Mar २८, २०२४ ११:०९ Asia/Kolkata
  • हॉलीवुड का जंगी नैरेटिव अमरीकी हस्तक्षेप के लिए कैसे रास्ता बनाता है?

पार्स टुडे- अमरीका का फ़िल्म उद्योग हॉलीवुड 11 सितम्बर 2001 के बाद एक नई स्ट्रैटेजी पर अमल करने लगा जो उसकी पुरानी स्ट्रैटेजीज़ का मिक्सचर है। यह ऐसी स्ट्रैटेजी है जिसके नतीजे में नफ़रत और इस्लामोफ़ोबिया तेज़ी से फैला।

11 सितम्बर 2001 से पहले अमरीका के विदेशी दुश्मन को पराए कहा जाता था और उनका इस देश के मुद्दों पर बहुत दूर का सीमित असर पड़ा करता था।

जंगों मे शहरों को ध्वस्त किया जाता था और शीत युद्ध के समय में शहरों को दो हिस्सों में बाट दिया जाता था। यह सब कुछ दूर दराज़ के इलाक़ों में होता था। इतने दूर कि जब हालीवुड की फ़िल्मों में उसकी दास्तान दिखाई जाती थी तो लोगों को बस रहम आता था जबकि इससे अमरीका की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए कोई समस्या नहीं उत्पन्न होती थी। मगर 11 सितम्बर के वाक़ए से यह पता चला कि अमरीका की सुरक्षा पर भी ज़ख़्म लगाया जा सकता है और इससे अमरीका की तरफ़ से अधिक बड़े पैमाने पर सुरक्षा और सामरिक क़दम उठाने का माहौल बना।

11 सितम्बर से पहले जितने भी डिस्कोर्स थे वो सब एक साथ जमा किए गए कि आतंकवाद से जंग के विषय के इर्द गिर्द वो केन्द्रित हो जाएं। यह डिस्कोर्स थे, दूसरे विश्व युद्ध में केन्द्रीय रोल, शीत युद्ध में जासूस बाज़ी का डिस्कोर्स और शीत युद्ध के बाद और 11 सितम्बर से पहले आर्मागेड्डोन का डिस्कोर्स।

अमरीकियों ने इसी एजेंडे के तहत अपने और पराए के बीच मोर्चाबंदी की। एक तरफ़ अपनों का ग्रुप और दूसरी तरफ़ पराए लोगों का समूह रखा गया। अमरीकी जब बात करते थे तो अपनों के ग्रुप के लिए 'वी' या हम की संज्ञा इस्तेमाल करते थे और परायों के लिए 'दे' या वो लोग का शब्द प्रयोग करते थे।

अगर यह कहा जा सकता है कि आतंकवाद से जंग के डिस्कोर्स में विक्टिम, आतंकवादी और चैम्पियन जैसे तीन फ़ैक्टर हैं तो अतीत के तीनों डिस्कोर्स की झलक इस नए डिस्कोर्स में मौजूद है।

विक्टिम के रूप में नई अंतर्राष्ट्रीय भूमिका को प्रदर्शित किया जाता है, जासूस बाज़ी और शहरों के विभाजन का पूरा खेल आतंकवादी के रूप में दिखाया जाता है और आर्मागेड्डोन का डिस्कोर्स चैम्पियन वाले फ़ैक्टर में नज़र आता है और यह हालीवुड की फ़िल्मों के अहम बिंदु हैं। हमें यह जायज़ा लेना है कि हालीवुड की फ़िल्में किस तरह इन सारे डिस्कोर्सेज़ के बीच से आतंकवाद से जंग के डिस्कोर्स को फैलाने और उसे यक़ीन करने लायक़ बनाने में सफल हुईं।

