क्या अब समय नहीं आ गया है कि पश्चिमी मीडिया बेवक़ूफ़ बनाना बंद करे?
पार्स टुडे- यूरो न्यूज़ ने हालिया दिनों में कई बार इस तरह की ख़बरें प्रसारित कीं कि यूरोप के संस्थानों के कर्मचारियों ने ग़ज़ा में मारे गए लोगों के समर्थन में प्रदर्शन किए और इस ख़बर को पश्चिम के सरकारी संस्थानो की नज़र में मानवाधिकार के ख़ास महत्व की दलील के तौर पर पेश करने की कोशिश की।
ग़ज़ा की घटनाओं और रफ़ह पर इस्राईली सेना के हमले की वजह से जहां लाखों की संख्या में फ़िलिस्तीनियों ने शरण ले रखी है सारी दुनिया में आम जनता का आक्रोश भड़का दिया है।
इसी वजह से यूरोपीय संघ की कुछ संस्थाओं के कर्मचारियों ने ब्रसेल्ज़ में ग़ज़ा के मृतकों के शोक में कुछ दिनों से मूक मार्च शुरू किया है और उनका कहना है कि यूरोपीय मूल्यों की मौत पर उन्हें सख़्त एतेराज़ है।
यूरो न्यूज़ और दूसरे मीडिया संस्थानों ने रफ़ह पर ज़ायोनियों के हालिया हमलों के बारे में बिल्कुल ग़ैर इंसानी नैरेटिव गढ़ने की कोशिश की है और इसे महत्वहीन और वक़्ती आप्रेशन ज़ाहिर करने की कोशिश की है।
बल्कि यूं कहा जाए कि पश्चिमी मीडिया सह ग़लत धारण पैदा करना चाहता है कि रफ़ह की जंग अभी उस तरह शुरू नहीं हुई जैसी होनी चाहिए।
विश्व जनमत को अभी अच्छी तरह याद है कि जंग के दूसरे महीने में जब हज़ारों की संख्या में फ़िलिस्तीनी शहीद हो चुके थे जर्मन चांसलर ओलाफ़ शोल्ट्ज़ ने किस तरह ग़ज़ा पट्टी में जारी नस्लीय सफ़ाए को ज़ायोनियों के अपने अधिकारों की हिफ़ाज़त की कार्यवाही का नाम दिया था।
उस समय यूरो न्यूज़ ने बहुत ज़ोर शोर से शोल्टज़ की बात को बिल्कुल सही बयान क़रार दिया था। जब हालिया समय में अमरीका में छात्रों ने प्रदर्शन किए और यूरोपीय देशों में भी छात्रों के प्रदर्शन फूट पड़े तो इसे सीधे सीधे एंटी सेमिटिज़्म का नाम दे दिया गया। यहां तक कि यूनिवर्सिटियों में पुलिस के प्रवेश और छात्रों के दमन को भी सही ठहराया था।
इन हालात में यूरोपीय संघ के सरकारी संस्थानों के कर्मचारियों का प्रदर्शन विश्व जनमत का मज़ाक़ उड़ाने के अलावा कुछ नहीं है।
बेहतर होगा कि यूरो न्यूज़ और दूसरे यूरोपीय मीडिया संस्थान इस ख़बर की कवरेज के बजाए ज़्यादा अहम सवालों के जवाब तलाश करें जैसे यह सवाल कि ग़ज़ा में जारी नस्लीय सफ़ाए में जर्मन और फ़्रांसीसी इंटेलीजेंस एजेंसियों की क्या भूमिका है और यह कि लाजिस्टिक्स और हथियारों की ज़ायोनियों को सप्लाई में उनका क्या रोल है?
ज़ायोनी लाबियां जो यूरोपीय पार्टियों और मीडिया पर हावी हैं यूरोपीय संस्थाओं के कर्मचारियों के मौन मार्च से बिल्कुल भी परेशान नहीं हैं बल्कि इसे तो वो अपने ज़हरीले प्रोपैगंडे के अच्छे अवसर के रूप में देख रही हैं।
यूरो न्यूज़ की नई हरकत यह है कि पश्चिम में ज़ायोनिज़्म विरोधी प्रदर्शनों को अंडरमाइन करे और उसके बाद छात्रों के प्रदर्शनों को रेडिकल काम का नाम दे। यूरोप में मीडिया का यह कुचक्र बर्सों बल्कि दशकों से चलता रहा है जिसे सोशल डेमोक्रेट्स और कंज़रवेटिव्ज़ सबका का समर्थन हासिल है।
ग़ज़ा की लड़ाई विश्व स्तर पर लोगों की बेदारी और जागरूकता के संदर्भ में एक एतिहासिक मोड़ बन गई है और इस बेदारी व जागरूकता का सबसे अहम नतीजा पश्चिम के मीडिया साम्राज्य की पकड़ का कमज़ोर पड़ जाना है।
समाचार पत्र फ़रहंगियान में हनीफ, ग़फ़्फ़ारी के लेख का सारांश
प्रोपैगंडा, विश्व जनमत, ग़ज़ा युद्ध, पश्चिमी मीडिया
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