अहलेबैत का अनुयाई भ्रष्टाचार और अन्याय के ख़िलाफ़ डट जाता है/ ज़िम्मेदारी के बिना धर्म अफ़ीम है
(last modified 2024-08-05T10:44:14+00:00 )
Aug ०५, २०२४ १६:१४ Asia/Kolkata
  • अहलेबैत का अनुयाई भ्रष्टाचार और अन्याय के ख़िलाफ़ डट जाता है/ ज़िम्मेदारी के बिना धर्म अफ़ीम है

पार्सटुडे- ईरान की सांस्कृतिक उच्च क्रांति परिषद के एक सदस्य ने कहा है कि जो व्यक्ति या समाज अपने आप को कुछ न समझे वह कुछ नहीं कर सकता।

ईरान की सांस्कृतिक उच्च क्रांति परिषद के एक सदस्य हसन रहीमपूर अज़्ग़दी ने राजनीतिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में सक्रिय जवानों को संबोधित करते हुए भविष्य के निर्माण के लिए अतीत की पहचान के महत्व पर बल दिया और कहा कि अतीत को पहचाने बिना भविष्य का निर्माण नहीं किया जा सकता। इस आधार पर सबसे पहले यह सोचना चाहिये कि आप किसके वारिस हैं? आपसे पहले विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले या तो जंग के मोर्चे पर गोली खाते थे या जंग के मोर्चे के पीछे हक़ की रक्षा में बुरा भला सुनते थे या कुर्दिस्तान और सीस्तान प्रांतों में कुमले आतंकवादियों के हाथों मारे जाते थे।

 

इंसान को पैदा करने का तर्क व फ़ल्सफ़ा और अहलेबैत को सही ढ़ंग से पहचानने का तरीक़ा

रहीमपर अज़्ग़दी ने धर्म और अहलेबैत अलैहिमुस्सलाम को सही तरह से समझने में मौजूद व प्रचलित कुछ भ्रांतियों की आलोचना करते हुए कहा कि आमतौर पर प्रचलित आदत के अनुसार जैसे ही अहलेबैत का नाम आता है हमारी हाजतें हमारी नज़रों के सामने आ जाती हैं जबकि हक़ीक़त यह है कि इंसान की सबसे बड़ी ज़रूरत सही रास्ते का मिल जाना और उस पर चलना है और केवल अपनी भौतिक ज़रूरतों के लिए धर्म और अहलेबैत अलै. को नहीं अपनाना चाहिये।

 

वह इसी प्रकार कहते हैं कि धार्मिक शिक्षाओं में आया है कि दुनिया कठिनाइयों व समस्याओं की जगह है। इंसान की रचना का तर्क व फ़ल्सफ़ा इन कठिनाइयों को यथासंभव मार्ग से पार करना है। उन्होंने बल देकर कहा कि जो लोग कठिनाई व समस्या का सामना किये बिना दुनिया को हासिल करना चाहते हैं उन लोगों ने धर्म और अहलैत को सही तरह से नहीं समझा।

 

आज की दुनिया में दीनदारी और स्वयं पर टीका-टिप्पणी

धार्मिक शिक्षाकेन्द्र और विश्वविद्यालय के उस्ताद और बुद्धिजीवी रहीमपूर अज़्ग़दी कहते हैं कि हम इंसान आमतौर पर धार्मिक संस्कारों को काफ़ी समझते हैं और हमारी दीनदारी भी विदित है यानी विदित व ज़ाहिर में हम धार्मिक हैं। वह कहते हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम ने फ़रमाया है कि लोग ज़बान से अल्लाह को क़बूल करते हैं परंतु वे अमल और ज़िन्दगी में अल्लाह पर विश्वास नहीं रखते और ईमान उनके अमल में दिखाई नहीं देता है क्योंकि हम अल्लाह को हाज़िर व नाज़िर नहीं मानते हैं। हम तौबा करते हैं मगर झूठ बोलते हैं दूसरों का हक़ खाते हैं, मुर्दों को देखते हैं परंतु मौत पर यक़ीन व विश्वास नहीं रखते हैं हम अपने हितों के प्रयास में रहते हैं मगर कष्ट उठाये बिना जबकि इस्लामी शिक्षाओं के अनुसार ईमान और अच्छे अमल के बिना कोई भी स्वर्ग में नहीं जायेगा और उसका अच्छा अंजाम नहीं होगा।