  1. विक्टिम को ख़ूब बढ़ चढ़ कर प्रदर्शित करना

11 सितम्बर की घटनाओं के बारे में एक चीज़ यह महत्वपूर्ण थी कि पीड़ितों और उनके दुख दर्द को बहुत विस्तार से दिखाया गया। घटना से पहले और घटना के दौरान उन लोगों की पीड़ा को दिखाया गया जो इस घटना में मारे गए। इसी तरह उनके परिवारों की मज़लूमियत और दुख दर्द को मार्मिक रूप से पेश किया गया। इसलिए ज़रूरी था कि पीड़ितों के निजी दुख दर्द को सार्वजनिक दुख दर्द में बदला जाए और और शोक कर्यक्रमों को बहुत बड़े पैमाने पर आयोजित किया जाए।

मीडिया की गवाहियों के ज़रिए लोगों की निजी पीड़ा को सार्वजनिक पीड़ा में बदला जा सकता था। इस तरह हर इंसान ख़ुद को पीड़ित की जगह पर रखने लगा। जिसने भी 'Extremely Loud and Incredibly Close' फ़िल्म के बच्चे को देखा उसे उस बच्चे से गहरी हमदर्दी हो गई। इससे उन कार्यक्रमों की याद ताज़ा होती है जो जंग के दौरान सबको पीड़ा में शामिल करने और माहौल तैयार करने के लिए आयोजित किए जाते थे।

  फिल्म 'Extremely Loud and Incredibly Close'

 

  1.  दुश्मन को प्रदर्शित करना

11 सितम्बर के बाद हालीवुड की फ़िल्मों में परायों को दिखाने के लिए दरअस्ल अरबों और मुसलमानों को दिखाया गया। बहुत सारी फ़िल्में जैसे Body of Lies (2008), Charlie Wilson’s War (2007), Rendition (2007), Hidalgo (2004), Syriana (2005)  Iron Man (2008) सब की सब किसी अरब या मुसलमान कैरेक्टर को दिखाती हैं जो आतंकी के रूप में अमरीका या किसी अमरीकी हस्ती पर हमला करता है। जबकि मुसलमानों से जुड़े आतंकी संगठनों की संख्या को मुसलमानों के उन संगठनों की तुलना में देखा जाए जिनका हिंसा से कोई लेना देना नहीं है तो इन आतंकी संगठनों की संख्या बहुत मामूली है।

  1. हीरोज़ को प्रदर्शित करना

11 सितम्बर के बाद आतंकवाद से जंग के हीरो को सुपर चैम्पियन और अजेय नहीं दिखाया जाता जो दूसरे हर इंसान से अलग हो बल्कि उसके अंदर कुछ गिने चुने सिम्बल्ज़ होते हैं जो एक ख़ास आइडियालोजी को प्रदर्शित करते हैं। यह आइडियालोजी जो 11 सितम्बर के बाद सारे हीरोज़ के ज़रिए स्थापित की गई इंतेक़ाम लेने और देश के लिए जान दे देन पर आधारित थी। 2012 की फ़िल्म Zero Dark Thirty में जो ओसामा बिन लादेन को खोजकर उसकी हत्या करने की कहानी पर आधारित है एक साधारण लेकिन जुझारू महिला मुख्य रोल में है उसके अंदर एक जज़्बा बहुत मज़बूत दिखाया गया है इंतेक़ाम और देश प्रेम का जज़्बा।

 फिल्म Zero Dark Thirty

 

इन तीनों फैक्टर्ज़ को एक साथ रखने से 11 सितम्बर और उसके बाद की घटनाओं के बाद अमरीका के मद्देनज़र नैरेटिव मुकम्मल हो जाता है। वो नैरेटिव जिसमें बुनियादी तौर पर आतंकवादी को अरब या मुसलमान दिखाया जाना है और इससे आतंकवाद से जंग के डिस्कोर्स की एक कड़ी पूरी होती है और इसके नतीजे में इस्लामोफ़ोबिया फैलता है जो अमरीका का अहम लक्ष्य है।

यह सारे नैरेटिव्ज़ इस्लामी दुनिया में अमरीका और पश्चिमी ताक़तों की जंगों, क़ब्ज़ों और हस्तक्षेपों का तर्क पेश करने के एजेंडे का हिस्सा हैं।

'फ़स्लनामे इल्मी मुतालेआते ख़ावर मियाने' मिडिल ईस्ट स्टडीज़ तिमाही मैगज़ीन के लेख पर आधारित

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