कौन से शायरों को इमाम हुसैन से इनाम मिला?
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 कर्बला की घटना के बाद से पूरी दुनिया में इस दर्दनाक घटना पर कविताएं लिखी गयीं, शेर कहे गये और नौहे व मरसियों द्वारा इस घटना का दर्द बयान किया गया। शेर और कविताओं में कर्बला की घटना बयान करने वालों में ऐसे शायर भी थे जिन्हें, किसी न किसी तरह यह बता दिया गया कि उनकी कविता और उनके शेर से, इमाम हुसैन खुश हुए हैं। इन शायरों की संख्या काफी है किंतु यहां हम कुछ का उल्लेख कर रहे हैं।
(last modified 2023-04-09T06:25:50+00:00 )
Sep १३, २०१९ १६:१२ Asia/Kolkata
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    प्रसिद्ध पेंटिंगः आसमान ज़मीन पर गिर गया

 कर्बला की घटना के बाद से पूरी दुनिया में इस दर्दनाक घटना पर कविताएं लिखी गयीं, शेर कहे गये और नौहे व मरसियों द्वारा इस घटना का दर्द बयान किया गया। शेर और कविताओं में कर्बला की घटना बयान करने वालों में ऐसे शायर भी थे जिन्हें, किसी न किसी तरह यह बता दिया गया कि उनकी कविता और उनके शेर से, इमाम हुसैन खुश हुए हैं। इन शायरों की संख्या काफी है किंतु यहां हम कुछ का उल्लेख कर रहे हैं।

कौन से शायरों को इमाम हुसैन से इनाम मिला?

 कर्बला की घटना के बाद से पूरी दुनिया में इस दर्दनाक घटना पर कविताएं लिखी गयीं, शेर कहे गये और नौहे व मरसियों द्वारा इस घटना का दर्द बयान किया गया। शेर और कविताओं में कर्बला की घटना बयान करने वालों में ऐसे शायर भी थे जिन्हें, किसी न किसी तरह यह बता दिया गया कि उनकी कविता और उनके शेर से, इमाम हुसैन खुश हुए हैं। इन शायरों की संख्या काफी है किंतु यहां हम कुछ का उल्लेख कर रहे हैं।

 

अबुलहसन ख़लीई

    इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके परिजनों के लिए कविता और शेर कहने वाले प्रसिद्ध अरब शायर " खलीई" की कहानी बेहद चौंका देने वाली है। " अबुल हसन जमालुद्दीन अली बिन अब्दुल अज़ीज़ बिन अबी मुहम्मद अलखलई या अलखलीई" की यह कहानी उनके जनम से पहले ही आरंभ हो चुकी थी। उनके माता पिता इराक़ के मोसिल नगर में रहते थे और दोनों की " नासेबी" अर्थात " अहलेबैत" यानी पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों के दुश्मन थे। ख़लीई की मां ने मन्नत मानी कि अगर उसे बेटा हुआ तो वह अपने इस बेटे को डाकू बनाएगी जो केवल उन श्रद्धालुओं के कारवानों को लुटेगा जो कर्बला इमाम हुसैन के मज़ार के दर्शन के लिए जा रहे होंगे।

    खलीई की मां की मन्नत पुरी हुई और खलीई का जन्म हुआ और जब जब बड़े हो गये तो अपनी मां की मन्नत उतारने के लिए हथियारों से लैस होकर उस जगह छुप कर बैठ गये जहां से कर्बला जाने वालों का काफिला गुज़रता था। ख़लीई ने काफी देर इंतेज़ार किया और इसी इंतेज़ार में उनकी आंख लग गयी इसी दौरान कर्बला जाने वाला एक कारवां वहां से गुज़रा लेकिन उनकी आंख नहीं खुली। मगर जब वह नींद से जागे तो सचमुच उनकी आंख खुल गयी थी। यह सब कुछ उस ख्वाब की वजह से था जो उन्होंने देखा था।

    खलीई ने ख्वाब देखा कि क़यामत और हिसाब किताब हो रहा है, फरिश्तों से कहा गया कि वह ख़लीई को जहन्नम में डाल दें और फरिश्तों ने ख़लीई को भड़कती आग में फेंक दिया लेकिन खलीई को आग जला नहीं रही थी ध्यान देने पर उन्हें पता चला कि उनके कपड़ों पर जो धूल जमी है उसकी वजह से जहन्नम की आग उन्हें जला नहीं पा रही है। यह वही धूल थी जो कर्बला जाने वाले कारवां में पैदल चलने वालों और ऊंटों और घोड़ों ने उड़ायी थी। खलीई की आंख खुली और वह जाग गये वहीं पर अपने इस बड़े गुनाह की माफी मांगी और खुद भी कर्बला की ओर रवाना हो गये।

