एकता सप्ताह-3
(last modified Wed, 14 Dec 2016 11:04:32 GMT )
Dec १४, २०१६ १६:३४ Asia/Kolkata

इस्लामी एकता उन महत्वपूर्ण विषयों में है जिस पर पवित्र क़ुरआन और पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों ने बहुत अधिक ध्यान दिया है।

पवित्र क़ुरआन में ईश्वर ने जगह जगह पर एकता व अखंडता की प्रशंसा की है और फूट को बुरा कहा है। पवित्र क़ुरआन में अनेक अवसर पर पूरी मानवता से एकजुट रहने और आपस में फूट से बचने पर बल दिया गया है। जैसा कि पवित्र क़ुरआन के आले इमरान नामक सूरे की आयत नंबर 103 में ईश्वर कह रहा है, “ईश्वर की रस्सी को मज़बूती से पकड़ लो और फूट का शिकार न हो।”

इस्लामी एकता उन सबसे महत्वपूर्ण विचारों व आकांक्षाओं में है जिसके लिए इस्लाम के आरंभ से अब तक हर कुलीन मुसलमान ने कोशिश की है। पैग़म्बरे इस्लाम और उनके परिजन हमेशा इस्लामी एकता पर बल देते थे और इसी में इस्लामी समाज की सफलता व कल्याण को निहित बताते थे। जैसा कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम सहित दूसरे इमाम अपने पवित्र जीवन में मुसलमानों के बीच एकता की रक्षा के लिए अपने छीने गए अधिकारों के संबंध में ख़ामोश रहे ताकि मुसलमानों के बीच फूट न पड़ने पाए। मुसलमान एकेश्वरवाद, पवित्र क़ुरआन और काबा को ध्रुव मानते हुए आपस में एकजुट रहें। इसी बात के मद्देनज़र इस्लामी क्रान्ति भी इस्लामी जगत में एकता को बहुत अहमियत देती है।

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1979 में इस्लामी क्रान्ति की सफलता के बाद, इमाम ख़ुमैनी ने इस्लामी एकता को अपना स्ट्रैटिजिक नारा क़रार दिया। इसके अलावा इस्लामी गणतंत्र ईरान के संविधान में भी सभी इस्लामी मतों के अनुयाइयों को पूरी आज़ादी के साथ अपने अपने मतों के पालन का अधिकार दिया गया है यहां तक कि दूसरे मतों के अनुयाइयों को उस अदालत का दामन थामने की इजाज़त दी गयी है जो उनके दृष्टिकोण के अनुसार फैसला सुनाए।

इसी परिप्रेक्ष्य में इस्लामी गणतंत्र ईरान ने पैग़म्बरे इस्लाम के जन्म दिवस को एकता सप्ताह के रूप में घोषित किया और इस्लामी मतों को एक दूसरे के निकट लाने के लिए ‘मजमए जहानिए तक़रीबे मज़ाहिबे इस्लामी’ नामक विश्व सभा का गठन किया। इस्लामी क्रान्ति, जो इस्लामी शिक्षाओं के आधार पर वजूद में आयी, पीड़ितों की मदद करती है, अत्याचार के ख़िलाफ़ डटी हुयी है, किसी भी साम्राज्यवादी की ओर दोस्ती का हाथ नहीं बढ़ाएगी।          

मुसलमानों के बीच ज़्यादा से ज़्यादा एकता इस्लामी क्रान्ति की मुख्य आकांक्षाओं में है क्योंकि मुसलमानों का सम्मान और शक्ति एकता पर निर्भर है। इस सम्मान व शक्ति के ज़रिए इस्लामी जगत अपने दुश्मनों का मुक़ाबला कर सकता है और उनके मन में अपनी धाक बिठा सकता है। ज़ायोनी जो इस्लामी जगत के सबसे बड़े दुश्मनों में हैं, वर्षों से पूरे फ़िलिस्तीन का अतिग्रहण और पूरे मुसलमानों का सफ़ाया करना में लगे हुए हैं। फ़िलिस्तीन का समर्थन और क़ुद्स दिवस का नामकरण फ़िलिस्तीन की पीड़ित जनता के समर्थन के लिए ईरान की कोशिश का एक हिस्सा है। इस्लामी जगत की ओर से समर्थन अतिग्रहणकारी ज़ायोनियों को नील से फ़ुरात तक की भूमि पर क़ब्ज़ा करने के सपने को कभी भी साकार करने नहीं देगा। इसलिए इस्लामी क्रान्ति मुसलमानों के बीच भाईचारे की कोशिश में है। मुसलमान जितना ज़्यादा एकजुट रहेंगे उतना ज़्यादा सम्मान व शक्ति हासिल करेंगे ताकि दुश्मन इस्लामी जगत की भूमि का अतिग्रहण करने और उसमें मौजूद तेल, गैस और खान जैसे प्राकृतिक स्रोतों को हड़पने का ख़्याल भी न कर सके। इस प्रकार इस्लामी देशों की संपदा इस्लामी जगत के चौमुखी विकास पर ख़र्च होगी।

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इस्लामी क्रान्ति ऐसी एकता की कोशिश में है कि सब मुसलमानों के बीच आपस में दोस्ताना संबंध हों और सभी एक दूसरे के विकास में मदद करें। मिसाल के तौर पर अगर कोई इस्लामी देश विज्ञान की किसी शाखा में कोई प्रगति करे तो यह प्रगति उस तक सीमित न रहे बल्कि दूसरे इस्लामी देशों के वैज्ञानिकों तक पहुंचे और वे भी उस क्षेत्र में प्रगति करें। इस दृष्टिकोण के साथ प्रतिस्पर्धा दोस्ती में बदल जाएगी और सभी अखंड इस्लामी जगत के विकास के लिए कोशिश करेंगे।

