृष्टि से सही है। मुसलमानों को यह बात जाननी चाहिए और विशेष मत के संबंध में भेदभाव न अपनाएं।” शैख़ शलतूत दारुत तक़रीब नामक संस्था की बैठकों के बारे में कहते हैं, “काश मैं दारुत तक़रीब की बैठकों का आपके सामने सही चित्रण पेश कर सकूं कि जब मिस्री ईरानी या लेबनानी या इराक़ी या पाकिस्तानी या अन्य इस्लामी राष्ट्रों के प्रतिनिधियों के साथ बैठते हैं, हनफ़ी, मालेकी, शाफ़ई और हंबली के धर्मगुरु इमामी और ज़ैदी मत के धर्मगुरु के साथ एक मेज़ पर बैठते हैं और वहां ज्ञान, धर्मशास्त्र और अध्यात्म की बातें होती हैं और इससे भी बढ़कर भाईचारे, मेल-मोहब्बत और ज्ञान व अध्यात्म के क्षेत्र में सहयोग की भावना छायी रहती है।” शैख़ शलतूत ने इसी प्रकार कुछ ग़ैर जागरुक लोगों की ओर से दारुत तक़रीब के गठन के विरोध के बारे में लिखा है, “संकीर्ण मानसिकता के लोगों ने एकता के विचार का विरोध किया उसी तरह जिस तरह एक दूसरे गुट ने एकता का विरोध किया। कोई भी संप्रदाय इस तरह के लोगों से ख़ाली नहीं है। जिन लोगों को फूट में अपना वजूद और पैसा दिखाई दिया उन्होंने इसका विरोध किया। इच्छाओं के ग़ुलाम लोग और विशेष रूझान रखने वाले दारुत तक़रीब के विरुद्ध सक्रिय हुए। दोनों तरह के लोगों ने अपना क़लम फूट की राजनीति के लिए बेच दिया। यह वह राजनीति है जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हर सुधारवादी आंदोलन का विरोध करती है और मुसलमानों के बीच एकता पैदा करने वाले हर प्रयास के ख़िलाफ़ खड़ी हो जाती है।”
उस्ताद समीह आतिफ़ अज़्ज़ैन सुन्नी संप्रदाय के मशहूर विचारक हैं। वह ‘अलमुस्लेमून मन हुम’ अर्थात ‘मुसलमान कौन हैं’ नामक किताब की प्रस्तावना में लिखते हैं, “जिस चीज़ ने इस किताब को लिखने के लिए प्रेरित किया वह आज हमारे समाज में मौजूद फूट है। ख़ास तौर पर शिया-सुन्नी के बीच फूट है जिसे अज्ञानता के ख़त्म होने के साथ ख़त्म हो जाना चाहिए था लेकिन खेद की बात है कि यह फूट बीमार मन में अभी भी मौजूद है। क्योंकि इसका स्रोत वह वर्ग है जिसने इस्लामी जगत में फूट डाल कर हुकूमत की और धर्म का दुश्मन है।” उनका मानना है कि शिया-सुन्नी के बीच मतभेद पवित्र क़ुरआन और पैग़म्बरे इस्लाम की परंपरा को लेकर नहीं है बल्कि यह मतभेद पवित्र क़ुरआन और परंपरा के अर्थ को लेकर है। वह अंत में कहते हैं, “सांप्रदायिकता की घृणित भावना को ख़त्म करना चाहिए और उन लोगों को रोकना चाहिए जो द्वेष फैला रहे हैं ताकि मुसलमान विगत की तरह एक समूह, एक दूसरे के सहयोगी व दोस्त बन जाएं।”
उस्ताद साबिर तईमा समकालीन सुन्नी हस्तियों में हैं। वह कहते हैं, “शिया-सुन्नी के बीच मूल सिद्धांत पर कोई मतभेद नहीं है। यह मतभेद माध्यामिक महत्व के विषय पर हैं जैसा कि इस तरह के मतभेद सुन्नी मतों शाफ़ई और हंबली इत्यादि के बीच मौजूद हैं। सच्चाई यह है कि शिया और सुन्नी दोनों ही इस्लाम के मत हैं और दोनों का आधार पवित्र क़ुरआन और पैग़म्बरे इस्लाम का आचरण है।”
समकालीन सुन्नी मत के विचारक, धर्मगुरु व प्रचारक अबुल हसन अली नदवी शिया-सुन्नी के एक दूसरे के निकट आने की आशा करते हुए कहते हैं, “अगर शिया-सुन्नी के बीच निकटता आ जाए, इस्लामी विचार के पुनर्जागरण के इतिहास में एक अद्वितीय इन्क़ेलाब आ जाएगा।”