    कर्बला पहुंचने के बाद खलीई इमाम हुसैन के रौज़ै में गये और आंखों से आंसू बहने लगे उनके चेहरे पर अपने किये का पछतावा था और माथे पर पसीना इसी हालत में उन्होंने दो शेर कहे और फिर शेर पर शेर कहते गये। वह कविता कह रहे थे लोग उनके आस पास एकत्रित थे इसी दौरान अचानक इमाम हुसैन के मज़ार के दरवाज़े का पर्दा गिरा और उनके शरीर पर लिपट गया। लोगों ने कहा कि इमाम हुसैन ने उन्हें "खिलअत" दी है। खिलअत उस पोशाक को कहते हैं जो राजा महाराजा किसी को सम्मान के लिए देते हैं। उसी दिन से उनका नाम " खलीई" या " खलई" अर्थात " खिलअत वाला" पड़ गया। सन 750 हिजरी क़मरी में खलई का देहान्त हुआ।

 

वेसाल शीराज़ी

ईरानी और फारसी साहित्य के बारे में जानकारी रखने वालों के लिए वेसाले शीराज़ी का नाम बेहद जाना पहचाना है। वेसाल शीराज़ी का सन 1783 ईसवी में ईरान के शीराज़ नगर में जन्म हुआ था और सन 1846 ईसवी में उनका देहान्त हो गया।

यह काजारी शासक फतेहअली शाह के दौर के मशहूर ईरानी शायर हैं और इनका पूरा नाम " मीर्ज़ा मुहम्मद शफी शीराज़ी, उर्फ वेसाल शीराज़ी " है। वेसाल शीराज़ी को शायरी के साथ ही साथ, सुलेखन का भी बहुत शौक़ था। वह अरबी लिपि की सभी प्रसिद्ध शैलियों में बेहद खूबसूरती के साथ लेखन करते थे। उन्होंने कुरआने मजीद की 67 प्रतियां अपने हाथों से लिखी हैं।

लिखते लिखते उन्हें मोतियाबिंद हो गया, डॉक्टर के पास गये तो उसने इलाज किया लिखने लिखने पढ़ने मना कर दिया। वेसाल शीराज़ी ने डॉक्टर की सलाह नहीं मानी और ठीक होने के बाद फिर से लिखना पढ़ना आरंभ कर दिया जिसकी वजह से वह पूरी तरह अंधे हो गये। अब डॉक्टरों ने भी हाथ उठा लिये। दवा से मायूस होने के बाद वेसाल शीराज़ी ने दुआ का सहारा लिया और पैग़म्बरे इस्लाम से दुआ करके अपनी बीमारी को ठीक करने की प्रार्थना की। एक दिन ख्वाब में देखा कि पैग़म्बरे इस्लाम उनसे कह रहे हैं कि तुम हुसैन के लिए " मर्सिया" क्यों नहीं कहते ताकि अल्लाह तुम्हारी आंखों की रौशनी वापस लौटा दे?

मर्सिया उस कविता को कहते हैं जिसमें किसी के मरने के बाद उसके वियोग  और पीड़ा का वर्णन किया गया हो। वेसाल शीराज़ी को अपनी बीमारी का इलाज मिल चुका था शायर तो वह थे ही लेकिन उनका ख्वाब अभी खत्म नहीं हुआ था। अचानक उन्होंने पैगम्बरे इस्लाम की बेटी और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की मां, हज़रत फ़ातेमा की आवाज़ सुनीं, वह कह रही थीं कि " मर्सिया कहना तो उसकी शुरुआत मेरे बेटे हसन से करना, वह बहुत मज़लूम है। "

दूसरे दिन सुबह  जब वेसाल शीराज़ी की आंख खुली तो पूरा ख्वाब उन्हें याद था। दीवार के सहारे वह  अपने घर में टहलने लगे और टहलते टहलते उन्होंने मर्सिया कहना आरंभ कर दियाः

 

از تاب رفت و طشت طلب کرد و ناله کرد  آن طشت را ز خون جگر باغ لاله کرد

(बेदम हो गये, थाल मंगवाई, आह खींची और वह थाल, उनके कलेजे के खून से, गुलाब का बाग बन गयी)

दूसरा शेर खत्म नहीं हुआ था कि उनकी आंखों में रौशनी लौट आयी मगर वह कविता कहते रहेः