अलबत्ता इस बात का उल्लेख भी ज़रूरी है कि इस्लामी क्रान्ति शिया-सुन्नी सहित इस्लामी मतों के अनुयाइयों के बीच एकता की कोशिश कर रही है न कि वहाबियत व सलफ़ीवाद के साथ क्योंकि भ्रातृहत्या सलफ़ियों के भ्रष्ट विचारों की देन है और आज आतंकवादी व तकफ़ीरी गुटों में ख़ास तौर पर दाइश से घृणित अपराध कर रहा है और ईश्वर व पैग़म्बरे इस्लाम के नाम पर शिया-सुन्नी सहित मुसलमानों का जनसंहार कर रहा है।                             

इस्लामी एकता इतना महत्वपूर्ण विषय है कि यह इस्लामी क्रान्ति की सफलता के आरंभ से ही सबसे महत्वपूर्ण विषयों में शामिल रहा है। इस्लामी क्रान्ति के संस्थापक इमाम ख़ुमैनी एकता को निर्णायक मानते थे। उनका मानना था कि राष्ट्रीय एकता देश व राष्ट्रीय शक्ति की रक्षा और देश के राष्ट्रीय स्रोतों की लूटमार को बचाने के लिए बहुत अहम है। इसी प्रकार उनका मानना था कि मसुलमानों के बीच एकता उन्हें सम्मान दिलाएगी और इस्लाम व क़ुरआन को नुक़सान पहुंचने से रोकेगी। इसी प्रकार उनका मानना था कि पीड़ितों के बीच एकता साम्राज्य से लड़ने के लिए बहुत अहम है। इमाम ख़ुमैनी मुसलमानों के बीच एकता को उस मज़बूत पेड़ की तरह देखते थे जिसका फल मुसलमानों की सफलता, दुश्मन का विनाश और इस्लामी देशों की प्रगति व विकास है। वह एकता को ही मुसलमानों के वजूद को बचाने की गैरंटी मानते थे।

इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह की नज़र में एकता के लिए विरोधी पक्ष की बात को सहन करना भी ज़रूरी है। उनका मानना था कि यह धैर्य व संयम सिर्फ़ आत्मनिर्माण और इच्छाओं से संघर्ष से हासिल होगा। इसलिए इमाम ख़ुमैनी की नज़र में इच्छा से संघर्ष एकता की प्राप्ति के लिए बहुत अहम है। इमाम ख़ुमैनी का मानना था कि जो लोग फूट डालने वाले विषय उठाते हैं उनके मन में इस्लाम का कोई दर्द नहीं है बल्कि आत्ममुग्धता के शिकार हैं।

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इमाम ख़ुमैनी का मानना था कि मुसलमान मतों के बीच आपस में संवाद, एक दूसरे को निकट लाने की कोशिश, संयुक्त भावना और संयुक्त भविष्य पर यक़ीन से, दुश्मन की मुसलमानों के बीच फूट डालने की साज़िश नाकाम हो जाएगी।

इस्लामी क्रान्ति के सबसे बड़े रणनैतिककार व नेता इमाम ख़ुमैनी इस्लमी एकता के बारे में कहते हैं, “इस्लाम के आरंभ में मुसलमानों की सफलता की राज़ एकता और ईमान की शक्ति थी जिसने एक कमज़ोर फ़ौज को दुनिया के बड़े साम्राज्यों पर विजय दिलायी। हे दुनिया के मुसलमानो! हे एकेश्वरवाद के अनुयाइयों! इस्लामी देशों की सारी समस्याओं की जड़ फूट है और सफलता की कुंजी एकता व समन्वय है। सबको इस्लाम के लिए, मुसलमानों के हित के लिए, फूट व दलगत नीति से बचने के लिए कोशिश करनी चाहिए जो सभी दुर्भाग्य व पिछड़ेपन का कारण है।”                 

इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सय्यद अली ख़ामेनई भी इमाम ख़ुमैनी की तरह एकता को बहुत निर्णायक मानते हैं। वह एकता को इस्लामी जगत के मूल विषयों में मानते हैं और बल देते हैं कि एकता का अर्थ यह नहीं है कि सभी मुसलमान एक ही शैली को मानें बल्कि एकता का अर्थ है अलग अलग शैलियों के बावजूद एक दूसरे के साथ होना और मुसलमानों के हितों को अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं पर प्राथमिकता देना। वरिष्ठ नेता इस बारे में कहते हैं, “हम इस्लामी जगत के संप्रदायों से यह नहीं कहते कि अपनी विशेष आस्था को छोड़ कर किसी विशेष मत की आस्था को मानें बल्कि हम सभी मुसलमानों से कहते हैं कि हमारे बीच मौजूद संयुक्त बिन्दु मतभेद की तुलना में ज़्यादा हैं। हमारे दुश्मन मतभेद को हवा देते हैं। हमें इसके विपरीत अपने संयुक्त बिन्दुओं को मज़बूत करना चाहिए और दुश्मन के हाथ से बहाना छीन लेना चाहिए कि वह हमारे मतभेद के कारण इस्लामी जगत पर दबाव डाले।”

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वरिष्ठ नेता दुश्मन के फूट डालने वाले व्यवहार की समझ को हर मुसलमान के लिए ज़रूरी समझते हैं। वे इस बारे में कहते हैं, “पश्चिम और अमरीका इस कोशिश में हैं कि शिया-सुन्नी के नाम पर मुसलमानों के बीच संप्रदाय पैदा करें, इसलिए सबको होशियार रहना चाहिए और विषयों की इस दृष्टि से समीक्षा करनी चाहिए।”