 

भ्रष्टाचार और अन्याय से मुक़ाबला करने वाल को पैग़म्बरों की भांति समस्याओं का सामना होगा

रहीमपूर अज़्ग़दी ने पैग़म्बरों और नेक बंदों द्वारा धर्म के लिए उठाई गई समस्याओं और कठिनाइयों की ओर संकेत करते हुए कहा कि हम लोग आमतौर पर उस वक़्त राजनीतिक व सांस्कृतिक गतिविधियां अंजाम देते हैं जब हमारी समस्याओं और ज़रूरतों का समाधान हो चुका होता है। अगर इस रास्ते में हमको किसी से कोई समस्या न हो, हमें कोई नुकसान न हो, हम बुरा-भला नहीं सुनेंगे यानी हमारा कोई दुश्मन नहीं होगा यानी हम कुछ नहीं हैं और हम किसी भी बातिल, भ्रष्टाचार और अन्याय के ख़िलाफ़ खड़े नहीं हुए हैं जबकि जन्नत के चारों ओर समस्यायें हैं यानी समस्याओं का सामना किये बिना स्वर्ग हासिल नहीं किया जा सकता। तो जब भी हमारी ज़िन्दगी का रास्ता साफ़ हो यानी ज़िन्दगी में हमें किसी समस्या प्रकार की समस्या का सामना न हो तो हम स्वर्ग की ओर या बेहतर तरीक़े से कहूं कि इबादत के रास्ते में नहीं हैं।

 

उस इबादत का कोई मूल्य नहीं है जो हमें परिवर्तित न कर दे

रहीमपूर अज़्ग़दी पैग़म्बरे इस्लाम के पौत्र इमाम रज़ा अलै. के हवाले से एक रिवायत की ओर संकेत करते हैं जिसमें इमाम फ़रमाते हैं जो अल्लाह से तौफ़ीक़ चाहता है मगर पसीना न बहाये यानी परिश्रम न करे, ख़तरा मोल न ले तो उसने स्वयं का मज़ाक़ उड़ाया है। इसी प्रकार वह बल देकर कहते हैं कि ज़िम्मेदारी के बिना धर्म लोगों के लिए अफ़ीम और बहुत ख़तरनाक है। अगर हम हर साल हज, तीर्थ स्थलों और मशहद की यात्रा पर जाते हैं परंतु हमारे जीवन में कोई परिवर्तन उत्पन्न नहीं होता है तो उसका कोई फ़ायदा नहीं है। इन सब ज़ियारतों पर जाने के बजाये महान व धार्मिक हस्तियों के आदेशों पर अमल करना चाहिये।

 

स्वयं की आलोचना करने का महत्व

रहीमपूर अज़्ग़दी स्वयं पर टीका- टिप्पणी करने के महत्व की ओर संकेत करते हुए कहते हैं कि जो व्यक्ति या समाज अपना हिसाब- किताब न करे वह विफ़ल व नाकाम है। जो कमज़ोरों व असहाय लोगों की मदद न करे, जिसके अंदर दूसरों की सेवाभाव जज़्बा न हो और वह धार्मिक होने का दावा करे परंतु कोई स्टैंड नहीं लेता है न मुर्दाबाद को मानता है न ज़िन्दाबाद को, वह सबसे सहमत है या सबका विरोधी है, बेहतरीन हालत में अहलेबैत से प्रेम करने वाला है न कि अहलेबैत का शिया। MM

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