خونی که خورد در همه عمر، از گلو بریخت/ دل را تهی زخون دل چند ساله کرد

( पूरी उम्र जो खून के घूंट पीये थे उसे गले की राह से बाहर निकाल दिया, उन्होंने अपने दिल को कई वर्षों से जमे इस खून से खाली कर दिया।)

वेसाल शीराज़ी को इनाम मिल चुका था। वेसाल शीराज़ी आज फारसी साहित्य में एक बड़ा नाम हैं।

 

मुक़बिल काशानी

मुक़बिल काशानी इमाम हुसैन और अहलेबैत के बारे में शेर कहते थे और काफी मशहूर भी थे लेकिन उनकी एक मनोकामना थी। उन्हें कर्बला जाकर इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के मज़ार का दर्शन करने की बड़ी इच्छा थी किंतु आर्थिक स्थिति की वजह से वह कर्बला तक की यात्रा नहीं कर पाते थे। बहुत दिनों के बाद अचानक उनके एक दोस्त ने उनकी कर्बला यात्रा का खर्चा उठाना स्वीकार किया और वह ईरान के काशान नगर से कर्बला जाने वाले कारवां में शामिल होकर इराक़ की ओर चल दिये। मगर किस्मत में कुछ और लिखा था। रास्ते में उनके कारवां को डाकुओं ने लूट लिया। उनका सब कुछ लुट चुका था। कुछ लोग खाली हाथ काशान लौट गये कुछ लोगों ने आगे जाकर गुलपाएगान में ठहरने का फैसला किया। मुक़बिल काशानी ने भी सोचा कि वापस जाकर क्या होगा? उन्होंने गुलपाएगान जाकर वहां काम करने और कर्बला यात्रा का खर्चा जुटाने का फैसला किया।

    मुक़बिल काशानी गुलपाएगान में काम करने लगे और पैसा जमा करने लगे यहां तक कि मुहर्रम का महीना आ गया, उन्होंने इमाम  हुसैन और कर्बला के बारे में एक बहुत की प्रभावशाली व दर्द से भरी कविता कही और दसवीं मुहर्रम को गुलपाएगान की एक शोक सभा में पढ़ दिया। उनकी कविता सुन का वहां कोहराम मच गया। उसी रात जब वह सोए तो उन्होंने ख्वाब में देखा कि कर्बला पहुंच गये हैं। लेकिन जब वह रौज़े में इमाम हुसैन की क़ब्र के पास जाने लगे तो उन्हें रोक दिया गया, उन्हों बड़ा दुख हुआ मगर फिर उन्हें बताया गया कि अभी कुछ बड़ी हस्तियां ज़ियारत के लिए वहां मौजूद हैं, उन्हें इमाम हुसैन के मज़ार के दूसरे हिस्से की ओर ले जाया गया जहां इमाम हुसैन की शोक सभा हो रही थी और पैगम्बरे इस्लाम भी बैठे थे। उन्होंनें देखा कि ईरान के बेहद प्रसिद्ध शायर " मोहतशिम काशानी" को मर्सिया पढ़ने को कहा जा रहा है। वह भी बैठ गये और पूरा मर्सिया सुना, जब वहां से निकले तो मन में यह इच्छा उमड़ी के काश! उनसे भी पैग़म्बरे इस्लाम  एक मर्सिया सुन लेते! मुक़बिल काशानी स्वंय इस बारे में कहते हैः

    " निराशा के साथ मज़ार से बाहर  निकला तभी एक आवाज़ आयी कि हज़रत फातेमा ने आदेश दिया है कि मुक़बिल से भी कह दो कि वह अपनी कविता पढ़े। यह सुन कर मैं भी वहां गया और मैने भी पढ़ना शुरु कर दिया। कुछ देर बाद मुझे पढ़ने से रोक दिया गया और कहा गया कि तुम्हारा मर्सिया सुन कर हज़रत फ़ातेमा का रो रो कर बुरा हाल हो गया है। तभी मैंने इमाम हुसैन को देखा जो मुझ से कह रहे थे कि मुक़बिल तुम्हारे इस मर्सिये का इनाम मैं खुद तुमको दूंगा। दूसरे दिन सुबह जब मेरी आंख खुली तो कर्बला जाने वाले एक कारवां की ओर से मुझे संदेश मिला कि तुम भी हमारे साथ कर्बला जा सकते हो। मुझे मेरा इनाम मिल चुका था। "  (Q.A.) साभार, फार्स न्यूज़ एजेन्सी